८ सामाजिक पर्यावरण
आदिवासियों की अस्मिता का प्रश्न
शंकर तड़वाल
आदिवासियों के कल्याण को लेकर आजकल बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं। इसी के साथ यह भी प्रयत्न किया जा रहा है कि उन्हें मुख्यधारा में लाने के नाम पर उन्हें उनकी संस्कृति से ही वंचित कर दिया जाए। आदिवासी समाज धर्म के नाम पर अंधविश्वास फैलाने वाले धर्म गुरुआें की जकड़ में जा रहा है। आदिवासियों के आत्मसम्मान, स्वयंनिर्णय, स्वावलम्बन, मानवप्रतिष्ठा, संस्कृति एवं मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है। आजादी मिलने के बाद पूंजीवादी विकास मॉडल के तहत् शहर के चंद लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन व खनिज स्त्रोतों को सीमित लोगों के लिए लुटाया जा रहा है।
हम भारत के लोग ...... भारत को एक संपूर्ण, प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, सामाजिक, आर्थित और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता जैसे उसूलों को सही रूप से लागू करने में देश की सरकारें नाकामयाब रही हैं। व्यक्ति की गरिमा और बंधुता बढ़ाने के भारतीय संविधान के आश्वासन के मुताबिक देश नहीं चल रहा है। आदिवासी अपने आप को गुलाम महसूस करते हैं। उनके साथ अपने ही देश में नस्लभेद और भेदभाव का बर्ताव किया जा रहा है। देश में दस करोड़ आदिवासियों का अपना कोई संगठन नहीं है।
भारत के लोगों को बहुत कम जानकारी है कि आखिरकार ये आदिवासी लोग कौन हैं ? सन् १८९१ की जनगणना रिपोर्ट में जनसंख्या आयुक्त जे.ए.बेन्स ने आदिवासयिों का कृषक व चरवाहा जनजाति के नाम से पृथक उप-शीर्षक बनाया था। सन् १९०१ की जनसंख्या रिपोर्ट में उन्हें प्रकृतिवादी कहा गया। सन् १९११ में उन्हें जनजातीय प्रकृतिवादी अथवा जनजातीय धर्म को मानने वाले लोग कहा गया। सन् १९२१ में उन्हें पहाड़ी व वन्य जनजाति नाम दिया गया। सन् १९३१ में उन्हें आदिम जनजातीय कहा गया। सन् १९३१ तक जनगणना रिपोर्ट में भी प्रकृतिपूजक एवं एनिमिस्ट धर्म लिखा गया था।
जनजाति शब्द का अर्थ व्युत्पत्ति शास्त्र के अनुसार अंग्रेजी शब्द ट्राइब त्रिभुज शब्द से माना जाता है। जिसका अर्थ तीन अंग है। यानी राजा, रक्षा तथा हस्त-कलाकार। किसी निश्चित भू-क्षेत्र विशेष पर किसी जनजाति का स्थायी निवास उसका भौगोलिक परिचय देता था। मानव शास्त्रियों तथा समाजशास्त्रियों ने ऐसे किसी निश्चित सीमा के अन्दर निवास करने वाले लोगों की प्रजाति को जनजाति माना है। किसी भी समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के लिए निम्नलिखित मापदण्ड निश्चित किये गये हैं।
१. विशिष्ठ संस्कृति जिसमें जनजाति जीवनयापन का चित्रण जैसे भाषा, परम्पराएं, धार्मिक विश्वास, कला व दस्तकारी आदि शामिल हैं।
२. किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र पर पारम्परिक अधिकार।
३. व्यावसायिक ढांचा, आर्थिक व्यवस्था आदि को दर्शाने वाली आदिकालीन विशेषता।
४. शैक्षिक तकनीकी व आर्थिक विकास की कमी।
आदिवासी समाज के धर्म के मामले में जानकर आपको ताज्जुब होगा। भारत के संविधान ने आदिवासियों के धर्म संबंधी मामलों में बहुत ही संवैदनशीलता दिखाई हैं। आदिवासियों के धर्म को लेकर कोई कठोर कानूनी या संवैधानिक प्रावधान नहीं हैं। वैसे हर नागरिक को संविधान की धारा २५ के तहत् अपना धर्म मानने व पालन करने की स्वतंत्रता है। संविधान की धारा २९ में संस्कृति को बनाये रखने की स्वतंत्रता भी है। आदिवासियों द्वारा धर्म अपनाने में कोई कठोर प्रतिबंध नहीं है। आदिवासी हिन्दु, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान में भी हैं तथा एक मायने में वह स्वतंत्र जनजातीय धर्म का भी है। अर्थात वह चाहे तो हिन्दु, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान भी नहीं है। देश की सर्वोच्च न्यायालय भी आदिवासियों को हिन्दु नहीं मानती। शादी, विवाह के मामले में आदिवासियों को किसी अन्य धर्म के कानून के सहारे की जरूरत नहीं है। इस हेतु स्वतंत्र आदिवासी कानून संविधान में विद्यमान हैं।
आदिवासी बार-बार दुनिया के वृहद समाज वालों को कहता है कि प्रकृति ही परमेश्वर है। आज दुनिया में जितने भी अनाज के बीज जो प्रकृति ने बनाये थे, वह विलुप्त हो रहे हैं। चांवल, उड़द, बाजरा, मक्का जैसे अनेक अन्न तथा अन्य सब्जियों एवं फसलों के परम्परागत बीजों की हजारों प्रजातियां हमेशा-हमेशा के लिए विलुप्त कर दी गई हैं। उधर जड़ी बूटियों के पौधों की प्रजातिया भी धरती से विलुप्त हो रही हैं। समुद्र की मछलियों से लेकर पृथ्वी पर से चिड़िया व जंगली जानवरों की जातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। इधर धरती के हमारे पेट्रोलियम जैसे प्राकृतिक संसाधन सात पीढ़ियों के पहले ही खत्म हो जाने वाले हैं। कारखानों एवं वाहनों के धुआें के बढ़ोत्तरी के फलस्वरूप ओजोन परत के अप-क्षरण से माता आग को गोला बनने की ओर अग्रसर है। धरती पर कूलर का काम रकने वाले उत्तरी ध्रुव पर लाखों वर्षो से जमी हुई बर्फ पिघलने की गति प्रतिवर्ष तेज हो रही है।
इस संबंध में आज एक वैचारिक आंदोलन की आवश्यकता है। आंदोलन केवल आदिवासियों के अस्तित्व टिकाने का नहीं बल्कि पूरी मानव सभ्यता के अस्तित्व को बचाने का हैं देश-देश, धर्म-धर्म, जात-जात, वर्ग-वर्ग के टकराव के स्थान पर समन्वय बिठाने एवं संघर्ष टालने के लिए यह आंदोलन आवश्यक है। देश में विषम परिस्थितियां निर्मित हो रही हैं। देश दो भागों में बटता जा रहा है। पहला अमीर भारत एवं दूसरा रोजगारहीन, आवासहीन, कुपोषित, सिकलसेल एनीमिया, कारखाना जन्य सिलिकोसिस जैसी बीमारियों से ग्रस्त भारत । स्वास्थ्य सुविधाविहीन, शिक्षाविहीन, गांव, वतन, परिवार से विस्थापित नारकीय जीवन वालों एवं आत्महत्या करने वालों का भारत।
आदिवासियों पर अत्याचार व शोषण की सभी हदें पार हो गई हैं। लोक कल्याणकारी राज्य होने के बावजूद भी बड़ी-बड़ी घटनाआें के बारे में कोई भी आदिवासियों से पूछने को तैयार नहीं है। फिर यदि असंतोष के स्वर उठने लगते हैं तो उनकी आवाज को अनसुनी करने के लिए उन्हें नक्सली गतिविधि, जातिवादी आंदोलन, आतंकवादी या माहौल बिगाड़ने का षडयंत्र करार दिया जाता है।
हम मानते हैं कि ईसाई धर्म प्रचारकों ने भी आदिवासियों की संस्कृति में छेड़खानी की है। आदिवासियों की पहचान को मिटाने के कार्य भी जरूर हुए हैं। कुछ आदिवासी ईसाई धर्म में धर्मान्तरिक भी हुए हैं। परंतु शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनके सराहनीय कार्य हैं। किन्तु आदिवासियों को हिन्दु हैं कह कर ब्राह्मणवादी लोग उनसे जबरन ऊपर ब्राह्मणी संस्कृति का अनुसरण कराते हैं। इस कार्य को धर्मान्तरण की श्रेणी में क्यों नहीं लिया जाता ? आदिवासियों के बीच संस्कार या धार्मिक कार्यक्रम बताकर ब्राह्मणवादी लोगों द्वारा मंदिर निर्माण, मूर्तियों की स्थापना एवं देवी देवताआें के फोटो बांटे जाते हैं। आदिवासियों के पुराने परंपरागत देव स्थलों, देवी-देवताआें को नजर अंदाज किया या भुलाया जाता है। हिन्दु एवं ईसाई धर्म की आपसी धार्मिक प्रतिस्पर्धा में आदिवासियों को बुरी तरह से घसीटा जा रहा है। उसकी कीमत आज आम आदिवासी को चुकानी पड़ रही हैं। आदिवासी समाज धार्मिक राजनीति से भी आहत हो रहा है।
आदिवासी समाज को अपने निजी जीवनयापन के संसाधन जैसे जल, जंगल, जमीन और खनिज सम्पदा से बेदखल किया जा रहा है। वन विधेयक २००६ में भी आदिवासियों की आकांक्षाआें की आपूर्ति होने की गुंजाईश नहीं है। क्योंकि इसमें जंगल पर लोगों के सामूहिक (सामाजिक) अधिकार का कोई प्रावधान नहीं है। विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र के कानून द्वारा सामूहिक स्त्रोत जैसे जल, जंगल, जमीन और खनिज सम्पदा सरकार द्वारा ही सीमित विशिष्ट व्यक्तियों को उपलब्ध करवाई जा रही है। बड़े बांध, कारखाने, रेल्वे, हाइवे, रास्ते अभयारण्य, फिल्म शूटिंग एरिया ज्यादातर आदिवासी क्षेत्रों में ही स्थित हैं। इससे आदिवासियों में बेरोजगारी की समस्या खड़ी हुई हैं। जल, जंगल, जमीन व खजिन सम्पदा श्रमजीवियों को मुहैया कराये बिना और सुरक्षा प्रदान किये बिना इस समस्या का हल नहीं हो सकता है। भारत में ६९७ आदिवासी जातियों में से ५२ जातियां विलुप्त हो गई हैं। आदिवासी संस्कृति, इतिहास, जीवन मूल्य, कला और ज्ञान सिर्फ आदिवासी का ही नहीं बल्कि सारी मानव जाति की विरासत है। इसलिए आदिवासी पहचान बनाये रखना जरूरी है। आदिवासी क्षेत्र में ५वीं अनुसूचित की व्यवस्था संविधान में की हैं किंतु इसे आजादी से आज तक अमल में नहीं लाया गया। आदिवासी महिलाआें का दोहरा शोषण हो रहा है। सिर्फ आदिवासी समाज को ही स्पर्श करने वाली बीमारी सिकलसेल एनिमिया का फैलाव हो रहा है। आदिवासी लोग सबसे अधिक कुपोषण के शिकार हैं।
आदिवासी समाज की आकांक्षा है कि देश के सभी समाजों को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय, धर्म और संस्कृति के पालन की स्वतंत्रता हो तथा मानवप्रतिष्ठा और समानता तथा समाज के बंधुत्व भाव स्थापित हो। संविधान के उक्त उद्देश्य की प्राप्ति के आश्वासन का क्रियान्वयन हो। दुनिया में मानवों का अस्तित्व पारिस्थितिकीय संतुलन के साथ बना रहे। धरती हरी भरी बनी रहे। धर्मो पर पुनर्विचार होता रहे। मानव एक दूसरे के हित का सम्मान करें, ख्याल रखें। भाषायी, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, जैविक, प्राकृतिक विविधता विद्यमान रहे। ऐसे भारत का निर्माण होगा, तभी हमारे राष्ट्र निर्माताआें के सपने साकार होंगे। ***
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