गुरुवार, 31 मई 2007

वक्त आ रहा है - बायो डीजल से दाल छौंकने का

१० कृषि जगत

वक्त आ रहा है - बायो डीजल से दाल छौंकने का

सौरव मिश्रा/कीर्तिमान अवस्थी

योजना आयोग, (जिसे भूमण्डलीकरण एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों का पक्षधर माना जा रहा है) भी भारत सरकार के अनेक मंत्रालयों की दिशाहीनता और लालच से घबरा गया है। एक कृषि उपज को व्यापक बनाने के कार्यक्रम में कृषि मंत्रालय की उपेक्षा करना क्या सिद्ध करता है? आज जब देश खाद्य तेल की कमी व बढ़ते दामों से परेशान है ऐसे में भी खाद्य तेलों के उत्पादन की कोई दीर्घकालीन योजना बनाने के बजाय बायो डीजल पर अधिक जोर दिया जा रहा है। इसके पीछे के मकसद किसी से छुपे नहीं हैं।

११ वीं पंचवर्षीय योजना के प्रारुप में योजना आयोग ने देश के विभिन्न भागों में बायो डीजल उत्पादन के लिए हो रही जेट्रोफा (रतनजोत) की खेती से पड़ने वाले पर्यावरणीय व सामाजिक आर्थिक प्रभावों को लेकर चिंता व्यक्त की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जेट्रोफा अधिक पानी इस्तेमाल करने वाली फसल है। इसकी खेती से न केवल पीने के पानी की कमी होगी बल्कि पशुआें की चरने वाली भूमि पर और वन्य प्राणियों के निवास वाली भूमि पर भी अतिक्रमण हो जाएगा।

इस रिपोर्ट का आना वैसे तो आश्चर्य का विषय है क्योंकि यह योजना आयोग ही था, जिसने अप्रैल २००३ में केन्द्र सरकार पर दबाव डाला था कि वह बड़े स्तर पर झट्रोफा की खेती को एक राष्ट्रीय मिशन के अंतर्गत लेकर इस बात के लिये प्रयत्न करे कि सन् २०१० तक डीजल की कुल खपत में बायोडीजल का योगदान २० प्रतिशत तक हो जाए। छत्तीसगढ़ से प्रारंभ हुई झट्रोफा खेती की आरंभिक योजना आठ वर्षोंा के लिये बनी थी। वैसे इस कार्यक्रम को अभी आधिकारिक रुप से प्रारंभ नहीं किया गया है, परन्तु अधिकांश राज्यों में इसके अंतर्गत झट्रोफा की खेती प्रारम्भ कर दी गई है।

राष्ट्रीय बायोडीजल कार्यक्रम की शुरुआत तीन केन्द्रीय मन्त्रालयों, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस, ग्रामीण विकास और पर्यावरण एवं वन मंत्रालयों एवं कुछ राज्य सरकारों द्वारा इस प्रक्रिया को ही गलत तरीके से प्रारंभ करने से हुई। सबसे आश्चर्यजनक यह है कि केन्द्रीय कृषि मंत्रालय को इससे एकदम अनभिज्ञ व अलग रखा गया।

छत्तीसगढ़ के अशोक प्रधान का कहना है कि सरकार द्वारा निर्मित जेट्रोफा अतिरंजना के कारण भूमि-माफिया और बड़े निगमों ने जिसमें से कई निजी व सार्वजनिक कंपनियाँ रिलायन्स, ईमामी, किट-प्लाय, इण्डियन आईल व भारतीय रेल शामिल है, ने छत्तीसगढ़ में २०,००० हेक्टेयर वन और चरनोई की भूमि पर कब्जे का आश्वासन छत्तीसगढ़ सरकार से ले लिया है।

जमीनों पर कब्जे के पागलपन में यहाँ के विभिन्न जिलों के ३० किसानों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। इस खेती के लिये चूँकि छत्तीसगढ़ सबसे आकर्षक स्थान के रुप में उभरा है अतएव यहाँ के गरीब किसानों की जमीनों पर कब्जा करने के लिये पंजाब और हरियाणा के अमीर किसान जिनकी निगाह जेट्रोफा की मलाईदार कमाई पर है, यहाँ पहुँच गए हैं और सरकार द्वारा मात्र १०० रुपये प्रति हेक्टेयर की लीज लेना भी उनके लिये सोने पर सुहागा साबित हो रहा है।

इस मिशन द्वारा सन् २०१२ तक १ करोड़ १० लाख हेक्टेयर भूमि को जेट्रोफा खेती के अंतर्गत लाने का प्रस्ताव है और इस हेतु पूरे देश में १ करोड़ ७० लाख, हेक्टेयर वेस्टलैंड चिन्हित भी कर लिया गया है। पर इन जमीनों पर कब्जा असान नहीं है क्यांेकि उजड़े वन क्षेत्रों पर अनेकों गाँव छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में बस चुके हैं। स्थानीय राजनीति के चलते इन्हें खाली करवाना आसान नहीं होगा।

दूसरी ओर इस खेती कार्यक्रम के औचित्य पर ही प्रश्न चिह्र लगा हुआ है। क्योंकि इस खेती के लिये आवश्यक १ करोड़ १० लाख हेक्टेयर भूमि भारत की कुल उपजाऊ भूमि जिसमें कि वेस्टलैंड भी शामिल हैं का ७ प्रतिशत है। यह भारत में कपास उत्पादन क्षेत्र से अधिक और गेहँू की खेती के क्षेत्र के आधे से ज्यादा है।

रतनजोत खेती का प्रचार जिस आक्रामकता से हो रहा है उनसे अनेक मोटे अनाज और अन्य खाद्य पदार्थ जिनका उत्पादन वेस्टलैंड में हो रहा था खतरे में पड़ गये हैं। अनाज व्यापारियों का कहना है कि ''देश में खाद्य तेल की जबरदस्त कमी है। पिछले वर्ष हमने ९ अरब डॉलर कीमत का खाद्य तेल आयात किया था। हम इन स्थानों पर बजाय जेट्रोफा के मुंगफली इत्यादि उपजाकर खाद्य तेल क्यों प्राप्त नहीं करते।''

पिछले दो वर्षोंा में कच्चे तेल की कीमतों में हुई तकरीबन तीन गुना वृद्धि ने झट्रोफा की खेती के प्रति उत्साह को पागलपन की श्रेणी में ला दिया है। यूरोपियन यूनियन द्वारा बायोडीजल की मिलावट (बलेंडिंग) अनिवार्य कर देने के पश्चात उपज में नये व्यापारिक हितों का समावेश भी हुआ है।

भारतीय अतिरिक्त भूमि (वेस्टलैंड) की तुलना में मलेशिया और इण्डोनेशिया में इस तरह की भूमि पर की जा रही खेती से की जा रही है। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि भारत की जनसंख्या इनसे अधिक है और यहाँ पर लोगांे की जीविका और खाद्य सुरक्षा इस पर अधिक निर्भर है। कृषि विशेषज्ञों ने तो जेट्रोफा की खेती पर ही प्रश्न चिह्र लगा दिया है, उनका कहना है कि इसके स्थानापन्न के रुप में करण (वानस्पतिक नाम पोंगामिया) जैसी अन्य देशज प्रजातियाँ मौजूद हैं। परन्तु जेट्रोफा के पक्ष में यह दलील दी जा रही है, कि यह बहुवर्षीय और मजबूत झाड़ीदार वृक्ष है जिसे कि सीमान्त भूमि पर भी उपजाया जा सकता है। यह सूखा और रोग प्रतिरोधी भी है एवं इसके बीजों में करीब ३० प्रतिशत तेल समाहित होता है, जिसका उपयोग बायोडीजल उत्पादन के लिये किया जा सकता है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि रोपण के छठे वर्ष से झट्रोफा के माध्यम से प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर २.५ टन बायोडीजल की प्राप्ति होगी। साथ ही जेट्रोफा को उस सूखे क्षेत्र के लिये भी वरदान माना जा रहा है जहाँ पर कि पानी की कमी है।

पर व्यावसायिक उत्पादन के लिये आवश्यक है कि इसकी खेती में सिंचाई की जाए, कटाई, छटाई व निंदाई गुड़ाई भी की जाए, खाद डाली जाए एवं सूर्य का समुचित प्रकाश इसे मिले। जेट्रोफा की खेती के लिये न्यूनतम ६०० मिमी. का बारिश वाला इलाका चाहिये। ४०० से ६०० मिमी. वर्षा वाले क्षेत्र में अगर इसकी खेती की जाती है तो सिंचाई की समुचित सुविधाएँ आवश्यक हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि जेट्रोफा अपनी पत्तियों को गिराकर दो से तीन वर्ष के सूखे का ही मुकाबला कर सकता है। जेट्रोफा की जड़ें गहरी नहीं होती । अत: उसे ऊपरी सतह पर ही पानी की दरकार होती है, वहीं करण की जड़ें १० मीटर तक गहरी होती हैं। अत: वह ऊपरी सतह के पानी का इस्तेमाल नहीं करता।

कृषि वैज्ञानिक भी इन तथ्यों से सहमत नजर आते हैं। उनका मानना है कि अगर जेट्रोफा की तुलना अन्य खाद्य और वन उपज उसके लिये आवश्यक भूमि पानी और पोषक पदार्थोंा से फसली श्रेणी और कृषि-जैव विविधता से करें तो विशेषज्ञों के विचार विरोधाभासी हैं।

दूसरी ओर निकारागुआ का उदाहरण वहाँ इससे मिलने वाली अत्यधिक पैदावार के लिए दिया जाता है। परन्तु निकारागुआ में वर्षा का औसत (१७०० मिमी.) भारत के वर्षा औसत (११०० मिमी.) से कहीं अधिक है। साथ ही हमारे यहां यह औसत असमान भी है। व अफ्रीका के कई देश तो भूमि पर इससे पड़ने वाले प्रभावों की वैज्ञानिक जाँच तक करवा रहे हैं।

जेट्रोफा का वन सघनीकरण में भी प्रयोग में नहीं लाया जा सकता क्योंकि यह अन्य वृक्षों के समकक्ष पनप ही नहीं सकता। ऊँचे वृक्ष झट्रोफा की बढ़ौत्तरी को रोक देते हैं। अगर सरकार फिर भी इसकी खेती को प्रोत्साहन देती है तो इसका स्वरुप एक तरफा ही होगा, सामुहिक नहीं।

इसी कारण कृषि वैज्ञानिक इसका विरोध भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि जेट्रोफा की खेती से लम्बे समय में जैव विविधताआें को नुकसान पहँुचेगा। उनका यह भी मानना है कि इस तरह की एकमेव कृषि से स्थानीय जैव विविधता को भी नुकसान पहँुचेगा। और यांत्रिक बीजकरण से वर्तमान में अस्तित्वमान वनस्पतियाँ नष्ट हो जाएगीं। अतएव मिश्रित खेती ही सर्वश्रेष्ठ है।

अब प्रश्न यह है कि 'सीमान्त' और 'वेस्टलैंड' के इस प्रयोग से सर्वाधिक लाभ में कौन रहने वाला है। सिर्फ पर्यावरणीय लागत की ही बात मत सोचिये यह भी सोचिये कि इस बायोडीजल के प्रयोग से सर्वाधिक लाभ में कौन रहेगा? योजना आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि जेट्रोफा आधारित बायोडीजल निर्माण के अनेक फायदों के बावजूद राज्यों और उद्योग जगत ने जो अवैज्ञानिक और अनैतिक रास्ता अपनाया है उसने इस मिशन के उद्देश्यों को मिट्टी में मिला दिया है अगर इसे तुरन्त नहीं रोका गया तो यह कार्यक्रम सामाजिक, आर्थिक व पर्यावरणीय तीनों ही क्षेत्रों में विफल सिद्ध होगा। ***

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