मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

२ विज्ञान जगत

क्या हम इन्सान ही अक्लमंद हैं ?
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
हमें स्कूल-कॉलेज में पढ़ाया गया था कि सारे जानवरों में सिर्फ इन्सान ही सोचते समझते हैं । यानी हम ही सेपिएन्ट हैं । अब धीरे-धीरे समझ में आ रहा है कि यह दावा कितना मानव-केन्द्रित था । जो नाम हमने अपने-आपको दिया है, होमो सेपिएन्स, वह एक अहंकार का द्योतक है क्योंकि सेपिएन्स (यानी अक्लमंद) का विलोम बेवकूफ होता है । यह भंडाफोड़ तब हुआ जब चिंपैंजी का अध्ययन किया गया । चिंपैंजी हमारे ही कुल के हैं मगर हम उनसे चंद लाख साल पहले अलग दिशा में बढ़ गए थे । सवाल यह था कि क्या वे हमारी तरह संज्ञानशील हैं और सोचते हैं । हाल ही में क्योटो विश्वविद्यालय के डॉ. तेतसुरो मात्सुज़ावा ने दर्शाया है कि ५ साल के चिंपैंज़ियों ने याददाश्त के एक अभ्यास में कॉलेज विद्यार्थियों को पछाड़ दिया । उनका शोध पत्र करंट बायोलॉजी के अंक में पिछले दिनों प्रकाशित हुआ है । इसमें ५ साल के तीन चिंपैंजियों के प्रदर्शन का ब्यौरा दिया गया है । इन चिंपैंजियों को अरबी अंक १ से ९ का क्रम सिखाया गया था । अंकों का क्रम सिखाने के बाद उन्हें एक परीक्षण दिया गया जिसमें उन्हें ये अंक एक कम्प्यूटर के पर्दे पर दिखाए जाते हैं । जब वे पहले अंक को छूते तो शेष ८ अंक सफेद वर्गाकार डिब्बो में बदल जाते थे । परीक्षण यह था कि चिपैंजी इन आठों को उन अंकों के क्रम में छुएं जो डिब्बों में बदलने से पहले वहां थे । इन चिपैंजियों और कॉलेज के आठ छात्रों की प्रतियोगिता में चिपैंजी लगातार हर बार जीते और चिपैंजियों में भी अयुमु नाम का चिंपैंजी तो आइंस्टाइन साबित हुआ । वैज्ञानिकों का कहना है कि यह परीक्षण इस धारणा को चुनौती देता है कि इन्सान हर तरह के संज्ञान में चिंपैंजी से बेहतर होते हैं । संज्ञान थोड़ा भारी-भरकम शब्द है । इसका आशय जानने या प्रतीति के कार्य या प्रक्रिया से होता है । इसका संबंध विचार निर्माण या अमूर्तिकरण से भी होता है । अयुमु की हरकतें इस परिभाषा में पूरी तरह फिट होती हैं । और ४२ वर्षीय चिंपैंजी वाशो की हरकतें भी इस परिभाषा में फिट होती हैं, जिसकी मृत्यु कुछ ही दिनों पहले वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के परिसर में हुई। वाशो इतनी मशहूर हो गई थी कि उसका शोक संदेश एक पेशेवर शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ था । वाशो को वैज्ञानिक दंपति एलन व बीट्रिस गार्डनर ने दो वर्ष की उम्र से पाला था । गार्डनर दंपति इस बात का अध्ययन करने में जुटे थे कि क्या चिंपैंजी कोई भाषा सीखकर हमारे साथ संवाद कर सकते हैं । चूंकि चिपैंज़ियों के पास बोलने के लिए जरूरी स्वर यंत्र नहीं होता, इसलिए वैज्ञानिकों ने फैसला किया कि वे वाशों को अमेरिकन साइन लेंग्वेज (इशारों की भाषा) यानी ए.एस.एल. सिखाएंगे । खुद उसके एक शारीरिक हावभाव और हाथांे के इशारे (भुजाओें को पास-पास लाना) से शुरू करके वैज्ञानिकांें ने संकेत को इस तरह ढाला कि इसका अर्थ हुआ `अधिक' । जल्दी ही गार्डनर दंपत्ति ने पाया कि वाशो अपने आसपास के इन्सानोें को ए.एस.एल.के इशारे इस्तेमाल करते देखकर स्वयं वे इशारे सीख सकती है । यह रिपार्ट किया गया है कि धीरे-धीरे वाशो करीब २५० शब्द और मुहावरे काफी विश्वसनीय ढंग से इस्तेमाल कर सकती थी । और तो और, वाशो ने एक चिंपैज़ी बच्च्े लूलिस को अपने पुत्र के रुप में अपना लिया और उसे भी अपना कुछ ज्ञान सिखाया । ज़ाहिर है, लूलिस को ए.एस.एल. सिखाने के लिए चिंपैज़ी भाषा का उपयोग हुआ होगा । जैसी कि उम्मीद थी प्रोजेक्ट वाशो ने विज्ञान जगत में हलचल पैदा कर दी । यह हलचल अभी भी थमी नहीं है । चालीस साल पहले भाषा वैज्ञानिक नोम चोम्स्की ने सुझाया था कि दुनिया की सारी भाषाएं एक सार्वभौमिक व्याकरण से संचालित होती हैं । उनका दावा था कि हर शिशु इस व्याकरण के ज्ञान के साथ जन्म लेता है । दूसरे शब्दों में, भाषा की समझ एक जैविक विरासत है और संभव है कि भाषा का एक जिनेटिक आधार हो । यदि यह दावा सही है, तो हमें अपेक्षा करनी चाहिए कि सिर्फ चिंपैंजी ही नहीं बल्कि कुत्ते, बिल्ली और चूहों जैसे अन्य स्तनधारी भी अपने-अपने अनोखे अंदाज में भाषागत रूप से दक्ष होंगे और अमूर्त चिंतन व अभिव्यक्ति के भी काबिल होंगे । एम.आई.टी. के स्टीवन पिंकर जैसे अन्य भाषाविद् जन्मजात भाषागत समझ को शुद्धत: एक जिनेटिक तोहफे के रूप में देखने के आलोचक हैं । पिंकर का मत है कि भाषा जटिल व उपयोगी होने के अलावा अनुकूलनकारी भी है । ``यह विडंबना ही है कि लोग वनमानुषों को ऊंचा उठाने के लिए हमारी संप्रेषण प्रणाली उन पर थोपना चाहते हैं, गोया यही उनके जैविक महत्व का पैमाना हो ।'' इस तरह के चेतावनी भरे शब्दों के बावजूद जंतु संज्ञान संबंधी शोध विचार व अमूर्तिकरण के क्षेत्र मेंनित नए आश्चर्यजनक तथ्य उजागर कर रहा है । क्या हम पिंकर के `हमारी संप्रेषण प्रणाली उन पर थोपने' को त्याग कर यह अध्ययन कर सकते हैं कि क्या जंतु समूहीकरण कर सकते हैं और इन्सान की मदद के बगैर चित्रों के बीच भेद कर सकते हैं ? इस मुद्दे पर डॉ. फ्रेडरिक रेंज के नेतृत्व में वियतनाम के एक वैज्ञानिक समूह ने विचार किया है । उनका शोध पत्र एनिमल कॉग्निशन पत्रिका के नवम्बर २००७ के अंक प्रकाशित हुआ है । टच स्क्रीन विधि से किए गए प्रयोगों में पता चला कि सभी कुत्तेप्राकृतिक उद्दीपनों के चित्रों को वर्गीकृत कर पाते हैं । श्री रेंज के शोध पत्र के साथ उसी अंक में प्रकाशित एक अन्य शोध पत्र में डॉ. रोसी और डॉ. एडेस ने बताया है कि कुत्ते इन्सानों से संवाद करते समय सुसंबद्ध ढंग से कुछ संकेत ग्रहण कर सकते हैं और प्रदर्शित कर सकते हैं । (कुत्ते पालने वाले तो कहेंगे कि उन्हें तो यह बात हमेशा से पता थी ।) कुछ वर्ष पहले यू.के. के जीव वैज्ञानिकों ने दर्शाया था कि सामान्य कौए एक तार को हॉकी स्टिक के रूप में मोड़कर उसकी मदद से किसी गहरे बर्तन में से भोजन का टुकड़ा निकाल लेते हैं। इस तरह के औज़ार बनाने के लिए विश्लेषण, विचार निर्माण और अमूर्त सोच की ज़रूरत होती है । यदि कौआ ऐसा कर लेता है तो वह अक्लमंद उर्फ सेपिएन्ट है। प्राकृतिक उद्दीपनों के बीच भेद कर के कुत्ते भी सेपिएन्ट हैं, और संकेत भाषा सीखकर और सिखाकर और कम्प्यूटर गेम में कॉलेज के छात्रों को शिकस्त देकर चिंपैंजी भी सेपिएन्ट साबित होते हैं । तो वक्त आ गया है कि होमो सैपिएन्स पदवी को थोड़ा व्यापक तौर पर लागू किया जाए और इसमें अन्य जानवरों को भी शामिल किया जाए । कम से कम हम वनमानुषों से शुरूआत कर सकते हैं । इन्हें पैन सेपिएन्स कहा जा सकता है जैसा कि डॉ. मात्सुज़ावा ने अपनी किताब `प्राइमेट ओरिजिन्स ऑफ ह्युमैन कॉग्निशन एण्ड बिहेवियर' में लिखा भी है । ***

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