वन और जलवायु परिवर्तन
डॉ. राम प्रताप गुप्त
वर्तमान में जलवायु विशेषज्ञ पृथ्वी के बढ़ते तापक्रम और उसके कारण संभावित जलवायु परिवर्तनों को लेकर काफी चिंतित हैं । इस वर्ष का शांति का नोबल पुरस्कार भी जलवायु विशेषज्ञ डॉ. आर.के. पचौरी एवं जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को बताने वाली लोकप्रिय फिल्म के निर्माता एवं पूर्व अमरीकी उपराष्ट्रपति अलगोर को दिया जाना विश्व की इस दिशा में बढ़ती चिंता का प्रतीक ही माना जा रहा है । जलवायु विशेषज्ञों की गणना के अनुसार पिछली शताब्दी में विश्व के तापक्रम में ०.१ डिग्री सेल्सियस प्रति २० वर्ष की दर से वृद्धि हुई है । अब इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में यह वृद्धि०.२ डिग्री प्रति दशक की दर से होगी । पूरी शताब्दी में यह वृद्धि २ से ४ डिग्री तक हो सकती है । इस वृद्धि के लिए मुख्य जिम्मेदार घटक वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की बढ़ती मात्रा है । कार्बन डाईकॉक्साइड और अन्य ग्रीन हाऊस गैसें एक बार वायुमण्डल में उत्सर्जित हो जाने पर अनेक दशकों तक वहीं बनी रहती है और तापक्रम को प्रभावित करती रहती है । ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन और उसके फलस्वरूप तापक्रम में वृद्धि और जलवायु में होने वाले परिवर्तनों से निपटनने के लिए हमें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के प्रयास करने होंगें । क्योटो सम्मेलन के निर्णय इसी दिशा में प्रयास थे । दूसरी ओर बढ़ते तापक्रम और जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल स्थापित करने की दिशा में भी प्रयास करने होंगें । समायोजन के इन प्रयासों की सफलता के लिए जलवायु के विभिन्न पहलुआें पर तापक्रम वृद्धि के संभावित प्रभावों की ठीक- ठीक समझ आवश्यक है । यह एक जटिल एवं निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया है । राष्ट्रीय आय में योगदान की दृष्टि से तो वन बहुत महत्व के प्रतीत नहीं होते हैं, परंतु जब हम सामाजिक, सांस्कृतिक एवं पर्यावरण के क्षैत्र में इनके योगदान पर नज़र डालते हैं, तो हर दृष्टि से वन महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं । देश की अनेक नदियों का उद्गम तो वन क्षेत्रांे से ही है, ये हमारी जलवायु को संतुलित रखते हैं, वर्षा के कारण मिट्टी के कटाव को रोककर उसे बंजर बनने से रोकते हैं और देश की जैव विविधता के भण्डार भी ये ही हैं । देश के २ लाख गांव तो वनों के अंदर या उनके किनारे बसे हुए हैं और २० करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन्हीं पर निर्भर है । ६ करोड़ आदिवासियों की वनों पर निर्भरता तो और भी अधिक है और वे अपनी आय का बड़ा भाग वनों से गैर इमारती उत्पाद एकत्रित करके ही प्राप्त् करते हें । कहने का आशय यह है कि राष्ट्रीय वन में वनों का योगदान भले ही कम हो, वन हमारे राष्ट्रीय जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं । ऐसे में इस प्रश्न पर भी विचार करना आवश्यक है कि तापक्रम वृद्धि तथा उससे उत्पन्न होने वाले जलवायु परिवर्तन का हमारे वनों पर संभावित प्रभाव क्या होने वाला है ? जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय पैनल का कथन है कि हमारे वनों पर तापक्रम वृद्धि के गंभीर प्रभाव पड़ने वाले हैं । सर्वप्रथम तो वनों की संरचना में व्यापक परिवर्तन होने वाले हैं जिनमें हमारी इकॉलॉजी भी प्रभावित होगी। वनस्पतियों की अनेक किस्में, जिनका अस्तित्व पूर्व से ही खतरे में है, तापक्रम में वृद्धि के कारण तो उनका अस्तित्व ही मिट जाने वाला है । इस तरह वनों में जैव विविधता के विनाश की वर्तमान प्रक्रिया और गहरी होगी । वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि के कारण पौधों के प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में वृद्धि के चलते प्रारंभ में तो उनकी उत्पादकता में वृद्धि होगी परंतु विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह स्थाई नहीं होगी । पौधों की उत्पादकता में वृद्धि मिट्टी में उपलब्ध नाइट्रोजन की मात्रा से सीमित ही रहने वाली है । वन विशेषज्ञों का अनुमान है कि तापक्रम वृद्धि और उससे उत्पन्न होने वाले जलवायु परिवर्तनों के कारण देश के ६६-७७ प्रतिशत वनों की संरचना प्रभावित होगी और वे भिन्न जलवायु वाले वनों में परिवर्तित हो जाएंगे । ये परिवर्तन एकरूप नहीं होंगे । वनों के सभी पौधे तापक्रम परिवर्तन के साथ समायोजन करने की समान क्षमता नहीं रखते हैं । अत: कुछ वनस्पतियां तो बढ़े हुए तापक्रम से समायोजित होकर अपनी उपस्थिति सतत बनाए रखेंगी, वहीं अन्य, जिनमें इस तरह की क्षमता का अभाव होगा, नष्ट हो जाएंगी और उनका स्थान अन्य प्रजातियां लेंगी । उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में वर्षा में वृद्धि होने के साथ-साथ वहां के वनों की संरचना भी अधिक नमी वाले वनों की सी हो जाएगी। इसी तरह उत्तर-पश्चिमी भारत के वन अल्प वर्षा वाले वनों की तरह ही हो जाएंगे । बिना तापक्रम वृद्धि के भी वनों की जैव विविधता खतरे में है । वनभूमि को खेती, आवासीय भूमि, औद्योगिक क्षेत्र आदि में परिवर्तित किए जाने के कारण जैव विविधता प्रतिकूल प्रभावित हुई है । ऐसे में तापक्रम वृद्धि के कारण पेड़-पौधों की कुछ किस्मों के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग जाने के कारण यह और अधिक प्रतिकूल प्रभावित होगी । चूंकि अब हमारे वन क्षेत्र छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो गए हैं, अत: अब एक वन क्षेत्र से दूसरे वन क्षेत्र में पौधों की किस्मों के स्वयं स्थानांतरण की प्रक्रिया भी बाधित हो गई है । अत: जैव विविधता को बनाए रखना भी उतना ही कठिन हो गया है । पूर्व में तो विशाल वन क्षेत्रों में पौधों की किस्मों का एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्राकृतिक तौर पर स्थानांतरण चलता रहता था । तापक्रम वृद्धि के कारण बर्फ पिघलते जाने से अनेक वनस्पति और प्राणी ऊपर की ओर स्थानांतरित होंगे और पूर्व में वहां पाई जाने वाली वनस्पतियों और प्राणियों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा । वर्षा की अधिकता के कारण नदियों में आने वाली बाढ़ें पूर्व की तुलना में बढ़ ही गई हैं, भविष्य में और बढ़ेंगी और इनके कारण अनेक वन क्षेत्रों का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा । ब्रह्मपुत्र नदी में आने वाली बाढ़ के कारण प्रचुर जैव विविधता वाले काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान का अस्तित्व संकट में पड़ गया है । हमारे देश की आबादी का बड़ा हिस्सा आजीविका के लिए वनों पर निर्भर है । वन क्षेत्रों के नष्ट होने और विशेषकर उनकी जैव विविधता में कमी आने से उनकी जीविका प्रभावित होगी । अनेक पौधों के नष्ट होने, उनसे मिलने वाले फलों, फूलों आदि की अनुपलब्धता के कारण उनकी जीविका के स्त्रोत समाप्त् हो जाएंगे । आजीविका को बनाए रखने के प्रयासों में लोग स्वयं भी इनका अतिदोहन कर अनेक किस्म के विनाश की प्रक्रिया को जन्म देंगे । इस तरह की प्रक्रिया अनेक वनों में देखी गई है और देखी जा रही है । तापक्रम वृद्धि के कारण पौधों की उत्पादकता में वृद्धि से प्रारंभ में वन आधारित लोगो की आजीविका पर अनुकूल प्रभाव दिखाई देगा । मध्य अवधि में इनकी बाजार में आपूर्ति बढ़ सकती है और कीमतें गिर सकती हैं । वन क्षेत्र के सीमित होते जाने से आपूर्ति की कमी की कुछ क्षतिपूर्ति इससे संभव हो सकेगी । परंतु तापक्रम वृद्धि ज्यादा होने पर उत्पादकता में कमी आ जाएगी और यह प्रक्रिया बाधित हो जाएगी । अभी समय है कि हम तापक्रम वृद्धि से वनों की संरचना, उनकी उत्पादकता तथा अन्य प्रभावों का अनुमान लगाकर उनसे समायोजन के प्रयास कर उनके दुष्प्रभावों की सीमित कर सकते हैं तथा अनुकूल प्रभावों को यथेष्ट लाभ लेने की योजना बना सकते हैं । अब हमें वनों के नियोजन और प्रबंधक के कार्यक्रम बनाते हुए भावी परिवर्तनों को सतत ध्यान में रखना होगा । वर्तमान में ही जैव विविधता के केन्द्र हमारे वन अनेक सामाजिक आर्थिक दबावों में हैं । तापक्रम वृद्धि के कारण उत्पन्न दबाव इनके अतिरिक्त होंगे । इन सबसे निपटने की समुचित योजनाएं विकसित करनी ही होंगी । ***
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