बाबा आमटे की
कविताएंजब आ रही है लौटने की
मैंने नर्मदा से उत्कट प्रेम किया
उसने मुझे लपक कर भींच लिया
और बना लिया अपना
उसे छूकर आती वायु- लहरी
मेरे आकुल उर को बंधाती है ढाढस
उसके प्रवाह में सुर है मेरे जीव का
ताल है, बेसुधी है मेरी और उन्माद
तट पर उसके मैंने देखा है
धरा और व्योम का आलिंगन
यही, करते हुए सुखद सुधियों का पारायण
बना है मेरा और उसका संवाद
जैसे शिशु कोई छोड़ता है मां की गोद
अनिच्छा और अपरिभाषित कृतज्ञता
के साथ नर्मदा से लूंगा
मैं विदा, भारी मन
एक कुम्हलाते फूल का उच्छ्वास
मैं सतासी का हँू
एक रीढ़हीन व्यक्ति जो बैठ नहीं पाता
मुरझा रहा हँू मैं पंखुरी-ब-पंखुरी
लेकिन, क्या तुम नहीं देखते
मेरा रक्तस्त्रावी पराग ?
मैं निश्चयी हूंू, मगर ईश्वर मदद करे मेरी
कि रत रहा आऊं मैं गहरी हमदर्दी में
जो आदिवासियों की बेहाली से है
वंचित विपन्न आदिवासियों की व्यथा का
किसी भी सत्ता द्वारा अपमान
अश्लील है, और अमानवीय सतासी पर
उम्र मुझे बांधे है दासतो में
मैं पा चुका हँू असह्य आमंत्रण अपने
आखिरी सफर का
फिर भी मैं डटा हूं !
पाठकों, मत लगाआें अवरोधक अपने
आवेग पर
कोई नहीं विजेता
सब के सब आहत हैं, आहत !
एक फूल की इस आह को कान दो !!
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