शनिवार, 17 सितंबर 2011

सामयिक

मृग मरीचिका है, भूमि अधिग्रहण अधिनियम
राकेश कुमार मालवीय

प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून तो अंग्रेजों द्वारा सन् १८९४ में बनाए गए कानून से भी ज्यादा अमानवीय हैं । इस नए अधिनियम के अन्तर्गत इस बात का पुरजोर प्रावधान किया गया है कि निजी उद्यमियों को भूमि अधिग्रहण में किसी भी तरह की कोई परेशानी न आए । दूसरे शब्दों में कहे तो यह शहद के मुलम्मे मेंचढ़ी ऐसी कड़वी गोली है जिसे न तो निगला जा सकता है और न ही उगला जा सकता है ।
आजादी के बाद से भारत में अब तक सा़़ढे तीन हजार परियोजनाआें के नाम पर लगभग दस करोड़ लोगों को विस्थापित किया जा चुका है । लेकिन सरकार को अब होश आया है कि विस्थापितों की जीविका की क्षति, पुनर्वास-पुनर्स्थापन एवं मुआवजा उपलब्ध कराने हेतु एक राष्ट्रीय कानून का अभाव है । यानि इतने सालों के अत्याचार, अन्याय पर सरकार खुद अपनी ही मुहर लगाती रही है । तमाम जनसंगठन कई सालों से इस सवाल को उठाते आ रहे थे कि लोगों को उनकी जमीन और आजीविका से बेदखल करने में तो तमाम सरकारें कोई कोताही नहीं बरतती हैं । लेकिन जब बात उनके हकों की, आजीविका की, बेहतर पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना की आती है तो वहां सरकारों ने कन्नी ही काटी है । प्रशासनिक तंत्र भी कम नहीं है जिसने खैरात की मात्रा जैसी बांटी गई सुविधाआें में भी अपना हिस्सा नहीं छोड़ा है ।
इनके कई उदाहरण है कि किस तरह मध्यप्रदेश में सैकड़ों सालों पहले बसे बाईस हजार की आबादी वाले हरसूद शहर को एक बंजर जमीन पर बसाया गया । कैसे तवा बांध के विस्थापितों से उनकी ही जमीन पर बनाए गए बांध से उनका मछली पकड़ने का हक भी छीन लिया गया । एक उदाहरण यह भी है कि पहले बरगी बांध से विस्थापित हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी का एक झुनझुना पकड़ाया गया । बांध बनने के तीन दशक बाद अब तक भी प्रत्येक विस्थापित परिवार को तो क्या एक परिवार को भी नौकरी नहीं मिल सकी है ।
दरअसल जिस कानून के निर्माण का आधार और मंशा ही संसाधनों को छीनने और उनका अपने हक में दोहन करने की हो, उससे और क्या अपेक्षा की जा सकती है । लेकिन दुखद तो यह है कि सन् १८९४ में बने ऐसे कानून को आजादी के इतने सालों बाद तक भी ढोया गया । इस कानून में अधिग्रहण की बात तो थी, लेकिन बेहतर पुनर्वास और पुनर्स्थापन का सिरे से अभाव था । यही कारण था कि केवल मध्यप्रदेश में ही नहीं बल्कि भारत के सभी हिस्सों में भूमि अधिग्रहण अधिनियम विकास का नहीं बल्कि विनाश का प्रतीक बनकर आया ।
सरकार अब एक नए कानून का झुनझुना पकड़ाना चाहती है । इस संबंध में देश में कोई राष्ट्रीय कानून नहीं होने से तमाम व्यवस्थाआें ने अपने-अपने कारणों से लोगों से उनकी जमीन छीनने का काम किया है । देश भर में अब तक १८ कानूनों के जरिए भूमि अधिग्रहण किया जाता रहा है । यह बात भी सामने आई है कि एक बार जमीन ले लेने के बाद यह देश उनके इस बलिदान के बदले उनको एक सम्मानपूर्वक जिंदगी देने में विफल रहा है ।
प्रस्तावित कानून में भी जितना जोर जमीन के अधिग्रहण पर है उतना ही जोर प्रभावितों के पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन पर भी होनी चाहिए । लेकिन उस नजरिए से कानून में कोई भी ठोस प्रबंध दिखाई नहीं देते हैं । कानून में मुआवजा, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन के प्रावधान सैद्धांतिक रूप से तो हैं पर उन्हेंं जमीन पर उतारने की प्रक्रियाएं स्पष्ट नहीं हैं ।
आजादी के बाद से अब तक हुए विस्थापन के आंकड़े हमें बताते हैं कि सर्वाधिक विस्थापन आदिवासियों का हुआ है । नर्मदा नदी पर बन रहे सरदार सरोवर बांध से दो लाख लोग प्रभावित हुए, इनमें से ५७ प्रतिशत आदिवासी हैं। महेश्वर बांध की जद में भी बीस हजार लोगों की जिंदगी आई, इनमें साठ प्रतिशत आदिवासी हैं । आदिवासी समुदाय का प्रकृति के साथ एक अटूट नाता है । विस्थापन के बाद उनके सामने पुनर्स्थापित होने की चुनौती सबसे ज्यादा होती है । जाहिर है आदिवासी, उपेक्षित और वंचित समुदाय के लिए इस प्रस्तावित अधिनियम में सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए लेकिन इस मसौदे में इसी बिन्दु पर सबसे बड़ा अंतर दिखाई देता है ।
मसौदे में कहा गया है कि ऐसे सभी जनजातीय क्षेत्रों में जहां कि सौ से अधिक परिवारों का विस्थापन किया जा रहा हो वहां एक जनजातीय विकास योजना बनाई जाएगी । भारत की भौगोलिक संरचना में बसे जनजातीय क्षेत्रों में एक ही जगह सौ परिवारों का मिल पाना बहुत ही कठिन बात है । अतएव मजरे-टोलों में बसे आदिवासियों के लिए इस मसौदे में रखी न्यूनतम सौ परिवारों की शर्त को हटाया जाना चाहिए । ऐसा नहीं किए जाने पर आगामी विकास योजनाआें के नाम पर जनजातीय क्षेत्रों से लोगों का पलायन तो जारी रहेगा ही और उन्हें पुनर्वास और पुनर्स्थापन भी नहीं मिल पाएगा ।
प्रस्तावित अधिनियम में जमीन के मामले पर भी सिचिंत और बहुफसलीय वाली कृषि भूमि के अधिग्रहण नहीं किए जाने की बात कही गई है । जनजातीय क्षेत्रों में ज्यादातार भूमि वर्षा आधारित हैं और साल में केवल एक फसल ही ली जाती है । तो क्या इसका आशय यह है कि आदिवासियों की एक फसलीय और गैरसिंचित भूमि को आसानी से अधिग्रहित किया जा सकेगा ?
सरकार जिस तरह अब खुद कहने लगी है कि तेल की कीमतें उसकी नियंत्रण में नहीं है उसी तरह संभवत: इस तंत्र को सुधार पाना भी उसके बस में नहीं है । भूमि अधिग्रहण का यह प्रस्तावित कानून भी ऐसी ही बात करता है । किसी नागरिक द्वारा दी गई गलत सूचना अथवा भ्रामक दस्तावेज प्रस्तुत करने पर एक लाख रूपए तक अर्थदण्ड और एक माह की सजा का स्पष्ट प्रावधान किया गया है । गलत सूचना देकर पुनर्वास लाभ प्राप्त् करने पर उनकी वसूली की बात भी कही गई है, लेकिन मामला जहां सरकारी कर्मचारियों द्वारा कपटपूर्ण कार्यवाही का आता है तो इस पर कोई स्पष्ट बात नहीं हैं । वहां पर केवल सक्षम प्राधिकारी द्वारा अनुशासनात्मक कार्यवाही करने भर का जिक्र आता है ।
इस कानून को दूसरी योजनाआें के संदर्भ में भी देखा जाना जरूरी है । सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए कम दरों पर खाद्यान्न की उपलब्धता इस देश के गरीब और वंचित और उपेक्षित लोगों के पक्ष में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । मौजूदा दौर में इस व्यवस्था को कई तरह से सीमित करने की नीतिगत कोशिशें दिखाई देती हैं । विस्थापितों के पक्ष में इस योजना के महत्व को सभी मंचों पर स्वीकार किया जाता है । लेकिन भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास का यह प्रस्तावित कानून ठीक इसी तरह पारित हो जाता है तो तमाम विस्थापित लोग सार्वजनिक वितरण प्रणाली की इस व्यवस्था से बाहर हो जाएंगे ।
इस कानून के मसौदे में यह बात तो ठीक दिखाई देती है कि प्रभावित लोगों को ग्रामीण क्षेत्र और शहरी क्षेत्र के मापदंडों के मुताबिक पक्के घर बनाकर दिए जाएंगे । लेकिन इसका एक पक्ष यह भी होगा कि ये गरीबी की रेख से अपने आप ही अलग हो जाएंगे क्योंकि यह आवास गरीबी रेखा में आने वाले मकान के मापदण्डों से बड़ा होगा । ऐसे में उन्हें सस्ता चावल, सस्ता गेहूं और सस्ता केरोसीन उपलब्ध नहीं हो पाएगा । जबकि होना यह चाहिए कि ऐसे प्रभावित परिवार जो विस्थापन से पहले गरीबी रेखा की सूची में शामिल हैं उन्हें पुनर्वास और पुनर्स्थापन के बाद भी गरीबी रेखा की सूची में विशेष संदर्भ मानते हुए यथावत रखा जाए ।

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