स्वयं का विस्तार है ट्रस्टीशिप
डॉ. अवध प्रसाद
गांधीजी द्वारा ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को सार्वजनिक जीवन का आधार बनाया गया था । परन्तु निजी जीवन में अपनाए बगैर इसको व्यापकता प्रदान नहीं की जा सकती ।
प्रकृतिप्रदत्त सभी पदार्थ पर प्रकृति अर्थात ईश्वर का स्वामित्व मान कर स्वयं को उसका न्यासी (ट्रस्टी) मानना ट्रस्टीशिप है । अपने लिए आवश्यकता से ज्यादा लेने की इच्छा नहीं रहे और स्वयं में अनासक्त भाव बढ़े इसका प्रयास करना संरक्षक का गुण है । अनासक्ति युक्त न्यासिता (ट्रस्टीशिप) अहिंसक अर्थव्यवस्था का आधार है ।
गांधीजी ने गीता में स्थितप्रज्ञ को ट्रस्टीशिप का आधार मानकर इसकी व्याख्या की और इसे नियमित प्रार्थना का अंग बनाया । गांधीजी ने कौसानी में ७ दिनों तक रहकर श्रीमद्भगवद्गीता का अनुवाद पूरा किया और इस पुस्तक का नाम अनासक्ति रखा जो कि व्यक्ति के अनासक्त भाव को अपनाने में मददगार है । कौसानी का यह स्थान आज अनासक्ति आश्रम के नाम से जाना जाता है ।
ट्रस्ट या संरक्षा शब्द संपत्ति के स्वामित्व से जुड़ा हुआ है । ट्रस्टीशिप संपत्ति पर सामूहिक स्वामित्व को इंगित करता है । किसी वस्तु पर अधिकार स्थापित करने की वृत्ति मनुष्य में है । जबकि देखा जाए तो मनुष्य किसी वस्तु का स्वामी है ही नहीं क्योंकि हमने मूलत: किसी वस्तुत का निर्माण किया ही नहीं है । सभी वस्तुएं प्रकृति निर्मित हैं। तो स्वामित्व किसका है ? स्वामित्व का भाव एवं विचार लोभवश मनुष्य द्वारा स्थापित किया गया है । विश्व में अनेक विचारकों ने इस भाव को कम करने, उससे मुक्त होने का मार्ग बताया । इस प्रयास को मोटे तौर पर दो वर्गो में देख सकते हैं । एक, पाश्चात्य विचारों द्वारा व्यक्त विचार जिसमें स्वामित्व समाज या राज्य आधारित माना । इसमें मुख्य कार्ल मार्क्स एवं अन्य समाजवादी विचारक, चिंतक हैं । दो, भारतीय चिंतन जिसमें स्वामित्व भाव से पूर्ण मुक्ति का मार्ग बताया गया है । यह मार्ग परिग्रह से अपरिग्रह की ओर बढ़ने का है ।
अपरिग्रह एक आर्थिक व्यवहार है जो कि किसी वस्तु के निजी स्वामित्व को कम करता है - उससे मुक्ति का मार्ग बताता है । पिछली सदी में ट्रस्टीशिप का विचार मजबूती से सामने आया । इस विचार को मजबूती प्रदान करने में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का योगदान प्रमुख है । इसे वैचारिक आधार प्रदान करने में और एक सीमा तक लोक जीवन में स्थापित करने में आचार्य विनोबा भावे और प्रो.जे.सी. कुमारप्पा का भी मौलिक योगदान है । मेरी राय में गांधी विचार के संदर्भ मेंट्रस्टीशिप केवल संपत्ति की सामुहिक स्वामित्व की व्यवस्था नहीं है । इसके लिए स्व का विकास एवं अनासक्त जीवन आवश्यक है । इसका अभ्यास गांधी ने स्वयं किया । व्यक्तिगत अपरिग्रह एवं ट्रस्टीशिप दोनों साथ-साथ चलना चाहिए ।
भारतीय चिंतन में पांच महाव्रत माने गये हैं, सत्य, अहिंसा, ब्रम्हचर्य, अस्तेय और असंग्रह अपरिग्रह । गांधीजी ने आज की परिस्थिति में इसमें ६ व्रत जोड़े - शरीर श्रम, अस्वाद, निर्भयता, सर्वधर्म समभाव, स्वदेशी और अस्प्रश्यता निवारण । इस प्रकार सुन्दर मानव से सुन्दर समाज (सर्वोदय) की संपूर्ण व्यवस्था एकादश व्रत में समाहित है । यह व्यक्ति के निर्माण के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था का आधार है । ट्रस्टीशिप को स्वीकारना स्वामित्व मुक्ति की ओर बढ़ाया गया कदम है ।
गांधीजी ने सर्वप्रथम १९०९ में अपनी मौलिक पुस्तक हिन्द स्वराज में तत्कालीन आर्थिक एवं भौतिकवादी दौड़ की कड़ी टीका प्रस्तुत की थी ।
उन्होनें भारतीय दर्शन व आध्यामिक चिंतन की गहराई में जाते हुए गीता में में व्यक्त किये गये स्थितप्रज्ञ का अभ्यास प्रारंभ किया । प्रारंभ में दक्षिण अफ्रीका और बाद में भारत में हरिजन आश्रम, साबरमती एवं सेवाग्राम आश्रम की स्थापना की । इन आश्रमों में स्वयं को सर्व में समाहित करने, समर्पित करने का अभ्यास तो था ही साथ ही साथ संपत्ति के स्वामित्व भाव से मुक्ति का अभ्यास भी था । इसे आश्रम वासियों के दैनिक जीवन, नियम और आश्रम व्यवस्था मेंदेखा जा सकता था ।
ट्रस्टीशिप की दिशा में गांधी विचार आधारित प्रयास को तीन रूप में देख सकते हैं । पहला, गांधी एवं उनके प्रयोग से जुड़े व्यक्तियों द्वारा व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन में स्वामित्व मुक्ति अर्थात स्वयं को ट्रस्टी मानना । ऐसे लोगों में गांधी, विनोबा, जे.सी. कुमारप्पा, धीरेन्द्र मजूमदार और कुछ सीमा तक कृष्णदास जाजू, जमनालाल बजाज आदि का उल्लेख किया जाना चाहिए । दूसरा, सेवाग्राम आश्रम के नियम एवं व्यवस्था में स्व एवं स्वामित्व भाव से मुक्ति का प्रयास । तीसरा गांधीकाल में स्थापित संस्थाआें में ट्रस्टीशिप की व्यवस्था को स्थापित करना । इन संस्थाआें में अ.भा. चरखा संघ व अ.भा. ग्रामोद्योग संघ को याद कर सकते हैं ।
इन संस्थाआें को ट्रस्टीशिप के आधार पर स्वामित्व के सामाजिक दायित्व को स्थापित किया था । इन संस्थाआेंद्वारा आर्थिक गतिविधियां संचालित होती थी जिसमें आर्थिक कार्यो के स्पष्ट नियम बनाये गये थे जिसका पालन किया जाना आवश्यक था । आर्थिक व्यवस्था में संपत्ति एवं उसका स्वामित्व, आर्थिक प्रक्रिया (कच्च माल, उत्पादन, बाजार, लाभांश, पूंजीगत व्यवस्था, रोजगार, मजदूरी-मानदेय, तकनीकी सुधार एवं प्रशिक्षण आदि) के विभिन्न कार्यो के सामाजिक उत्तदायित्व संबंधी नियम थे।
गांधीजी के निधन के बाद आचार्य विनोबा भावे ने स्वामित्व विसर्जन का ऐतिहासिक कार्य किया । इसे ट्रस्टीशिप की व्यवस्था का उदाहरण मानना चाहिए । विनोबा ने दान को आधार मानकर भूदान मांगा और उसे भूमिहीनों में वितरित किया । विनोबा ने दान का जो अर्थ किया उसका विशेष महत्व है । उनके अनुसार दान अर्थात संपत्ति का, स्वामित्व का सम विभाजन है । इस अर्थ को उन्होनें स्वामित्व मुक्ति का प्रयास मान कर कहा सम्पत्ति रघुपति की अर्थात् सबैभूमि गोपाल की । विनोबा संत थे, अध्यात्म में उनकी पहुंच थी, गीता उनके लिए माता समान थी । उन्होनें सभी प्रकार की संपत्ति को ईश्वर को समर्पित करने का विचार रखा । इस कार्य के लिए १४ वर्षो तक पदयात्रा की । इस यात्रा में स्वेच्छा से ४१,७७,५७२ एकड़ जमीन का दान प्राप्त् हुआ और इसमें से २४,४९,१८३ एकड़ जमीन भूमिहीनों में वितरित की गई ।
इस प्रयास को संपत्ति विसर्जन का एक कदम माना जाना चाहिए । यह भी उल्लेखनीय है कि दान प्राप्त् जमीन जिस व्यक्ति को खेती के लिए दी गई उसे उस जमीन को बेचने का अधिकार नहीं है । उसे सिर्फ खेती करने का अधिकार है । यह जमीन स्वामित्व मुक्त मानी गई । विनोबा ने इस विचार को आगे बढ़ाया और ग्रामदान का विचार रखा जिसमें पूरे गांव की जमीन स्वामित्व मुक्त होता है । गांव की जमीन पर ग्राम समाज का स्वामित्व हो - स्वामित्व अर्थात ग्रामसभा धरती का ट्रस्टी हो उसका मालिक या स्वामी नहीं । किसी भी स्थिति में जमीन की बिक्री नहीं हो । ग्रामसभा एवं उसके सदस्य परिवार ट्रस्टी हैं, मालिक नहीं । यह उल्लेखनीय है कि भू-दान एवं ग्रामदान विचार को स्वीकार करते हुए अनेक राज्यों में भू-दान एवं ग्रामदान कानून बने और इस व्यवस्था को कानूनी माना गया । पूरे देश में ग्रामदान हुए । राजस्थान में २१० ग्रामदान गांव ग्रामदान कानून से संपुष्ट है । इसे ट्रस्टीशिप की दिशा में स्वैच्छिक प्रयास मानना चाहिए ।
भारतीय सांस्कृतिक की परम्परा में व्यक्तिगत एवं व्यवस्था के स्तर पर निजी स्वामित्व से मुक्ति एवं अपरिग्रही जीवन जीने को गंभीरता से स्वीकार किया गया है । इसे साधु, संत समाज, जैन मुनि, बौद्ध भिक्षु के जीवन में साफ तौर पर देखा जा सकता है । इनका जीवन अपरिग्रही होने के साथ-साथ निज स्वामित्व से मुक्त होता है । इसी परम्परा में संपत्ति एवं उसके उपयोग की व्यवस्था ट्रस्टीशिप आधारित है ।
धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्थाआें में संपत्ति का स्वामित्व ट्रस्ट में निहित माना गया है । स्वामित्व का स्वरूप की दृष्टि से भारतीय परम्परा में संपत्ति का स्वामित्व ईश्वर में निहित माना गया है । इनके मालिक ठाकुरजी हैं तथा इस प्रावधान को कानूनी मान्यता भी है । मंदिर की संपत्ति ठाकुरजी की है अर्थात स्वामित्व भगवान में निहित है । इसकी खरीद-बिक्री नहीं की जा सकती है । आवश्यकता है कि सेवा करने वाला इसका उपयोग अपरिग्रही होकर स्वयं की जीविका के लिए करे तथा भक्ति-भाव के निमित्त किए जाने वाले कार्य के साथ-साथ लोक कल्याण के लिए भी करें । ***
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