शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

विरासत

परम्परागत जलाशयों का संरक्षण
डॉ. किशोरीलाल व्यास

महात्मा गांधी व विनोबा भावे ने जिस आत्मनिर्भर ग्राम स्वराज्य की कल्पना की, उस ग्राम राज्य में अन्न, वस्त्र तथा कुटीर उद्योगों के साथ-साथ ग्राम वन तथा ग्राम जलाशय का महत्वपूर्ण स्थान है ।
सच पूछा जाये तो ग्राम राज्य के अवयव एक दूसरे से अलग-अलग न होकर एक दूसरे से आबद्ध हैं । इन में प्रकृतिकी तरह गहरा अंत: संबंध बना है तथा इनमें आंगिक पूर्णता अनिवार्य है। खेती-बाड़ी और घरेलू उपयोग के लिए पानी, ईधन के लिए लकड़ी, पशुआें के लिए चारा तथा चरागाह - ये सारी बातें जलाशयों या जल की उपलब्धि पर निर्भर है ।
जल के अभाव में न तो कोई सभ्यता पनप सकती है, न विकास हो सकता है । जल ही जीवन का मूलभूत आधार है । जल द्वारा ही प्राणियों की उत्पत्ति होती है, पोषण होता है और जीवन का विस्तार होता है । किसी भी प्राणी के शरीर का बहुत बड़ा प्रतिशत जल ही होता है । शरीर की समग्र रासायनिक क्रियाएं जल माध्यम में ही सम्पन्न होती है । जल वस्तुत: प्राण का आधारभूत तत्व है । विश्व की प्राचीनतम सभ्यताएं नदियों की गोद में ही विकसित हुई । कालान्तर में मनुष्य जाति ने जल-संसाधनों के समुचित व वर्षान्त उपयोग के तरीके इजाद किये । कुंए, बावड़ियाँ, ताल, तालाब, सरोवर झीलें तथा आधुनिक युग के विशाल बहुउद्देशीय बाँध मनुष्य के इन्ही प्रयत्नों का परिणाम है ।
भौगोलिक संरचना व जलवायु की दृष्टि से भारत के विविध प्रदेशों में बड़ी विविधता पाई जाती है । पूर्वी भारत के आसाम, बंगाल आदि प्रदेशों में अच्छी वर्षा के कारण जल की कमी नहीं होती, वहीं पश्चिमी भारत के राजस्थान, काठियावाड़ कच्छ आदि प्रदेशों में पानी एक बहुमूल्य वस्तुत है । जहाँ उत्तर भारत की नदियाँ सदानीरा बनी रहती है, वही दक्षिण की नदियाँ गर्मियों में सूख जाती है । ऐसे में, हमारे पूर्वजों ने अपने-अपने प्रदेश के जलवायु तथा भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप जल संग्रहण तथा जल संचयन के कुछ विधान बनाये तथा राजस्थान में, जहॉ कि वर्षा बहुत कम होती है, घर की छत पर गिरी हुई वर्षा का एक नल द्वारा सीधे घर के नीचे बने पक्के कूप में पहुंचा दिया जाता है, जिसका वे वर्षभर उपयोग करते है । कर्नाटक, तामिलनाडू आदि में वर्षाकाल में नदियों का बहुतायत में बहने वाला जल स्थानान्तरित कर उससे तालाब भर लिये जाते है । तेलँगाना व मराठवाड़ा की ऊबड़-खाबड़ जमीन व छोटे बाँध बाँधकर जलाशयों का निर्माण कर लिया जाता है । मध्यप्रदेश, व उत्तरप्रदेश व बिहार की समतल भूमि में, मिट्टी खोदकर बंड बनाया जाता है । खुदे हुए ग़़ढे में वर्षा का जल जमा हो जाता है ।
इस प्रकार गत पांच हजार वर्षो की हमारी सभ्यता में हमारे पूर्वजों ने जल संसाधनों के अत्यन्त संयमित उपयोग, वैज्ञानिक भंडारण व संरक्षण के जो उपाय किये उनमें बड़ी मौलिकता व विविधता पाई जाती है । जल संचयन व संरक्षण की हमारी देसी पद्धति पर संभवत: कोई विधिवत् अध्ययन नहीं हुआ है । इस अध्ययन की नितांत आवश्यकता है क्योंकि हमारी योजनाआें का प्रारूप प्रदेश विशेष की भौगोलिक संरचना, पर्यावरण विशेषता व जनता की आवश्यकताआें के अनुरूप तैयार किया जाना चाहिए ।
तेलंगाना में हर पांच मील पर एक तालाब मिल जाता है । प्रत्येक गाँव में अनिवार्यत: एक सरोवर होता ही है। पुराने हैदराबाद राज्य की आत्म-निर्भरता तथा समृद्धि का यही रहस्य है । ये जलाशय वर्षाकाल में पूरी तरह भर जाते हैं, जिनका उपयोग ग्रामवासी वर्ष भर खेती-बाड़ी, मत्स्य पालन तथा घरेलू उपयोग के लिए करते रहे है ।
दुर्भाग्यवश हमारी यह सुपरिचित - सुपरिक्षित प्राचीन देसी जल संचयन व संरक्षण की पद्धति को हम भुलाते जा रहे है । इसका स्थान विशालकाय बाँध लेते जा रहे हैं जिनकी अपनी ही समस्याएं है ।
शहरीकरण, औद्योगीकरण, गलत योजनाआें आदि के कारण पुराने जलाशयों का क्रमश: व तीव्र गति से विनाश होता जा रहा है जिसके परिणाम स्वरूप गाँव उजड़ रहे हैं, ग्रामवासी जीविका की खोज में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, तथा ग्रामीण अर्थ व्यवस्था टूट रही है । सच पूछा जाए तो ग्रामीण अर्थ व्यवस्था एक समग्र व्यवस्था है जिसमें जलाशय, वन, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी तथा मनुष्य पूर्णत: एक दूसरे आबद्ध हैं ।
मनुष्य इस प्रकृति चक्र का स्वयं एक हिस्सा है । प्रकृति के साथ न तो उसकी प्रतियोगिता है, न प्रकृति को जीतने का उसमें कोई अहंकार है । वह भी अन्य प्राणियों की तरह प्रकृति की गोद में खेलता, खाता-पीता और आनंदपूर्ण जीवन जीता है । प्रकृति में अन्तर्निहित इस गहन व सूक्ष्म अन्त: संबंधों को समझना अत्यन्त आवश्यक है । इस व्यवस्था में दृश्य व अदृश्य - सारे अवयव- जल, वायु, भूमि, पेड़, पशु, पक्षी, कीट-पंतगें व मनुष्य एक सूक्ष्म सूत्र से बंधे हैं इनमें से किसी एक को नष्ट कर देने पर सारी व्यवस्था बिखर जाती है, सारा क्रम टूट जाता है और इसके दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं ।
हमारे पर्यावरण के आधारभूत तत्व वन व जलसंसाधनों का आज बुरी तरह से विनाश हो रहा है । वन-विनाश का प्रत्यक्ष प्रभाव वर्षा, वातावरण तथा जलस्त्रोंतों पर पड़ता है । करोड़ों रूपया खर्च कर, जिन बहुउद्देशीय विशालकाय बाँधों की अनुभावित जीवनावधि आधी से भी कम रह गई है । अत: आज की परिस्थितियों में छोटे जलाशय ही अत्याधिक महत्वपूर्ण है । ऐसे में पुराने जलाशयों की मरम्मत कर, उनके भीतर वर्षो से जमा मिट्टी निकालकर उनके बाँध को ऊँचा कर, उनकी गहराई को बढ़ाकर, उनके चारों ओर पेड़ लगाकर, उन्हें पुनरूजीवित किया जाना चाहिए ।
जलाशयों से न केवलकृषि, घरेलू कामकाज तथा उद्योगों के लिए प्रत्यक्ष जल प्राप्त् होता है, प्रत्युत निम्न लाभ होते है :-
- जलाशयों का पानी धीरे-धीरे मिट्टी में रिसकर अपने चारों और के भूमि अन्तर्गत जल की आपूर्ति करता है । आज की बढ़ी हुई जल की जरूरतों के कारण हम लगातार बोरवेलों, टयुबवेलों आदि के माध्यम से भूमि के भीतर से जल निकालते जा रहे हैं । जलाशय उस रिक्ति की आपूर्ति करता है । यदि जलाशय नष्ट हो जाएं तो अडोस पड़ोस के कुंए सहज ही सूख जाएंगे, भूम्यन्तर्गत जलस्त्रोत भी समाप्त् हो जाएंगे ।
- जलाशयों के कारण पेड़ों, पशु-पक्षियों तथा अन्य प्राणियों का अन्त: संबंध बना रहाता है ।
- भूम्यन्तर्गत जल-कणों के कारण पेड़ों व वृक्षों को जल प्राप्त् होता रहता है । इन वृक्षों का विकास इस जल सप्रािप्त् पर निर्भर करता है । जलाशय के नष्ट हो जाने पर, सूखी धरती में ये पेड़ पनप नहीं सकते, अत: मरूस्थलीकरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है ।
- जलाशयों की उपस्थिति में वातावरण में नमी व ठंडापन बना होता है । गर्मियों में भी ऊष्मा अनुकूलित बनी रहती है ।
- जलाशयों का पर्यावरण व मनुष्य के सौन्दर्य बोध पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है ।
- जलाशयों के तट पर उद्यान, क्रीडा स्थल, प्रार्थना-गृह, आमोद-प्रमोद गृह पर्यटन केन्द्र आदि बनाये जा सकते हैं ।
- जलाशय मत्स्य पालन जैसी आर्थिक प्रक्रिया में योगदान देते हैं ।
अंतत: जलाशय मनुष्य की भौतिक आवश्यकताआें की आपूर्ति ही नहीं करते प्रत्युत पर्यावरण संरक्षण में सहायक बनते हुए, मनुष्य के सौन्दर्य-बोध और आनंद-बोध का भी विकास करते हैं ।
केन्द्र सरकार व प्रान्तीय सरकारों का यह परम कर्तव्य है कि जलाशय-संरक्षण की एक राष्ट्रीय नीति बनाई जाए । जिस तरह से वन संरक्षण की नीति बनी है तथा कुछ वनों को संरक्षित वन घोषित किया गया है, उसी तरह प्रत्येक राज्य में महत्वपूर्ण जलाशयों का संरक्षण किया जाए ।
प्रत्येक राज्य जलाशय संरक्षण कक्ष का गठन कर जलाशयों की भूमि के गैरकानूनी अधिग्रहण, जलाशयों के प्रदूषण तथा उसके विनाश की प्रक्रिया पर रोक लगाए । जलाशयों के पुनर्नवीनीकरण की व्यवस्था करें । हमारे पूर्वजों द्वारा निर्मित जलाशय हमारी पारम्पारिक साँझी सम्पति है । इनका विनाश हमारी परम्परागत अर्थव्यवस्था व पर्यावरण व्यवस्था का विनाश है । अत: हर कीमत पर राष्ट्र भर के जलाशयों का संरक्षण, पुनर्नवीनीकरण व महत्व-मापन होना चाहिए ।

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