शनिवार, 17 सितंबर 2011

प्रदेश चर्चा

बिहार : विकास में पिसता गरीब
राजीव कुमार

बिहार की आर्थिक विकास की गति को लेकर पूरे देश में कसीदें गढ़े जा रहे हैं । वहीं दूसरी ओर सरकारी आंकड़ों के हिसाब से उड़ीसा के बाद गरीबी में सर्वाधिक वृद्धि बिहार में हुई है । यानि अब वहां विकास छनकर भी नीचे नहीं आ रहा है ।
अर्थशास्त्रियों का मानना है कि देश की अर्थव्यवस्था कुलांचे मार रही है लेकिन दुर्भाग्यवश उसी अनुपात में भूख भी आर्थिक विकास के साथ कदम ताल कर रही है । क्या यह उस विचार को चुनौती नहीं है कि आर्थिक विकास से गरीबी एवं भुखमरी मिटती है ? बिहार इसी का एक उदाहरण है । उदारीकरण के दो दशकों में देश में गरीबी एवं कुपोषण के दायरों के बढ़ने के साथ ही चमत्कारी रूप से देश मेंसबसे पिछड़े राज्य बिहार में सर्वाधिक विकास दर्ज किया गया है । यह अर्थशास्त्रियों के लिए भले ही आश्चर्य का विषय रहा हो, परन्तु यह चमत्कार तो कर ही दिखाया है बिहार की वर्तमान सरकार नें ।
बिहार सरकार एक ओर विकास को लेकर नित नए दावे पेश कर रही है तो दूसरी ओर बढ़ते गरीबों को लेकर भी केन्द्र से गुहार भी करती फिर रही है । नीतीश सरकार ने अपने आर्थिक सर्वेक्षण में बिहार की विकास दर को देश में सर्वाधिक बताते हुए कहा है कि १९९९-२००० से पहले पांच वर्षो के दौरान बिहार की अर्थव्यवस्था ३.५० प्रतिशत थी । वहीं आज २००४-०५ से २०१०-११ तक अर्थव्यवस्था स्थिर मूल्य के हिसाब से १०.९३ प्रतिशत की दर से बढ़ी है । यह देश के विभिन्न राज्यों में अपेक्षाकृत सर्वाधिक है ।
देश के नामचीन कलमकारों ने अपने-अपने कालमों में इस विकास दर की शान में कसीदे काढ़े । दूसरी ओर कुछ विद्धानों का मानना है कि मुट्ठी भर लोगों के विकास को आम लोगों का विकास नहीं माना जा सकता है । बीते छ: वर्षो में पिछड़े बिहार में सड़के बनी, लेकिन विकास की प्रतीक इन चिकनी सड़कों के बावजूद गरीबी और भुखमरी का भी विस्तार हुआ है । बिहार में गरीबी, भुखमरी और बीमारी का घना कुहरा छंटने के बजाय अधिक घनीभूत होने का अकारण नहीं माना जा सकता है ।
कृषि प्रधान बिहार के खेत अनाज के बजाय भूख उपज रहे है । पिछले दस वर्षो के अन्दर बाढ़ों के चार दौर से हुए नुकसान तथा पिछले तीन वर्षो में लगातार सुखाड़ की मार ने इस कृषि प्रधान प्रदेश की खेती किसानों को अनिश्चितता के अंधे सुरंग मेंढकेल दिया है । गौरतलब है कि बिहार के ८८ प्रतिशत गांवों की करीब ७५ आबादी पूर्णत: खेती किसानी पर ही निर्भर है, लेकिन बीते छ: सालों में न तो कृषि विकास को लेकर सिंचाई के साधनों का विकास हो पाया और न ही विघुतीकरण की दिशा में काम हो पाया।
ग्रामीण विद्युतीकरण के क्षेत्र में एक प्रतिशत भी वृद्धि नहीं हो पाई है । ऐसे में मानसून पर आधारित बिहार की खेती लगातार सुखाड़ की मार झेल रही है । यहां सबसे कम विकास दर १.५ प्रतिशत खेती में दर्ज की गयी है । औद्योगिकरण के क्षेत्र में निवेश शून्य है और पलायन भी थमा नहीं है । तो फिर विकास को लेकर किए जा रहे दावे की हकीकत क्या है ? सवाल उठता है कि क्या खेती के विकास के बगैर बिहार का विकास संभव है ? प्रदेश में प्रचुर संसाधनों के बावजूद मात्र साठ प्रतिशत कृषि क्षेत्र में ही कुल सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध हैं । सिंचाई सुविधाआें में ८३.८ प्रतिशत नलकूप हैं जो कि सिंचाई के फैलाव में बड़ा अवरोध है । बिजली का अभाव तथा भूगर्भ जलस्त्रोतों के अत्यधिक नीचे चले जाने के फलस्वरूप नलकूपों को डीजल से चलाना होता है जो किसानों के लिए महंगा सौदा है ।
आंकड़ों के अनुसार प्रदेश की कुल आबादी का ७७ प्रतिशत दलित खेत मजदूरों का है इनमें महादलितों की संख्या करीब ९० प्रतिशत है, जो पूर्णत: कृषि पर आश्रित है । लेकिन कृषि पर संकट आने से अब ये बेरोजगार हैं और अंतत पलायन को विवश हैं । उड़ीसा के बाद गरीबों की संख्या में सबसे अधिक वृद्धि बिहार में हुई है । यह किसी और का नहीं बल्कि बिहार की वर्तमान सरकार का ही कहना है । बिहार की कुल दस करोड़ की आबादी में गरीबों की संख्या सात करोड़ है । राज्य सरकार केन्द्र सरकार से इन गरीबों के लिए अनाज आवंटन कराने की मांग भी करती रही है । जबकि केन्द्र सरकार का मानना है कि प्रदेश में ६५ लाख परिवार ही गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं । इस लोक कल्याणकारी देश में हास्यास्यद तौर पर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के बिना गरीबी रेखा की सूची निर्धारण जैसा प्राथमिक काम भी पूरा नहीं हो पाता है ।
बीपीएल सूची में अनियमितताआें से सर्वाधिक प्रभावित दलित ही हुए हैं । बिडंबना यह है कि आज भी प्रदेश सरकार का केन्द्र के साथ लड़ाई का मुख्य मुद्दा यही है और अब यह समस्या के समाधान के बजाय राजनैतिक लड़ाई ज्यादा प्रतीत हो रहा है । दोनों सरकारें गरीबों की लड़ाई लड़ने की राजनीति में पीछे नहीं है । इसके बावजूद गरीबों को न तो भरपेट भोजन मिल रहा है और न ही घर । देश में सबसे अधिक बेघर परिवारों की संख्या जो कि ४२ लाख बिहार के दलितों की है जो गरीबी, भुखमरी एवं कुपोषण के भी शिकार हैं ।
सरकार के पास सस्ते अनाजों के जरिये भुखमरी एवं कुपोषण मिटाने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं है। मनरेगा एवं पोषाहार की योजनाआें में भ्रष्टाचार की दीमक लग चुकी है । स्थिति दिन ब दिन सुधरने के बजाय बिगड़ रही है । गरीबी एवं कुपोषण के दायरे बढ़ रहे हैं । वर्ष २००७ में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की एक रिपोर्ट में यह बताया गया कि राज्य में कुपोषित बच्चेंकी संख्या ५४ प्रतिशत से बढ़कर ५८ प्रतिशत हो गयी है । यह संख्या वर्ष २००६ में ५४ प्रतिशत थी जो एक साल बाद ही ५८ प्रतिशत हो गई । यह एक गंभीर विषय है ।
इनमें से १० प्रतिशत बच्चें की मौत एक साल के अंदर ही हो जाती है । तमाम रिर्पोटों में इसको लेकर चिन्ता प्रकट की जाती रही है । मातृ मृत्यु दर एवं शिशु मृत्यु दर के पीछे कुपोषण एक बड़ी वजह होती है । यद्यपि प्रदेश सरकार के अपने आंकड़े भी हैं जिसमें शिशु मृत्युदर एवं मातृ मृत्युदर में कमी बताई गई है, लेकिन कल्याणकारी योजनाआें की लचर स्थिति तथा इस दिशा में ठोस पहल की कमी को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि दो-तीन वर्षो में इतनी बड़ी खाई पाट ली गई होगी ।
गौरतलब है बिहार में बढ़ रही गरीबी एवं कुपोषण को देखते हुए यह नहीं लगता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के उन सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों को हम निकट भविष्य में हासिल कर पाऐगें जिसमें भूख एवं गरीबी को वर्ष २०१५ तक मिटाने पर खास जोर दिया गया है । भूख और कुपोषण के बढ़ते दायरे को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि हमारे आर्थिक विकास के वर्तमान ढांचे मेंस्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ रही है और समाज के सबसे निचले पायदान के बीच विकास की रोशनी पहुंचाने के सभी प्रयास बेमानी साबित हो रहे हैं ।

कोई टिप्पणी नहीं: