शनिवार, 17 सितंबर 2011

कविता

कैसापानी कैसी हवा
चन्द्रकान्त देवताले

किस तरह होती जा रही है दुनिया
कैसे छोड़कर जाऊँगा मैं
बच्चें तुम्हें और तुम्हारें बच्चें को
इस काँटेदार भूलभुलैयाँ में
किस तरह और क्या सोचते हुए
मरूंगा में कितनी मुश्किल से
साँस लेने के लिए भी जगह होगी या नहीं
खिड़की से क्या पता
कब दिखना बंद हो जायें हरी पत्तियों के गुच्छे
हरी पत्तियों के गुच्छे नहीं होेगे
तो मैं कैसे मरूँगा
मैं घर में पैदा हुआ
घर पेड़ का सगा था
गाँव में बड़ा हुआ
गॉव खेत-मैदान का सगा था
पर अब किस तरह रंग बदल रही है दुनिया
मैं कारखाने में ँसी आवाजों के बिस्तर पर
नहीं मरूँगा
कारखाने जरूरी है
कोई अफसोस नहीं
आदमी आकाश में सड़के बनाये
कोई दिक्कत नहीं
पर वह शैतान
उसके नाखून भयानक जबड़े
वह शहरों - गांवों पर मँडरा रहा है
और हमारी परोपकारी संस्थाएँ
हर घर से उसके लिए
जीवित मांस की व्यवस्था कर रही हैं
घरों की पसलियों पर
कारखानों की कुहनियों का बोझ
गलत बात है
स्याह रास्ता अन्तहीन अन्त-जैसा
और जुगनुआें-सी टिमटिमाती
भली आत्माआें के दो-चार शब्द
हरी पत्तियों का गुच्छा होगा
तब भी दिक्कत आयेगी
सोच-सोचकर
तुम्हारे बच्चें के बच्च्े किस तरह
रास्ता बनायेंगे
कैसा पानी कैसी हवा
ईधन का पता नहीं क्या करेगें ?
सच मरते वक्त अपने को माफ नहीं
कर पाऊँगा मैं

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