बुधवार, 15 जुलाई 2015

सामयिक
सहजीवन, संपोषण और समानता 
शुभू पटवा
भारत में भारतीय संस्कृति ने प्रकृति से एकात्म को अपना मूलमंत्र बनाया है । रेगिस्तान में पशुपालन को मुख्य व्यवसाय बनाने का चमत्कार संभवत: राजस्थान का जीवंत समाज ही कर सकता था ।
भारत की सबसे बड़ी दौलत अटूट जैव संपदा की अनू ठी विविधता और विपुलता है । यहां का लोकविज्ञान, पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली प्रकृति अथवा पर्यावरण के साथ एकसार रही है। प्रकृति पर नियंत्रण या विजय का मिथ्या अहंकार भारतीय परंपरा में कभी नहीं रहा । भारतीय परंपरा भोगवादी नहीं बल्कि प्रकृति के साथ सहोदर के रिश्ते रखने की रही है । वहीं दूसरी ओर हम तथाकथित आधुनिक विकास और प्रौद्योेगिकी की जकड़ में गहरे फंसते जा रहे हैं। शुक्र है, हमें अपनी संस्कृति व पर्यावरण के प्रति आदर और अनुशासन जैसी बातें पुन: याद आने लगी हैं ।  
     हमें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए । भोपाल गैस कांड से लेकर हमारी प्राकृतिक संपदा के लूटे जाने, कारखानों-खेतों में हर साल हजारों श्रमिकों के अपंग होते जाने या मर जानेे से लेकर आर्थिक उन्नति और वैज्ञानिक प्रबंधन के नाम पर किया जाने वाला शोषण बखूबी जारी है। आजादी के बाद प्राकृतिक संपदा को लेकर बने अनेक कानून, अनेक  प्रबंध संस्थान और सरकारी-गैर सरकारी विभाग इसके प्रमाण हैं । इनके चलते आम लोगों की आत्मनिर्भरता घटी है । जिस सामूहिक संपदा (कॉमन प्रॉपर्टी) के बल पर हमारा वृहद् समाज पीढ़ियों तक टिका रह सका, वह आज बदहाली के दौर से गुजर रहा है । जो खानाबदोश वर्ग हमारे समाज में अपने हुनर, व अपनी अलमस्ती में ही मस्त था, उसे विकास के कुछ ऐसे सपने दिखा दिए गए कि उसे अब कहीं ठौर नहीं मिल रही है ।
पशुधन के मामले में हमारा देश बड़ा धनी है। रकबे के आधार पर भारत का विश्व में चालीसवां स्थान है । दुनिया के कुल पशुधन में से आधा हमारे यहां हैं । गाय-बैल, भैस,-बकरी, ऊंट इत्यादि की संख्या भी करोड़ों में है । देश की राष्ट्रीय आय मेें पशुपालन का सीधा योगदान छ: प्रतिशत है । परोक्ष योगदान तो बेहिसाब है । वहीं राजस्थान की इस विपुल पशु संपदा से १९ प्रतिशत आय होती है । पशुपालन बहुल प्रदेश और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धुरी पशुधन होने के कारण राजस्थान में गांव-गांव में गोचर और ओरण यानि परंपरागत चरागाह आरक्षित रखने की परंपरा रही है। इन्हीं को सामुदायिक संपदा स्त्रोत कहा जाता है। राजस्थान और खासकर यहा स्थित थार मरुस्थल क्षेत्र में इनका सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व रहा   है ।  
चरागाहों की उपयोगिता एवं उपादेयता के प्रति भी सरकार का नजरिया बदला है । इसके बावजूद मई १९९३ में सरकार ने कानून में संशोधन कर जिला कलेक्टरों को चरगाहों या सामुदायिक भूमियों को अन्य कामों के लिए आवंटित करने तथा उसके 'वर्ग' में परिवर्तन करने का अधिकार दे दिया है । पहले यह अधिकार चार एकड़ तक ही था । अब इसे दस एकड़ तक बढ़ा दिया   है । इस संशोधन से तो जिला कलेक्टरों को मनमानी करने की और अधिक छूट मिल गई है । दूसरी ओर राज्य शासन ने तो अब अपरिमित अधिकार हासिल कर लिए हैं । परंतु ऐसे गैरकानूनी आबंटन आम तौर पर न्यायाधीशों ने रद्द किये हैं ।
    विपुल पशुधन के लिए चरागाह तो होने ही चाहिए । दुर्भाग्यवश चरागाहों का विनाश हुआ है। राजस्थान में भी विशेषत: पश्चिमी राजस्थान और उसका भी थार-मरुस्थल वाला क्षेत्र सर्वाधिक पशुधन वाला क्षेत्र है। यहां वर्षा अत्यल्प (अत्यन्त कम) है । यह अत्यल्प वर्षा, सर्वाधिक पशुधन की मौजूदगी और कम वर्षा में पैदा होने वाली वनस्पतियां और उनका टिका रहना वास्तव में प्रकृति का अपना अनूठा संतुलन है । यही थार का पर्यावरण   है । थार के इस पर्यावरण को समझने की जो चूक आधुनिक ज्ञान- विज्ञान ने की है, उसके नतीजे भी सामने हैं । 
थार मरुस्थल के  गोचर-ओरण की परंपरा और बरसाती पानी के संभरण-संचयन की पुख्ता संपदा आधुनिक तकनीक के हाथों नष्ट होती जा रही हैं । मेरे स्वयं के कतिपय अध्ययन इस जमीनी चाई को सिद्ध करते हैं, पर दुर्भाग्य से इन अध्ययनों पर तथाकथित 'विशेषज्ञता' की छाप नहीं है । इसलिए राज में बैठे नीति नियोजकांे के लिए ये अध्ययन किसी प्रकार के बीजाक्षर नहीं बन पाए ।
थार मरुस्थल में वर्षा के अभाव और वर्षा चक्र की अनिश्चितता के कारण कृषि यहां मुख्य आधार नहीं अपितु सहायक धंधा है। खेती व पशुपालन पर आधारित जीवन ही 'थार' का संतुलित जीवन माना जाता है । अकेले पश्चिमी राजस्थान के ग्यारह जिलों में ८ लाख ४६ हजार हेक्टेयर क्षेत्र परंपरागत गोचर के रूप में हैं । यह क्षेत्र सामुदायिक संपदा है और इसका संरक्षण समाज के हाथ में होना चाहिए । लेकिन यह सब शासन के सहयोग से ही संभव है । राजस्थान में चरागाहों को लेकर एक चेतना अवश्य फैली है । गोचर-ओरण तथा मरुस्थल की परंपरागत वनस्पतियों को लेकर सन् १९८४ में हुए भीनासर आंदोलन की व्यापकता और अनुगूंज अब राजस्थान में नजर आने लगी है।
पशुधन के लिए चराई के क्षेत्र की कमी का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण है फसल चक्र । इस फसल चक्र ने खेतों को वर्ष में किसी भी समय के लिए खाली नहीं छोड़ा है । एक समय था जब किसान घुमंतू पशुपालक, बंजारा या खानाबदोश लोगों की राह देखता था कि कब भेड़ें-बकरियों आयें और उनके खेतों में बसेरा करें । पर अब ? राजस्थान के घुमंतू पशुपालकों व किसानों के बीच अदालती कार्रवाईयों से लेकर सशस्त्र बल और होमगार्ड की तैनाती की घटनाएं बताती हैंकि अब किसान और घुमंतू पशुपालकों के रिश्ते बदल चुके हैं ।   
     इस बदलाव से पैदा हो रही विषमताएं भी सामने आने लगी हैं । हरित क्रांति की बात वैसी ही है जैसी सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को मार कर एक साथ सारे अंडे ले लेना । गांधी ने कहा था 'यह धरती सबका पेट भर सकती है, पर किसी एक का भी लालच पूरा नहीं कर सकती ।' वहीं आधुनिक विकास की तथाकथित नीतियों ने भुखमरी बढ़ाई है और खनन, भू-जल का दोहन, जंगलों के शोषण में भी वृद्धि हुई है ।  
पानी के मामले में हमारा देश बड़ा सौभाग्यशाली है । पर तब भी हमारे पास क्या पूरा पानी है ? नद-जल, हिमालय और सूखा-मरुस्थल जैसे कुछ रूप हैं- पानी की उपलब्धता के । भू-जल के मामले में भी बहुलता और न्यूनता से लेकर पीने योग्य और 'बिरायीजणा' (खारा-कसैला) पानी भी इस धरती में है । भू-जल के पानी का क्षरण और पुनर्भरण का अनुपात भी हमारे सामने है । यह तस्वीर ऐसी नहीं कि हम पानी के प्रति निश्चिंत हो जायें । पानी के प्रति हमारी चिंता वास्तविक होनी चाहिए । बरसात के पानी के भंडारण पर ध्यान देना जरुरी है । थार मरुस्थल में वर्षा के पानी के संभरण की तकनीक उस लोक-विज्ञान की देन है, जो आज भी किसी भी उन्नत प्रौद्योगिकी के सामने सिर ऊंचा लिए खड़ी है। पानी की अल्पता को ध्यान में रखते हुए हमें और वैज्ञानिकोंदोनों को इसके संरक्षण पर विचार करना चाहिए ।   
आजादी के बाद बराबरी और विकास को लेकर चली लंबी बहस में मैंएक बुनियादी बिंदु ''संपोषण'' जोड़ना चाहता हंू । आज समानता और संपोषण वाले विकास की जरुरत है । क्या हमारी इतनी इच्छाशक्ति है कि हम तथाकथित आधुनिक विकास के इस जुए को अपने सिर से उतार फेंके ? भारतीय समाज की यह इच्छाशक्ति अभी मरी नहीं है । पिछले कुछ वर्षोसे देश में चल रहे पर्यावरण आंदोलनों ने यह भी सिद्ध किया है कि अध:पतन की स्थितियों के होते हुए भी हमारा सामाजिक चरित्र अभी भी ऊर्जावान है । जरुरत है, राजनीतिक नेतृत्व को इस ओर ढालने की ।
वर्तमान परिस्थिति में हमें 'विकास' का अपना ऐसा मॉडल अपनाना होगा, जो शहरी आत्मनियंत्रण और ग्रामीण पर्यावरण को समृद्ध करने वाला हो । हमारा पारंपरिक लोक विज्ञान, हमारा  ज्ञानविज्ञान और आज की उन्नत प्रौद्योगिकी मिल कर जो रूप ग्रहण करेंगे वही सही मानों में आधुनिक विकास होगा । पर्यावरण का अर्थ करीने से लगाये कुछ पेड़, व्यवस्थित या संरक्षित अभयारण्य, हवा और पानी भर तक ही सीमित नहीं है। असल में पर्यावरण पर ही हमारा समूचा अस्तित्व टिका है । उसकी रक्षा परस्पर सहजीवन, संपोषण और समानता पर ही आधारित है ।

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