बुधवार, 15 जुलाई 2015

ज्ञान-विज्ञान
समुद्र में २ किलोमीटर की गहराई पर जीवन
पिछले दिनों अमेरिका में वॉशिंगटन प्रांत के तट से कुछ दूरी पर स्थित जुआन डी फुका रिज मेंसमुद्र के अंदर करीब २ किलोमीटर की गहराई पर फॉल्टी टॉवर संकुल नामक एक संरचना पाई गई है । 
इन्हें ब्लैक स्मोकर्स कहत हैं और ये अति-तप्त् और खनिज बहुल पानी उगलते रहते   हैं । यह गर्म पदार्थ इनके नीचे स्थित गर्म सुराखों में से निकलता है । यह तस्वीर एक पनडुब्बी उपकरण द्वारा खींची गई थी । इस उपकरण का संचालन रिमोट विधि से वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के एक दल द्वारा किया जाता है । इस परियोजना का मकसद समुद्र की गहराइयों में पर्यावरण का विवरण तैयार करना है। 
फॉल्टी टॉवर्स संकुल अपनी तरह का सबसे बड़ा संकुल है । इसमें १४ ऐसी चिमनियां हैं, जिनमें से कुछ तो २२ मीटर ऊंची है । तस्वीर के बाएं वाले हिस्से मेंआपको एक लट्ठा पड़ा दिख रहा है । यह वास्तव में किसी तने का हिस्सा नहीं बल्कि एक धराशाई हो चुकी चिमनी है । 
ऐसी समुद्री सोते आजकल खनन कार्य के लिए काफी लोकप्रिय हो चले हैं क्योंकि इनमें उच्च् श्रेणी के धातु अयस्क मिलते हैं । आश्चर्य की बात है कि ये चिमनियां जो पानी उगलती हैं उसका तापमान १०० डिग्री सेल्सियस तक हो सकता है मगर यहां भी कुछ असाधारण जीव पाए गए हैं । पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत ऐसे ही स्थलों पर हुई थी । 
गर्माता हिंद महासागर मानसून को कमजोर करता है
पूणे स्थित भारतीय कटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकोंद्वारा किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि हिंद महासागर के तापमान मेंहो रही वृद्धि मानसून के कमजोर पड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है । 
संस्थान के वैज्ञानिक रॉक्सी मैथ्यू कोल और उने साथियोंने पिछले १०० साल से ज्यादा के मौसम वैज्ञानिक आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर यह बताया है कि जब हिंद महासागर का तापमान बढ़ता है तो जमीन व समुद्र के बीच तापमानमेंअंतर कम हो जाता जिसकी वजह से मानसून का प्रवाह धीमा पड़ जाता है और दक्षिण एशिया में कम बारिश होती है । 
     ऐसा माना जाता है कि गर्मियों से समुद्र और जमीन के बीच तापमान में अंतर समुद्र सतह का तापमान भारतीय मानसून की प्रमुख चालक शक्तियां है । जहां समुद्र और जमीन के बीच तापमान में अंतर की वजह से हवाएं उपमहाद्वीप की ओर बहती हैं, वहींं समुद्र का बढ़ता तापमान पानी के वाष्पीकरण को बढ़ावा देकर हवा में नमी की मात्रा को बढ़ाता है । तापमान अधिक हो तो हवा की नमी धारण करने की क्षमता भी बढ़ती है । कोल का कहना है सामान्य परिस्थिति में समुद्र और जमीन के बीच तापमान के अंतर और हवा में अधिक नमी होने से मानसूनी बरसात में वृद्धि होने की उम्मीद की जाती है । 
मगर पुणे संस्थान के वैज्ञानिकोंका अध्ययन दर्शाता है कि मध्य दक्षिणी एशिया-पाकिस्तन के दक्षिणी हिस्से से लेकर मध्य भारत और बांग्लादेश - में मानसूनी बरसात कम हो रही  है । मध्य भारत में हो रही कमी सबसे उल्लेखनीय   है। पिछली सदी में यहां बारिश की मात्रा में १०-२० प्रतिशत तक की कमी आई है । 
अध्ययन के मुताबिक बारिश मेंइस गिरावट में सबसे ज्यादा योगदान हिंद महासागर की सतह के तापमान में हो रही वृद्धि का नजर आता है । खास तौर से हिंद महासागर के पश्चिमी हिस्से में सतह का औसत तापमान पिछली सदी में १.२ डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है जो अन्य कटिबंधीय महासागरों से कहीं अधिक है । 
शोधकर्ताआें के मुताबिक जब समुद्र गर्म होते हैं तो भूमध्य रेखा पर स्थित समुद्रों में वाष्पीकरण बढ़ता है और गर्म नमी से भरी हवाएं ऊपर उठती हैं । इसका परिणाम यह होता है कि समुद्र से जमीन की ओर हवा के प्रवाह में बाधा पहुंचती है । इसका मतलब यह है कि अधिक से अधिक मानसूनी बारिश समुद्रों के ऊपर हो रही है और भारतीय महाद्वीप इसका खामियाजा भुगत रहा हे । 
इस अध्ययन से एक सवाल उठता है । पृथ्वी का तापमान तो बढ़ता जा रहा है और जलवायु के मॉडल्स बता रहे हैं कि हिंद महासागर का तापमान भी बढ़ता जाएगा । तो क्या मानसूनी बारिश में और कमी आएगी ? कोल और उनके साथियों का कहना है कि इस सवाल का जवाब तत्काल देना मुश्किल है क्योंकि मानसून एक जटिल प्रक्रिया है और समुद्र का बढ़ता तापमान एकामात्र कारक  नहीं हैं । 
दुनिया का पहला जलवायु परिवर्तन मुकदमा
पिछले दिनों नीदरलैण्ड सरकार जलवायु परिवर्तन सम्बंधी एक महत्वपूर्ण मुकदमा हार गई । यह मुकदमा सरकार द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन सम्बंधी योजना को लेकर एक पर्यावरण समूह ने दायर किया था । ग्रीनहाउस गैसें वे गैसें हैं जो धरती के तापमान को बढ़ाने में योगदान देती हैं और कई अंतर्राष्ट्रीय संधियों में इन गैसों का उत्सर्जन कम करने पर सहमति हुई है । 
पर्यावरण समूह अर्जेंडा ने ९०० नागरिकों की ओर से नीदरलैण्ड सरकार के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया था । मुकदमे की विषयवस्तु यह थी कि सरकार ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के जो प्रयास किए हैं वे निहायत नाकाफी हैं । लिहाजा सरकार जानबूझकर अपने नागरिकों को खतरनाक परिस्थिति में धकेल रही है । 
अर्जेंाडा ने हेग स्थित अदालत से अनुरोध किया था कि वह यह घोषित करे कि धरती के तापमान में २ डिग्री सेल्सियस से ज्यादा वृद्धि दुनिया भर के नागरिकों के मानव अधिकार का उल्लघंन होगा । सराकारें की समिति का मत है कि सरकारों को अपने-अपने देश में वर्ष २०२० तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन इतना कम करना होगा कि वह १९९० के स्तर से २५ से ४० प्रतिशत तक कम हो जाए । ऐसा करने पर ही इस बात की ५० प्रतिशत संभावना बनेगी कि धरती के तापमान में वृद्धि २ डिग्री सेल्सियस की सीमा में रहेगी । मगर युरोपीय संघ के देशोंने ४० प्रतिशत कटौती करने की सीमा २०३० तक रखी है । 
इस मुकदमे की सुनवाई कर रहे तीन न्यायाधीशों ने याचिकाकर्ताआें से सहमति जताई और निर्णय दिया कि २०२० तक उत्सर्जन के स्तर को १९९० के स्तर से मात्र १४-१७ प्रतिशत कम करना गैर-कानूनी है । फैसले में कहा गया है कि सरकार को इस दलील की आड़ में बचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए की वैश्विक जलवायु समस्या का समाधान मात्र नीदरलैण्ड के प्रयासों से संभव नहीं है । अदालत ने नेदरलैण्ड सरकार को यह आदेश भी दिया है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष २०२० तक कम  से कम २५ प्रतिशत की कमी   करे । 
कई कानून विशेषज्ञ मान रहे हैं कि अर्जेंाडा की जीत का विश्वव्यापी असर होगा और कई देशों में ऐसे मुकदमे दायर होने की संभावना है । बेल्जियम का एक पर्यावरण समूह इसकी तैयारी भी कर रहा है । लंदन स्थित कानून कंपनी क्लाएंट अर्थ के जेम्स एरंडेल का मत है कि इस मुकदमे का मुख्य मुद्दा यह है कि राष्ट्र संघ में जारी बातचीत का परिणाम जो भी निकले, सरकारें का कानूनी दायित्व है कि वे उत्सर्जन में कमी लाएं । इस संदर्भ में कुछ कानून विशेषज्ञों ने ओस्लो सिद्धांतों का प्रकाशन किया है जिनमें जलवायु की रक्षा को सरकारों का कानूनी दायित्व माना गया है  । 

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