सोमवार, 17 अगस्त 2015

ज्ञान-विज्ञान
नन्हा सा कृत्रिम धड़कता दिल
वैज्ञानिकों ने एक सूक्ष्म ह्वदय बनाने में सफलता हासिल की है । वैसे तो तश्तरी में ये ह्वदय छोटे-छोटे बिन्दुआें जैसे दिखते हैं मगर सूक्ष्मदर्शी से देखने पर पता चलता है कि ये धड़कते भी हैं और इसमें मानव ह्वदय में पाई जाने वाली संरचना निलय भी है । गौरतलब है कि मानव ह्वदय में चार प्रकोष्ठ होते हैं  - दो आलय और दो निलय । आलयों में बाहर से खून आकर भरता है, फिर वह निलयों में जाता है और निलयों की धड़कन से उसे शरीर में भेजा जाता है । इस सूक्ष्म ह्वदय का निर्माण बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जेन मा की टीम ने किया है । 
वैसे तो इस तरह के कृत्रिम अंग पहले भी बनाए जा चुके है मगर उनको बनाने मं किसी ऐसे ढांचे का सहारा लिया जाता था जो पहले से मौजूद होता था । जैसे किसी दानदाता के ह्वदय की कोशिकाआें को पूरी तरह से हटाकर बचा कोलाजेन का ढांचा । मगर मा की टीम ने एकदम नए सिरे से सूक्ष्म ह्वदय का निर्माण किया है । 
मा और उनके साथियोंने मनुष्य की चमड़ी की कोशिकाएं लेकर उन्हें भ्रूणावस्था की कोशिकाआें जैसी कोशिकाआें में बदला - इन्हें प्ररित बहुसक्षम स्टेम कोशिकाएं कहते हैं । आम तौर पर इन कोशिकाआें को एक ऐसे माध्यम से रखा जाता है जिसमें वृद्धि के कारक मौजूद हो । मगर मा की टीम ने एक और करामात की । प्राकृतिक रूप से अंगोंकी वृद्धि के दौरान भ्रूण की कोशिकाआें पर कई भौतिक बल काम करते हैं जो उन्हें बताते है कि वे कहां वृद्धि कर सकती है और कहां नहीं । मा की टीम ने इस बलों की नकल करने के लिए संवर्धन माध्यम से रासायनिक धब्बों का उपयोग किया जो कोशिकाआें के लिए रूकावट का काम करते हैं । इन धब्बों की वजह से बढ़ती कोशिकाआें को सही जमावट में व्यवस्थित होना पड़ा । 
इस प्रक्रियासे हुआ यह कि कोशिकाआें की आकृतियां भी बदली जैसा कि भू्रण में विकसित होते ह्वदय के साथ होता है । परिणामस्वरूप केन्द्र में स्थित कोशिकाएं ह्वदय की धड़कने वाली कोशिकाएं बन गई । इनके आसपास की कोशिकाआें ने संयोजी ऊतक का स्थान ले लिया । उल्लेखनीय बात यह हुई कि बीच की धड़कने वाली कोशिकाएं ऊपर की ओर भी बढ़ी और उन्होनें एक गुंबद का आकार ग्रहण कर लिया । यह सूक्ष्म पैमाने पर ह्वदय के निलय जैसा था । 
सूक्ष्म ही सही, मगर यह ह्वदय बगैर किसी सहारे के बना है । अब कोशिश यह होगी कि पूरे आकार का ह्वदय इस प्रक्रिया से बनाया जाए । मगर जब तक वह करना संभव नहीं होता, तब तक यह नन्हा सा दिल भी काफी काम का है । आप इसके साथ प्रयोग करके देख सकते है कि कौन से रसायन या कौन सी परिस्थितियां भ्रूण मेंह्वदय के विकास में विकृति पैदा कर सकती है । अभी शोधकर्ता दल यह दर्शा पाया है कि थेलिडोमाइड की उपस्थिति मेंह्वदय का विकास ठीक तरह से नहीं     होता । गौरतलब है कि थेलिडोमाइड  वह दवा है जिसका सेवन महिलाआें ने गर्भावस्था के दौरान किया था और उनके बच्च्े विकृत पैदा हुए थे । 
हाथ पर उगा दिया कान
पेट पर नाक या पेर पर हाथ उगा देने और फिर उसे सही जगह लगा देने के बड़े ऑपरेशन्स की खबरें अक्सर विदेशों से आती रही है, पर ऐसा कमाल देश में भी हुआ है और इसे किया है दिल्ली के लोक नायक जय प्रकाश अस्पताल (एलएनजेपी) के प्लास्टिक एंड बर्न सर्जरी विभाग के डॉक्टरों ने । उन्होंने मरीज की छाती से चर्बी निकालकर उससे मरीज के ही हाथ कान उगाया है । कान पूरी तरह तैयार है और डॉक्टर अब इसे उचित जगह लगाने की तैयारी में   हैं । 
विभाग के सर्जन डॉ. पीएस भंडारी के मुताबिक यह आर्टिफिशियल कान है, जिसे हमने मरीज की बांह पर उसके ही शरीर के ऊतकों से विकसित किया हे । इसके लिए स्कीन के साथ छाती की पसली निकाली गई, फिर उसे तराश कर कान का फ्रेमवर्क बनाया । यह प्रयोग २२ साल के युवक पर किया, जिसके दोनों कान जल गए थे । इसके कान बनाने के लिए हमारे पास कच्च माल नहींथा । ऐसे में पांच-छह माह में कई चरणों में अब इसे पूरा कर   पाए । 
पहला चरण : छाती की कमानी से तीस पसलियां निकाली, जो कि मुलायम हड्डी की तरह होती है । फिर मशीन के जरिए इनसे कान का फ्रेमवर्क बनाया । 
दूसरा चरण : शुरू में कोशिकाआें को फैलाने वाला इंजेक्शन हाथ में डाला था । इससे गुब्बारे सा उभार आ जाता है । बाद में इसे निकालकर कान का फ्रेमवर्क डाला । 
तीसरा चरण : धीरे-धीरे गुब्बारे की जगह कान का आकार बन जाता है । फिर हाथ से इस कान को निकालकर सही जगह पर लगा दिया जाएगा । 
नर और मादा में दर्द की अलग अनुभूति
नेचर न्यूरोसाइंस में प्रकाशित अनुसंधान से पता चला है कि नर और मादा चूहों में दर्द की संवेदना का रास्ता अलग-अलग होता  है । इस अनंसुधान के परिणामों से यह भी स्पष्ट होता है कि क्यों कई दवाईयां इंसानों पर परीक्षण के दौरान कामयाब नहीं रहीं । 
लंबे समय तक बने रहने वाले जीर्ण दर्द के मामले में प्रतिरक्षा तंत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । खास तौर से प्रतिरक्षा तंत्र की माइक्रोग्लिया नामक कोशिकाएं इसमें प्रमुख होती हैं । माइक्रोग्लिया कोशिकाएं  एक रसायन का निर्माण करती है - बीडीएनएफ - जो मेरू रज्जू को संदेश देता है । चोट लगने या सूजन होने पर संदेश शरीर को दर्द के प्रति संवेदी बना देता है ओर हल्के से स्पर्श से भी दर्द होता है । 
अलाबमा विश्वविद्यालय के रॉबर्ट सोर्ज और उनके साथियोंने कुछ स्वस्थ नर व मादा चूहों की एक तंत्रिका को काटकर उनमें दर्द व सूजन उत्पन्न कर दिए । इसके एक सप्तह बाद उन्हें ऐसी दवा दी गई जो माइक्रोग्लिया की क्रिया को रोकती है । ऐसा करने पर पता चला कि जहां सारे नर चूहों में दर्द की संवेदना समाप्त् हो गई, वहीं मादा चूहों पर इस दवा का कोई असर नहीं हुआ ।
शोधकर्ताआें ने कुछ चूहों में जेनेटिक इंजीनियरिंग तकनीक की मदद से ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि उनमें किसी भी समय माइक्रोग्लिया में से बीडीएनएफ बनाने वाले जीन कोे निष्क्रिय किया जा सकता था । शुरू में तो सभी चूहों में दर्द की संवेदना एक-सी  थी । मगर एक सप्तह बाद इनके बीडीएनएफ जीन को निष्क्रिय किया गया तो नर चूहों में तो दर्द की अति-संवेदना खत्म हो गई मगर मादा चूहों पर कोई असर नहीं हुआ । इसका मतलब है कि मादा चूहों में दर्द का नियमन बीडीएनएफ के जरिए नहीं होता है । 
यह शोध इस मायने में महत्वपूर्ण है कि आम तौर पर दवाइयों का परीक्षण करते समय नर जंतुआें का ही उपयोग किया जाता है । इसलिए जो भी परिणाम मिलते हैं, वे इंसानों पर लागू नहीं हो पाते क्योंकि इंसानी परीक्षण में तो स्त्री-पुरूष दोनों होते हैं । इस शोध के आधार पर शायद अब शोधकर्ता परीक्षण के लिए जंतु चुनते समय सावधानी बरतेगें । 
सोर्ज की टीम अब यह पता करने का प्रयास कर रही है कि यदि मादा चूहों में जीर्ण दर्द का नियमन बीडीएनएफ के जरिए नहीं होता, ते उनमें दर्द के नियमन का का मार्ग क्या है । 

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