सोमवार, 17 अगस्त 2015

प्रसंगवश
कटे अंगूठे की बंदनवारें 
  डॉ. शिवमंगलसिंह   सुमन 
कुछ वर्षोपूर्व झाबुआ और अलीराजपुर के आदिवासी इलाके मेंमैं यह देखकर हैरान रह गया कि वहां के भील सर-संधान में अंगूठे का प्रयोग नहीं करते, केवल चार अंगुलियों से ही प्रत्यंचा खींचकर अचूक लक्ष्यवेध करने की उनकी क्षमता विस्मयकारी है । पूछने पर वे इतना ही बता पाए कि हमारे यहां अंगूठे का प्रयोग वर्जित है । सहसा मेरे मानस में वह गाथा कौंध - सी गई कि युगों पूर्व इनके पूर्वज एकलव्य का अंगूठा गुरू द्रोणाचार्य ने कटवा लिया था । तबसे आज तलक उनकी संतानोंने उसका प्रयोग ने करने का संकल्प किस धैर्य और साहस के साथ निबाहा है । अशिक्षित और असभ्य कहे जाने वाले सर्वहारा वर्ग का यह अप्रितहत स्वाभिमान देखकर मैं चकित रह गया । मुझे लगा कि सर्जक की दुर्धर्षता का इससे बढ़कर अन्य प्रतीक नहीं हो सकता । जब सर्जक नि:स्वभाव से रूढ़िग्रस्त समाज के अनाचारों और विभिषिकाआें को चुनौती देने का साहस संजोने में समर्थ होता है तब वह संवेदना की अखण्ड परम्परा को प्रवहमान करने का अधिकारी बनता है । 
भारतीय साहित्य (काव्य) के उद्गम की कहानी भी तो ऐसी ही एक चुनौती है । भारत जैसे धर्मप्राणा देश में पहली कविता न कोई स्त्रोत है न मंगलाचरण, वरन बहेलिए के बाण से बिद्ध छटपटाते हुए पक्षी को देखकर किसी महान संवेदनशील सह्वदय का अत्याचार के विरूद्ध अप्रयास फूट पड़ने वाला आक्रोश है ।         निश्चय ही साहित्य का उत्स, अवरोधों, विरोधों, बाधाआें के पहाड़ों के अंतस से ही प्रादुर्भूत हुआ है । कबिरा की वाणी की बुलंदगी का भी तो यही रहस्य है । 
काव्य के प्रयोजन परक यर्थाथवादी भूमिका को स्पष्ट करते हुए मम्मट ने भी तो यही कहा कि - 
काव्य यशसे%थेकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । 
सद्य: परिनिर्वृतये कान्ता-सम्मिततयोपदेशयुजे ।।
अर्थात् - कीर्ति के लिए, धन के लिए, व्यवहार जानने के लिए, अमंगल (शिवेतर) के विनाश के लिए, और तत्काल परम आनंद की प्रािप्त् के लिए प्रेयसी प्रयुक्त प्ररोचना के समान ही काव्य का प्रयोजन है ।

1 टिप्पणी:

नितिन मिश्रा ने कहा…

मैंने आपकी पत्रिका पढी | पढकर बहुत आनंद आया |