सोमवार, 17 अगस्त 2015

सामयिक
शिक्षा के कारखानोंके घटिया उत्पाद 
चिन्मय मिश्र
पूरे भारत मेंं नया शिक्षा सत्र शुरु हो गया है । शिक्षा प्रणाली के मूलभूत कलेवर को बदलने संबंधी तमाम सुझाव, सलाह व पैरोकारी  हमेशा की तरह शोर मचाने के बाद पुन: जुलाई २०१६ तक के लिए कुम्भकर्णी नींद में चली गई है । 
कहते हैं कुम्भकर्ण वर्ष में दो बार उठता था और अपना भोजन, पानी आदि लेकर पुन: निद्रा में चला जाता था । परंतु भारतीय शिक्षा को तो पिछले तकरीबन सात दशकों से नींद की गोली देकर लगातार सुलाया जा रहा है । इसकी वजह यह है कि यदि शिक्षा में चेतना आ गई तो व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता खुल सकता है । सत्तर और अस्सी के दशक तक, जब शिक्षा उनींदी अवस्था को प्राप्त हो रही थी तब तक हमें अनेक सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन भले ही वह आधे- अधूरे से क्यों न हों, दिखाई पड़ते थे । नब्बे के दशक में उदारीकरण के नमूदार होने के बाद से शिक्षा को गहरी नींद में सुला दिया गया है । 
    अब हमारे सामने जैसे ही शिक्षा की बात होती हैं वैसे ही शौचालय और मध्यान्ह भोजन की उपयोगिता, आवश्यकता और निरर्थकता आँखों के सामने आने लगती हैं । शिक्षा की विषयवस्तु और विद्यार्थी इसमें कहीं भी शामिल नहीं किए जाते और शिक्षक से शिक्षण के अलावा अन्य सभी कुछ करने की उम्मीद की जाती है । जिला कलेक्टर से लेकर पटवारी तक से दुत्कार खाने की शिक्षक की सूची में अब सरपंच जैसे तमाम नए घटक और संस्थान जुड़ गए   हैं ।  
    इस सबके बीच अनेक ''प्रतिष्ठित'' गैर सरकारी संगठनों की रिर्पोट अखबारों के पहले पन्ने पर छपने लगती हैं कि छठी के बच्च्े को दूसरी का गणित नहीं आता । पर यह रिपोर्ट यह खुलासा नहीं करती कि गांव में छठी में पढ़ने वाला बच्च विश्वविद्यालयीन कृषि स्नातक से ज्यादा अच्छी तरह से बीजों की पहचान कर सकता है और खेत की मिट्टी को देखकर, सूंघ कर व हाथों में महसूस कर बिना किसी प्रयोेगशाला में परीक्षण किये बता सकता है कि इसमें कौन सी फसल लगाई जाए । मगर शिक्षा के सरकारी व गैर सरकारी ठेकेदार शिक्षा को रसोई में उबालकर और शौचालय में बंद करने से ज्यादा तवज्जो नहीं देना चाहते ।
     आज से करीब ११० वर्ष पूर्व रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा था, ''किसी भी तरह हमारे देश में ज्ञान के परिष्कार पर लगीं सीमाएं हटाई जानी चाहिए । राजनीतिक आंदोलनों आदि के जरिए हम ऐसा कर पाने में असफल रहे हैं, जो असंबद्ध रहे हैं और जिन्होंने हमारे उद्योग को बिखेर दिया है । अनेक शिक्षकों और अनेक प्रयोगों के जरिए हमें अपने देश में शिक्षा की धारा को जीवित करना होगा तभी शिक्षा हमारे देश की प्रकृति  के अनुकूल हो पाएगी । शिक्षा की किसी विशेष अवस्था को मात्र ''राष्ट्रीय'' नाम दे देने से जीवित नहीं किया जा सकता ।'' 
शिक्षा का अधिकार कानून निर्मित कर इसे मूल अधिकारों में शामिल करना एक उत्साहवर्धक कदम माना जा सकता है, लेकिन क्या उसका हश्र भी संविधान प्रदत्त अन्य मूल अधिकारों यथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक मत की स्वतंत्रता जैसा   होगा ? क्योंकि मूल प्रश्न तो बरकरार है कि हम अपना शासन व प्रशासन किस सीमा तक संविधान के दायरे में संचालित कर पा रहे   हैं ? 
    सी बी एस ई विद्यालयों की बढ़ती लोकप्रियता भारतीय संस्कृति की विविधता को पहचानने में रुकावटें पैदा कर रही है। दूूसरी ओर सारे विद्यालय विद्यार्थियों को ज्ञान के लिए नहीं बल्कि प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार कर रहे हैं । कोचिंग एवं ट्यूशन संस्थानों की गणना शिक्षण संस्थानों में होना किसी भी देश के लिए शर्मनाक है । परंतु भारत में कोटा जैेसे कोचिंग उद्योग चलाने वाले शहर ''एज्युकेशन हब'' कहलाने लगे हैं । जबकि दूसरी वास्तविकता यह है कि इस शहर में संभवत: सबसे ज्यादा विद्यार्थी आत्महत्या कर रहे हैं । 
इस बार आई आई टी की प्रवेश परीक्षा में सर्वोच्च् स्थान पाने वाले कुछ विद्यार्थी मध्यप्रदेश के इंदौर के कोचिंग संस्थानों में ट्यूशन करते थे । इससे प्रसन्न हो म.प्र. सरकार ने ऐलान कर दिया कि वह अब इन्दौर को ''एज्युकेशन हब'' बनाने में पूरी मदद करेगी । वैसे भी हवाई, सड़क व रेल यातायात की बेहतर ''कनेक्टिविटी'' इसे स्वमेव एक ''हब'' में परिवर्तन कर देती है । इस सबमें शिक्षा कहां है कोई भी ढंूढ नहीं सकता ।
    अमेरिकी शिक्षाविद गेट्टो का मानना है कि ''कारखाना शिक्षा प्रणाली (फेक्ट्री स्कूलिंग) बच्चें तथा समुदायों को भीषण नुकसान पहंुचा रही है।'' आज जब हम निजी विद्यालयों के विज्ञापन देखते हैं तो उसमें परिसर में उपलब्ध स्विमिंग पूल, वातानुकूलित क्लास रूम व बसें व तमाम अन्य गतिविधियोें जिसमें लजीज खाना भी शामिल है, को पाते हैं । लेकिन एक भी विद्यालय यह दावा नहीं करता कि उसके यहां अध्ययनरत बच्चें को कोचिंग में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी । सारे विद्यालय अब कोचिंग संस्थानों के  ''प्रिपरेयटरी स्कूलों या नर्सरी'' में परिवर्तन हो चुके हैं । पढ़ने के लिए वहां जाना अर्थहीन होता जा रहा   है । आई आई टी में प्रवेश हेतु बारहवीं के अंकों की गणना से शायद स्थिति सुधरे, लेकिन ''डमी स्कूल'' अभी भी शिक्षा जगत के सामने चुनौती बने खड़े हैं । 
एक अफ्रीकी कहावत है, ''एक बच्च्े को बड़ा करने के लिए पूरे गांव की जरुरत पड़ती है।'' मगर भारत में तो समाज का शिक्षा से नाता ही टूट गया है । इतना ही नहीं माता-पिता तक का बच्च्े से वैचारिक जुड़ाव भी लगातार कम होता जा रहा है । आइ आइ टी और आइ आइ एम जैसे संस्थानों को शिक्षा का सिरमौर माना जाने लगा है । जबकि वास्तविक शिक्षा तो विज्ञान, कला, साहित्य सामाजिक विषयों जैसे इतिहास, भाषा, राजनीति शास्त्र, समाजशास्त्र आदि से प्राप्त होती है । 
मगर भारत में अध्ययन और धनअर्जन को पर्यायवाची मानने की नई परंपरा अपना ली गई है । जिस तरह कारखानों में मजदूर के पास चुनाव की सुविधा नहीं होती, हां रोजगार छोड़ने की सुविधा अवश्य होती है, ठीक वैसा ही शिक्षा के साथ भी हो रहा है । शिक्षा से स्वयं को अलग करने वाले या ड्राप आउट केवल आर्थिक कारणों से नहीं होते बल्कि उसके पीछे और अनेक कारण होते है। परंतु सिवाए जुबानी जमा खर्च के यहां कुछ नहीं होता ।
     इस मेवाड़ी कहावत पर गौर करिए, ''वास्तविक लोकतंत्र अपने शासकों को चुनने से नहीं आता बल्कि वास्तविक लोकतंत्र अपने शिक्षकों को चुनने की योग्यता से आता है।'' दुर्र्भाग्यवश हमारे यहां कश्मीर से कन्याकुमारी तक के  बच्च्े सिर्फ धन कमाने की मशीन में परिवर्तित किए जा रहे हैं । रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी ''तोते की शिक्षा'' को भारत के प्रत्येक राजनीतिज्ञ, शिक्षाविद व प्रशासक को प्रतिवर्ष नए शिक्षा सत्र की शुरुआत से पढ़ाए जाने की जरुरत है । 
शायद करत-करत अभ्यास के कभी जड़मति सुजान हो जाए । वैसे इसकी सिर्फ  उम्मीद ही की जा सकती है और उम्मीदें हमेशा पूरी थोड़े ही होती हैं । चंद्रकांत देवताले ने लिखा भी है, 
    नकल अच्छी चीज नहीं
    नकल नहीं की जानी चाहिए
    पर की जाती है सदियों से 
   किसी कम्प्यूटर के स्मृति कोष में शायद हो 
   इसके उद्भव व विकास का लेखा।
ई-गवर्नेंास से एम गवर्नेंस तक पहुंचने की तैयारी में लगा भारत क्या वास्तव में शिक्षा को शासन प्रशासन से अलग रख उसके वास्तविक निहितार्थ तक पहुंचा पाएगा ?

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