सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

२ सामयिक

नदियों की जिंदगी का सवाल
प्रमोद भार्गव
जीवनदायनी नदियां हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। नदियों के किनारे ही सभी आधुनिकतम सभ्यताएं विकसित हुई हैं । जिन पर हम गर्व कर सकते हैं । सिंधु घाटी और सारस्वत (सरस्वती) सभ्यताएं इसके उदाहरण हैं । भारत के सांस्कृतिक उन्नयन के नायकोंमें भागीरथ, राम और कृष्ण का नदियों से गहरा संबंध रहा है । भारतीय वांगमय में इन्द्र विपुल जल राशि के प्राचीनतम वैज्ञानिक प्रबंधक रहे हैं । भारत भू-खंड में आग, हवा और पानी को सर्वसुलभ नियामत माना गया है। हवा और पानी की शुद्धता व सहज उपलब्धता नदियों से है । आज नदियों के जल बंटवारे को लेकर राज्यों में परस्पर विवाद हैं । दूसरे औद्योगिक कचरे शहरी मल-मूत्र बहा देने का क्रम जारी रहने से नदियां प्रदूषित होकर अपना अस्तित्व ही खो रही हैं । ऐसे में केन्द्रीय जलसंसाधन मंत्री सैफुद्दीन सोज का यह सुझाव कि देश की प्रमुख नदियों को राष्ट्रीय नदियां और राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर भारत सरकार अपने अधिकार में ले, स्वागत योग्य है । यह जलसंकट के भयावह दौर से गुजर रहे राष्ट्र को जल समस्या से किसी हद तक निजात दिलाने का ठोस उपाय बन सकता है । जरुरत है हठधर्मिता छोड़ सम्यक, समन्वयवादी रवैया अपनाने और सर्वागीण विकासोन्मुखी दृष्टिकोण प्रचलन में लाने की । होने को तो दुनिया के महासागरों, हिमखंडो, नदियों और बड़े जलाशयों में अकूत जल भंडार हैं । लकिन मानव के लिए उपयोगी जीवनदायी जल और बढ़ती आबादी के बीच जल की उपलब्धता का बिगड़ता अनुपात चिंता का बड़ा कारण बना हुआ है । ऐसे मेें बढ़ते तापमान के कारण हिमखंडो के पिघलने और अवर्षा के चलते जल स्त्रोतों के सूखने का सिलसिला जारी है । वर्तमान में जल की खपत कृषि, उद्योग, विद्युत और पेयजल के रुप में सर्वधिक हो रही है । हालांकि पेयजल की खपत मात्र आठ फीसदी है । जिसका मुख्य स्त्रोत नदियां और भू-जल हैं । औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और बढ़ती आबादी के दबाव के चलते एक ओर तो नदियां सिकुड़ रही हैं दूसरी ओर औद्योगिक कचरा और मल मूत्र बहाने का सिलसिला जारी रहने से गंगा और यमुना जैसी नदियां इतनी प्रदूषित हो गई हैं कि एक पर्यावरण संस्था ने यमुना को मरी हुई नदी तक घोषित कर दिया । मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात जलविद् राजेन्द्र सिंह ने यमुना के किनारे राष्ट्रमंडल खेलों और मेट्रो को इस जीवनदायी नदी की मौत बताते हुए इन प्रस्तावों के विरुद्ध संघर्ष ही छेड़ा हुआ है । यह सही भी है यदि यमुना के जल-भरण वाले चार से पांच किलोमीटर चौड़े तटांे पर स्थायी सीमेंट-कांक्रीट के जंगल खड़े किए जाते हैं तो नदी की जल संग्रहण क्षमता निर्विवाद रुप से प्रभावित होगी । अक्षरधाम मंदिर का विशाल परिसर इस नदी के तट पर पहले ही खड़ा किया जा चुका है । राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ४० प्रतिशत जल की आपूर्ति यमुना से ही होती है । गंगा, यमुना वाले पूरे दोआब क्षेत्र में जल का विशालतम भंडार है जो इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) के भू-जल से अंत: सलिला के रुप में जु़़डा है । भू-जल के इन भंडारों का विस्तार हस्तिनापुर तक है। यमुना के जिन तटों पर खेल परिसर, पंचतारा होटल और सड़कों के निर्माण प्रस्तावित हैं, यदि वे आकार लेते हैं तो निश्चित ही उपरोक्त जल भंडारों में प्राकृतिक तौर से जारी जल पुनर्भरण की प्रक्रिया बाधित होगी । केन्द्रीय बोर्ड भी कहता है कि खुले मैदानों में जल पुर्नभरण की गतिविधियां तेजी से चलती हैं । एक तरफ तो दिल्ली सरकार हस्तिनापुर के भू-जल भंडारों से दिल्ली की प्यास बुझाने की कोशिश में लगी है । वहीं दूसरी तरफ यमुना के विशाल तटों को सीमेंट-कांक्रीट से पाटकर हस्तिनापुर के भूजल भंडारो के पुर्नभरण में अवरोध करने के प्रस्ताव ला रही है । वर्तमान हालातोंमें वैसे भी यमुना बाईस किलोमीटर लंबे नाले में तब्दील हो चुकी है । इसे प्रदूषण मुक्त बनाए रखने के लिए दो हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात ही रहा बल्कि इसके उलट प्रदूषण दो गुना तक बढ़ गया है । नदियों में प्रतिदिन औद्योगिक अवशेष और मानव उत्सर्जन के रुप में तीन सौ करोड़ लीटर गंदा पानी छोड़ा जा रहा है । ८० प्रतिशत गंदा पानी शहरों से निकलता है । नदियों की प्रदूषण ग्रहण करने की स्वाभाविक क्षमता सेे यह गंदा पानी कई गुना अधिक है । इसलिए नदियों का जल मनुष्य और जलीय जीवों के लिए रोगजन्य साबित हो रहा है । हाल ही में चंबल नदी में ३१ घड़ियाल मरे पाए गए। वन विशेषज्ञों ने दावा किया है कि ये घड़ियाल चंबल का पानी जहरीला हो जाने के कारण लीवर सिरोसिस की बीमारी से मरे । अब तक यह बीमारी मनुष्यों में ही रेखांकित की गई थी । शायद ऐसे ही हालातों के संदर्भ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अंतत: यह कहना पड़ रहा है कि नदियों कि प्रदूषित होने के कारण सकल घरेलू उत्पाद में चार प्रतिशत का घाटा उठाना पड़ रहा है । केन्द्रीय भू-जल बोर्ड ने राष्ट्र के लगभग ८०० ऐसे भू-खंड को चिन्हित किया है, जिनमें भू-जल का स्तर निरंतर घट रहा है । ये भू-खंड दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, गुजरात और तमिलनाडु में हैं । यदि भू-जल स्तर के गिरावट में निरंतरता बनी रहती है तो भविष्य में भयावह जल संकट तो पैदा होगा ही भारत का पारिस्थितिकी तंत्र भी गड़बड़ा जाएगा । केन्द्र सरकार ने ४३ भू-खंडो से जल निकासी पर प्रतिबंध लगा दिया है। भू-जल संवर्धन की दृष्टि से यह एक कारगर पहल है । केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री ने फिलहाल १२ नदियों को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने का सुझाव दिया है । १३५०० किलोमीटर लंबी ये नदियां भारत के संपूर्ण मैदानी क्षेत्रों में अठखेलियां करती हुई मनुष्य और जीव-जगत के लिए प्रकृति का अनूठा और बहुमूल्य वरदान बनी हुई हैं । २५२८ लाख हेक्टेयर भू-खंड़ों और वन प्रांतरों में प्रवाहित इन नदियों में प्रति व्यक्ति ६९० घनमीटर जल है । कृषि योग्य कुल १४११ लाख हेक्टेयर भूमि में से ५४६ लाख हेक्टेयर भूमि इन्हीं नदियों की बदौलत प्रतिवर्ष सिंचित की जाकर फसलों को लहलहाती है । वैसे `पानी' हमारे संविधान में राज्यों के क्षेत्राधिकार में आता है । परंतु जो नदियों एक से अधिक राज्यों में बहती हैं उन्हें संपत्ति घोषित किए जाने में राज्यों को आपत्ति नहीं होनी चाहिए । हालांकि कावेरी जल विवाद पिछले १७ साल से उलझन में है । चंबल सिंचाई हेतु जल को लेकर भी राजस्थान और मध्यप्रदेश में हर साल विवाद छिड़ता है । वहीं महानदी और ब्रह्मपुत्र अंतर्राष्ट्रीय विवाद का कारण भी बनती हैं । इन विवादों का राष्ट्रीय स्तर पर निपटारा गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, चंबल, सिंधु, महानदी, ब्रह्मपुत्र, ताप्ती, दामोदर, सतलज, झेलम और साबरमती नदियों को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर किया जा सकता है । दरअसल हमारे देश में बड़ी और राष्ट्रीय मुश्किल यह है कि सरकारी क्षेत्र में जल, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी समस्याएं न तो राष्ट्रीयता को बोध कराने वाली प्राथमिक सूची में है । ***

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