मंगलवार, 15 सितंबर 2015

विशेष लेख 
मालवा क्षेत्र मेंरतनजोत की खेती एवं इंर्धन पार्क
उमेश सिंह 
रक्षा जैव ऊर्जा अनुसंधान संस्थान हल्द्वानी (उत्तराखंड) द्वारा डी.आर.डी.ओ. आर्मी बायोडीजल प्रोग्राम के अन्तर्गत सैन्य फार्म महू (मध्यप्रदेश) के १०० हेक्टेयर भूमि में अप्रेल २००७ से एक परियोजना स्थल प्रारंभ किया गया जिसका एक उद्देश्य जट्रोफा की खेतीं कर जैव ईधन पार्क बनाना भी था । 
जट्रोफा पौधरोपण सैन्य फार्म, महू के हरसोला प्रक्षेत्र पर ६० एवं ४० हेक्टेयर के दो भूखण्ड में किया गया है जो महू-सिमरोल सड़क के उतर तथा दक्षिण मेंक्रमश: स्थित है । 
मालवा क्षेत्र में सैन्य फार्म की इस १०० हेक्टेयर की वीरान एवं बंजर भूमि में आज जट्रोफा के पौधे मानसून आते ही हरे-भरे होकर लह-लहा उठते हैंजिनकी संख्या एक लाख से अधिक है । मानसून ऋतु में इस हरे-भरे जैव ईधन पार्क का मनोरम दृश्य देखते ही बनता है । एक ही स्थान पर इतने जट्रोफा पौधों के साथ इतने बड़े क्षेत्रफल में जट्रोफा के अतिरिक्त ५०० करंज के पेड़ भी लगाए गए हैं । करंज के बीज का तेल भी बायोडीजल के लिए उपयुक्त है । 
विदेश से आयातित व इस संस्थान द्वारा प्रविष्टकैमेलिना सेटाइवा (साईबेरियाई सरसों) को जट्रोफा के साथ अंतरफसल के रूप में उगाने पर भी प्रयोग हुआ है । इसका भी तेल अखाद्य श्रेणी में आता है तथा बायोडीजल के लिए उपयुक्त है । जट्रोफा की खेती को लाभकारी बनाने के लिए कई अन्य फसलों की अंतरफसल के रूप में उपयुक्तता का परीक्षण करने हेतु भी प्रयोग किये हैं जिनमें अल्प अवधि वाली अरहर प्रजाति अच्छी उपज के साथ लाभकारी सिद्ध हुई है । अंतरफसल ३-५ वर्ष की अवधि तक ली जा सकती है । 
जट्रोफा (रतनजोत) को जंगली अरंड, व्याघ्र अरंड, रतनजोत, चन्द्रजोत, जमालगोटा आदि नाम से भी जाना जाता है । इसका वानस्पतिक नाम जट्रोफा करकस    है । 
जट्रोफा आमतौर परविश्व के कटिबंधीय तथा उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाता है । इसके प्राकृतिक स्त्रोतोंमें दक्षिणी अमेरिका, मेक्सिको, अफ्रीका, म्यानमार, श्रीलंका, पाकिस्तान तथा भारत प्रमुख हैं । जट्रोफा (रतनजोत) एक बहुवर्षीय छोटे आकार एवं चौड़ी पत्तियों वाला झाड़ीनुमा वृक्ष है । यह ३-५ मीटर लंबा पतझड़ी, नरम छाल युक्त वतेजी से बढ़ने की प्रकृति वाला पौधा है । 
जट्रोफा का अखाद्य तेल डीजल की तरह भौतिक एवं रासायनिक विशेषतायें रखने के कारण एक विश्वसनीय एवं व्यापारिक सहज डीजल का विकल्प होने की क्षमता रखता है । इसे डीजल में ५-२० प्रतिशत तक मिलाकर इंजन की बनावट में बिना कोई परिवर्तन किए प्रयोग किया जा सकता है । 
सामान्यतय जट्रोफा की खेती की संस्तुति बंजर भूमि, जो फसलों की खेती के लिए सर्वथा उपयुक्त न हो, में करने के लिए की जाती है । इसकी खेती सभी प्रकार की भूमियों, जिसमें कम से कम दो फीट गहरी मिट्टी हो, पर आसानी से की जा सकती है । इसे शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है । जिन क्षेत्रों में औसतन वार्षिक वर्षा ६००-७०० मि.मी. तक होती है, वहाँ भी इसकी खेती की जा सकती है । 
जट्रोफा का प्रवर्धन मुख्यत: बीजों द्वारा होता है । इसके अलावा जट्रोफा का प्रवर्धन वानस्पतिक विधि द्वारा भी होता है । जट्रोफा के बीजों के ऊपर का छिलका बहुत कठोर होता है जिसके कारण अंकुरण में काफी देरी तथा कमी आ जाती है । इस समस्या से बचने के लिए इसके बीजों को पूरी रात पानी में भिगोकर रखा जाता है । बीजों को बोने से पहले बारह घंटे गोबर के घोल में रखने तथा अगले बारह घंटे तक गीले बीजों को बोरे में रखने से अंकुरण शीघ्र व अधिक होता है । 
पॉलिथीन की थैलियों में मिट्टी, कम्पोस्ट खाद तथा बालू की मात्रा उपयुक्त अनुपात (२:१:१) में सुनिश्चित कर लें या मृदा क्यारी बना लें । बीज कोइन तैयार थैलियों में  एक से ड़ेढ़ इंच गइराई पर बो देना चाहिए । मृदा क्यारी में बीज की बुवाई पंक्तिबद्ध तरीके से करनी चाहिए । पंक्ति से पंक्ति २० से.मी. व बीज से बीज १० से.मी. की दूरी रखनी चाहिए । जुन-जुलाई माह में रोपाई करने के उद्देश्य से बीजों की बुआई सामान्यत: फरवरी-मार्च के महीनों में कर देनी चाहिए । पॉलिथीन में उगाई गयी नर्सरी के पौधों का रोपण के बाद भी मूसला जड़ बना रहता है जिससे पौधे शीघ्र स्थापित हो जाते हैं तथा बाद में भी सशक्त व जोरदार दिखते हैं । 
इसके लिए जट्रोफा के पूर्ण विकसित पौधे से १५-२० से.मी. लम्बी तथा ३-४ से.मी. मोटी ऐसी कलमें तैयार करनी चाहिए जिनमें कम से कम २-३ गांठें व आखें उपलब्ध हों । इन कलमों द्वारा फरवरी-अप्रैल में पौधे तैयार किए जाते हैं । इन कलमों को सीधे ही पॉलिथीन या क्यारियों में लगा दिया जाता है । लगभग तीन माह बाद पौधे रोपण के लिए तैयार हो जाते हैं । 
सामान्यतया जट्रोफा की खेती असिंचित क्षेत्रों के लिए ही अनुमोदित की जाती है । रोपण करने की शुरूआती अवस्था में पानी देना बहुत ही आवश्यक होता है । लम्बे दिनों तक बरसात न होने की स्थिति में हल्की सिंचाई करनी चाहिए । शुष्क मौसम (मार्च से मई) में दो-तीन सिंचाइयां आवश्यक रहती हैं । 
कोमल पौधों में जड़-सड़न तथा विगलन रोग मुख्य है, इसके उपाय हेतु केप्टान ५० प्रतिशत के ०.२ प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए । वन वृक्ष घास पद्धति से खेती करने पर मालवा क्षेत्र में चूहों के द्वारा पौधे के ग्रीवा के ऊपर की खाल उतारने की समस्या पायी गयी है जिससे पौधे सूख जाते हैंऔर भारी नुकसान का सामना करना पड़ता है परन्तु ऐसी स्थिति में चूहों का किसी भी तरह से रोकथाम कारगर साबित नहीं हो पाता । घास समाप्त् करने पर ही चूहों की रोकथाम संभव हो पाती हैं । 
अधिक से अधिक शाखायें विकसित करने के लिए हमें समय-समय पर कटाई-छंटाई करनी पड़ती है । पहली बार हमें छंटाई १ फीट की ऊँचाई पर करनी है । इससे काफी संख्या में शाखाएं फूटती हैं । दूसरे वर्ष में दो तिहाई ऊँचाई तक की शाखाएं काटनी हैं और ऊपर की एक तिहाई शाखाएं छोड़ देनी है । पौधों के बढ़ने के अनुसार समय-समय पर छंटाई करते रहने चाहिए । फरवरी मार्च का महीना छंटाई के लिए श्रेष्ठ होता है क्योंकि इस समय पौधे सुपुप्त अवस्था में रहते हैं । कटाई-छंटाई से हम जट्रोफा के पौधों को उचित आकार दे पाते हैं जिससे बीजत उत्पादन में भी बढ़ता है तथा पौधों की ऊंचाई नियंत्रण में रहने से फल तोड़ाई भी आसान हो जाती है । 
सामान्य तौर पर जट्रोफा का पौधा दूसरे या तीसरे वर्ष फलना शुरू कर देता है । अप्रैल-मई तथा जुलाई-अगस्त के महीनों में फूल व फल आते हैं । बरसात के समय होने वाले पुष्पन से ही जट्रोफा की मुख्य फसल प्राप्त् होती है । इसके फल अगस्त, सितम्बर एवं अक्टूबर में पक जाते  हैं । बरसात होते ही पौधे में फूल आना प्रारंभ हो जाता है तथा सितम्बर-अक्टूबर माह में हरे रंग के फल पीले होकर काले पड़ने लगते हैं । जब फल का ऊपरी भाग काला पड़ने लगे, तब उसे तोड़ा जा सकता है । जट्रोफा के सभी फलों के एक साथ नहीं पकने की वजह से इनकी तोड़ाई पर खर्च अधिक लग जाता है । 
पांच-छ: वर्ष बाद उत्तम गहराई की कृष्ण कपासी मृदा में उचित देखभाल करने पर जट्रोफा के पौधों से सिंचित अवस्था में ५००-१००० ग्राम बीज प्रतिपौधा तथा असिंचित अवस्था में २५०-५०० ग्राम बीज प्रति पौधा औसत उपज प्राप्त् हो पाती है । यह उपज मध्यम व कम गहराई वाली मृदा में क्रमश: और भी कम हो जाती है । इस प्रक्षेत्र के अनुभव से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि जट्रोफा के पौधे की उत्पादन क्षमता काफी कम है । सिंचित अथवा असिंचित अवस्था के लिए जट्रोफा की अधिक उपज वाली कोई भी प्रजाति अभी तक रिलीज नहीं हो पायी है । 
यही कारण है कि जट्रोफा की खेती लाभकारी सिद्ध नहीं हो पा रही है । मृदा अच्छी होने पर अंतवर्तीय फसल भी ३-५ वर्ष तक ही ली जा सकती हैं । इसके लिए भी बारिश न होने की स्थिति तथा रबी व ज्यादा ऋतु में सिंचाई की उपलब्धता होनी चाहिए जो कि प्राय: संभव नहीं   रहता । यद्यपि जट्रोफा की खेती करने से बंजर, परती व कम पैदावरी भूमि भी उर्वर बन जाती है । अंतत: यह कहना सर्वथा उचित होगा कि जब तक कोई अधिक उपज वाली प्रजाति विकसित न हो जाए, जट्रोफा की खेती के प्रसार पर जोर नहीं देना चाहिए । इसके बीजों में तेल की मात्रा ३०-३५ प्रतिशत तक होती है । 
जट्रोफा के बीजों को साधारणतया १५-२० रूपये प्रति किलोग्राम (या उससे अधिक जैसा बाजार भाव हो) की दर से बेचा जा सकता है । जैव इंर्धन पार्क को पर्यावरण की दृष्टि से देखें तो कार्बन प्रच्छादन होने से कार्बन साख बढ़ने का लाभ मिलेगा तथा जैव इंर्धन पार्क के पर्यावरण मैत्री होने से प्रदूषण भी कम होगा । अगर सही सोच-विचार के साथ हम प्रयत्न करते रहें तो एक न एक दिन हम सस्ती प्रौघोगिकी विकसित कर जैव इंर्धन उत्पादन को किफायती बना पाने में अवश्य कामयाब होंगे जिससे देश की ऊर्जा सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी तथा पेट्रोलियम पदार्थो का आयात घटने में विदेशी मुद्रा की भी बचत होगी । 
रक्षा जैव ऊर्जा अनुसंधान संस्थान हल्द्वानी (उत्तराखंड) द्वारा रक्षा अनुसंधान तथा विकास संगठन के इस कार्यक्रम के अन्तर्गत दो अन्य परियोजना स्थल सैन्य फार्म अहमदनगर (महा.) एवं सिंकदराबाद (तेलंगाना) की क्रमश: २०० से ५० हेक्टेयर भूमि में भी स्थापित किए गए हैं । डीबेर परियोजना स्थल, सैन्य फार्म, सिकंदराबाद में बायोडीजल बनाने हेतु ट्रांसएस्टेरीफीकेशन प्लांट भी स्थापित किया गया है जहां पर जट्रोफा बीज से तेल निकालकर बायोडीजल बनाया जाता है । 

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