मंगलवार, 15 सितंबर 2015

प्रदेश चर्चा 
हिमाचल प्रदेश : वन अधिकार कानून का मखौल
कुलभूषण उपमन्यु
हिमाचल प्रदेश सरकार वन अधिकार अधिनियम का उल्लंघन कर वनवासियों को जबरन बेदखल कर रही है। ऐसा उच्च् न्यायालय के फैसले की आड़ में किया जा रहा     है । आवश्यकता इस बात की है कि वन अधिकार कानून का अनुपालन उसकी मूल भावना के अनुरूप ही   हो ।
पिछले दिनों में हिमाचल प्रदेश के वन विभाग ने ऊपरी शिमला के रोहडू व अन्य स्थानों में वन भूमि पर लगे सेब के बगीचों, जिसमें सेब की फसल तैयारी थी, को निर्ममता से काट डाला । अप्रैल माह में गोहर में भी एकऐसे बगीचे को काटा गया था, जिसमें फूल लग रहे थे । कांगडा तथा प्रदेश के अन्य हिस्सों में घरों से बिजली व पानी के कनेक्शन काटे गए तथा कुछ घरों को तोड़ दिया  गया । यह घृणित कार्य सरकार के ही एक विभाग ने हिमाचल उच्च् न्यायालय के ६ अप्रैल २०१५ व इससे पहले के आदेशों की आड़ मंे किया । 
इसमें सरकार द्वारा छोटे व गरीब किसानों पर ही गाज गिराई, जबकि बड़े किसानों तथा प्रभावशाली लोगों पर यह कार्यवाही नहीं की   गई । यह मामला उच्च् न्यायालय में वर्ष २००८ से चल रहा है जिस पर इससे पहले भी न्यायालय ने कई आदेश जारी किए थे । दूसरी ओर प्रदेश सरकार ने आज तक इस पर वन अधिकार कानून की बाध्यता संबंधी पक्ष न्यायालय मंे नहीं रखा । ऐसे में केवल आदेश के आधार पर वन विभाग की सक्रियता पर शंक पैदा होता है और सरकार की वन अधिकार कानून को न लागू करने की नियत को भी दर्शाता है ।
सरकार के संज्ञान में यह बात आनी चाहिए थी कि उच्च् न्यायालय का यह फैसला कानून संगत नहीं है क्योंकि वनाधिकार कानून २००६ इसके आड़े आता है। उक्त कानून के प्रावधानों के मुताबिक जब तक वन अधिकारी की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती तब तक आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासी को किसी भी तरह से उनके परंपरागत वन संसाधनों से बेदखल नहीं किया जा सकता । नियमगिरी के फैसले में उच्च्तम न्यायालय ने भी यह प्रस्थापना दी है । सरकार को उच्च् न्यायालय में इस पर दखल व पुनरावलोकन याचिका दायर करनी चाहिए थी । 
गौरतलब है वन अधिकार कानून के तहत मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली राज्यस्तरीय निगरानी समिति ने अगस्त २०१४ में प्रस्ताव पारित करके सरकार से अनुरोध किया था कि इस निर्णय पर उच्च् न्यायालय में पुनरावलोकन याचिका दायर करे परंतु सरकार की ओर से ऐसी कोई भी पहल नहीं हुई । जिसका कब्जा हटाया गया है ऐसा कब्जाधारी वन अधिकारी समिति व ग्रामसभा में अपने दखल को सही व १३ दिसंबर २००५ से पहले का साबित करवा लेता है तो ऐसी स्थिति में कब्जा हटाने, घर तोड़ने व सेब के हरे पेड़ काटने वाले पुलिस व वन विभाग के कर्मचारियोंे के खिलाफ उच्च्तम न्यायालय के हरे पेड़ काटने पर प्रतिबंध निर्देशों, अधिकार व कानून के प्रावधानों तथा वन संरक्षण अधिनियम १९८० के तहत कानूनी कार्यवाही भी हो सकती हैं।
यह मामला पिछली सरकार के वक्त से चल रहा है। ज्यादातर कब्जे २००२ के हैं । उस समय की सरकार ने नाजायज कब्जे बहाल करने के आदेश दिए थे । दूसरी बार भी सत्ता में आने के बावजूद वह अपने इस फैसले को लागू नहीं करा सकी । वन अधिकार कानून को लागू करने पर पिछली सरकार ने भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई । वर्तमान प्रदेश सरकार तो आज भी वनाधिकार कानून २००६ के अनुसान सोचने को तैयार नहीं है । इसलिए सरकार का यह कहना अनुचित है कि हम छोटे किसानों के कब्जे बचाना चाहते हैंऔर उन्हें नौतोड़ दंेगे। उनसे पूछना चाहिए कि किस कानून के तहत कब्जों को बहाल किया जा सकता है व नौतोड़ दी जा सकती है ? आज ऐसा कोई भी कानूनी प्रावधान नहीं है । केवल वन अधिकार कानून तथा भारत सरकार की वर्ष १९९० की  अधिसूचना के तहत ही कब्जों का नियमितीकरण हो सकता है । यह भी तथ्य है कि जब से वन संरक्षण अधिनियम १९८० लागू हुआ है तभी से प्रदेश में नौतोड़ बांटना बंद हुआ है जो आज भी लागू है । 
इसलिए सरकारी बयान असत्य व तथ्यों से परे हैं । वन भूमि खेती के लिए ऐसे में लीज पर भी नहीं दी जा सकती । इस हेतु वन संरक्षण अधिनियम १९८० में संशोधन होना चाहिए परंतु यह संसद में ही पारित हो सकता है जो आज संभव नहीं है । ऐसे में  एक ही रास्ता है कि सरकार वन अधिकार कानून २००६ को ईमानदारी से लागू करे और १३ दिसंबर २००५ तक के उचित कब्जों व वन भूमि पर आजीविका के लिए वन निवासियांें द्वारा किया दखल का अधिकार का पत्र किसानों को दिलवाया जाए । 
वन अधिकार कानून के तहत प्रदेश के किसान, जो आदिवासी हों या गैर आदिवासी, के १३ दिसंबर २००५ से पहले के कब्जे नहीं हटाए जा सकते बल्कि उन्हें इसको अधिकार पत्र का पट्टा मिलेगा बशर्ते वह इस पर खुद काश्त करते हों या उनका रिहायशी मकान हो । प्रदेश के सभी गैरआदिवासी किसान भी    इस कानून के तहत अन्य परंपरागत वन निवासी की परिभाषा में आते   हैं क्याोंकि वे यहां तीन पुश्तों से    रह रहे हैं और आजीविका की जरुरतों के लिए वन भूमि पर निर्भर हंै । 
इसलिए पूरे प्रदेश के तकरीबन सभी किसानों पर यह कानून प्रभावी है । ऐसे में वन भूमि पर दखल को नाजायज कब्जा नहीं कहा जा सकता । यह आजीविका की मूल जरुरतों के लिए किया गया दखल है जिस पर ग्रामसभा निर्णय लेने का अधिकार रखती है । ग्रामसभा ही इसे नाजायज कब्जा या निजी वन संसाधन के अधिकार के रूप मंे मान्यता दे सकती है ।
कब्जा हटाने का यह आदेश किसानों के ही विरुद्ध लिया गया एकतरफा फैसला है । जबकि जल विद्युत परियोजनाओं, निजी उद्योगों ने कई जगह कई बीघा वन भूमि पर नाजायज कब्जा कर रखा है । उस पर न्यायालय व सरकार द्वारा आज तक कोई भी दंडात्मक कार्यवाही नहीं की गई । इसी तरह के हजारों नाजायज कब्जे सरकारी उद्योगों तथा सरकारी प्रतिष्ठानांे ने भी कर रखे हैं। 
हिमाचल सरकार ने उच्च् न्यायालय में उसके आदेश में आंशिक संशोधन के लिए २५ जुलाई २०१५ को आग्रह पत्र दायर किया है और न्यायालय से आग्रह किया कि नाजायज कब्जे से छीनी गई भूमि के पेड़ों को वन विभाग को सौंपा जाए । यह आग्रह ही अपने आप में गैरकानूनी व असंवैधानिक है । क्योंकि वन निवासी का वन भूमि पर दखल अगर १३ दिसंबर २००५ से पहले का है तो उस भूमि पर उसी किसान का कानूनी अधिकार बनता है । उच्च् न्यायालय का इस पर दिया गया २७ जुलाई का फैसला भी अनुचित है और इसे कानून सम्मत नहीं माना जा  सकता । 
सरकार को चाहिए कि हिमाचल उच्च् न्यायालय के इस आदेश के स्थगन हेतु उच्च्तम न्यायालय में याचिका दायर करे । वन अधिकार कानून को पूरे प्रदेश में अक्षरश: लागू करे व वन अधिकार के लंबित पड़े सभी दावों का तुरंत निपटारा किया जाए । इस पर भारत सरकार ने प्रदेश सरकार को १० जून २०१५ को आदेश जारी किया है और कहा है कि छ: माह के अंदर इस कानून को लागू करने की सभी प्रक्रियाएं  पूरी की जाएं । १३ दिसंबर २००५ से पहले के सभी कब्जे/दखल जो खेती व आवासीय घर के लिए दिए गए हैंके अधिकार पत्र के पट्टे प्रदेश के किसानों को सौंपे जाने चाहिए । 
जिन किसानों के विरुद्ध वन व राजस्व विभाग द्वारा नाजायज कब्जे की प्राथमिकी दर्ज की हैंवे सभी गैरकानूनी हैं उन्हें तुरंत वापस किया जाना चाहिए । वन अधिकार कानून संसद में पारित एक विशेष अधिनियम है जिसके तहत जब तक वन अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती तब तक इस तरह की बेदखली की कार्यवाही गैरकानूनी है ।

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