मंगलवार, 15 सितंबर 2015

हमारा भूमण्डल 
जलवायु सम्मेलन की राह में रोड़े
मार्टिन खोर 
इस वर्ष की सबसे बड़ी वैश्विक गतिविधियों में से एक दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र संघ जलवायु सम्मेलन के रूप में पेरिस में होगी । 
उम्मीद है कि इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक नया समझौता संभव हो पाएगा । परंतु इसके पहले अनेक बाधाओं को पार करना आवश्यक है । पेरिस समझौते हेतु इस समय बॉन में बातचीत चल रही है । इस बीच पुराने अनसुलझे मुद्दे पुन: उभर आए हैंऔर विकसित देश (उत्तर) एवं विकासशील देशों (दक्षिण) के बीच तीखे मतभेद भी सामने आ रहे हैं। अब यह अत्यन्त कठिन प्रतीत हो रहा है कि बाकी की बची तीन बैठकों जिसमें पेरिस सम्मेलन भी शामिल है, में ये मुद्दे कैसे सुलझ पाएंगे ? परंतु पेरिस में समझौता होना एक राजनीतिक अनिवार्यता है । अतएव येनकेन प्रकारेण मतभेदों को दूर करना होगा अन्यथा कागजी कार्यवाही भर हो पाएगी ।
एक बेहतर जलवायु समझौते हेतु दो अपेक्षाएं हैं । पहला यह कि इसे पर्यावरण को लेकर दूरंदेशी होना पड़ेगा । मतलब यह कि विश्व को उत्सर्जन में इतनी कमी लानी होगी जिससे कि तापमान औद्योगिक काल के पूर्व तापमान से २ डिग्री सेल्सियस (कुछ के अनुसार १.५ डिग्री) से अधिक नहीं बढ़ना चाहिए । वर्तमान में तापमान ०.८ डिग्री सेंटीगे्रड बढ़ चुका है । चूंकि वैश्विक उत्सर्जन एक वर्ष में करीब ५० अरब टन बढ़ रहा है तो इस उत्सर्जन को वातावरण में सोखने का बचा हुआ ''स्थान'' अगले तीन दशकों में (२ डिग्री सेल्सियस की सीमा से पहले ही) ही भर जाएगा ।
यह भी आवश्यक है कि समझौता उचित एवं न्यायसंगत हो । चूंकि मुख्यतया उत्तर भूतकाल में (ऐतिहासिक तौर पर) हुए उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है और आर्थिक तौर पर भी अधिक उन्नत है, ऐसे में उसे उत्सर्जन में कमी लाने के साथ ही साथ दक्षिण को अधिक धन और तकनीक के हस्तांतरण में भी पहल करनी होगी जिससे कि वह कम कार्बन उत्सर्जन वाली विकास राह पर चल सके । समदृष्टि का यह सिद्धांत वास्तव में संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में सन्निहित है और इसे नए पेरिस समझौते में रखा जाएगा । गौरतलब है इसी सिद्धांत के तहत वर्तमान में बातचीत चल रही है । 
दक्षिण के देश इस बात पर जोर दे रहे हैंकि इस सिद्धांत को नए समझौते के केन्द्र में रखा जाए । वास्तव में यह जरुरी भी है क्योंकि यह सम्मेलन के आधीन आता है। लेकिन उत्तरी देश इसे लेकर अत्यन्त अनिच्छुक हैं । उनका दावा है कि अब दुनिया बदल गई है और सभी देशों (अत्यन्त अल्पविकसित देशों को छोड़कर) के साथ एक ही तरह का बर्ताव किया जाए । इससे उनका तात्पर्य है कि एक ऐसी पद्धति निर्मित की जाए जिससे कि सभी देश वर्तमान या भविष्य में उत्सर्जन घटाने के लिए एक से वायदे करें । इसके अलावा अंतरिम रूप से भी सभी देश अनेक तरीकों से अपने वर्तमान व भविष्य में होने वाले उत्सर्जनों में कमी लाएं और वह ऐसा तब भी करें जबकि उनके द्वारा चाही गई तकनीक व धन उन्हें प्राप्त न हो । 
विकासशील देशों का तर्क है कि इस तरह के बर्ताव का अर्थ है कि उत्तर के देश पिछले सम्मेलन में तय अपने वायदों से मुकर रहे हैंऔर इसके परिणाम स्वरूप वह सम्मेलन के सिद्धांतों और प्रावधानों को न केवल नष्ट कर रहे हैं बल्कि नए सिरे से नियम भी लिख रहे हैं। उनकी चिंता का लक्ष्य है कि सारा बोझ उत्तर की बजाय दक्षिण पर डाल देना चाहिए और वर्तमान में उपलब्ध सस्ती तेल आधारित प्रणाली से हटकर रिन्युबल ऊर्जा और अन्य नई तकनीकों के आधार पर स्वयं को रूपांतरित करना । इस हेतु सामाजिक, आर्थिक व तकनीकी क्रांति की आवश्यकता है जो कि अत्यंत महंगी है ।
क्या यह रवैया विकास लक्ष्यों को प्रभावित करेगा ? इसकी लागत का भुगतान कौन करेगा ? इन तकनीकों को सस्ते में कैसे प्राप्त किया जाए ? पेरिस समझौते के अन्तर्गत यदि उत्तर मदद करने के अपने वायदों पर खरा नहीं उतरता है तो दक्षिण कौन से वायदे करे ? वर्तमान बॉन सत्र में ऐसे मसौदे पर उठापटक चल रही है जिसमें इस तरह के अनेक विचार शामिल हैं। इसके कुछ मुख्य मुद्दे हैं :- 
एक सरीखा या अलग-अलग बर्ताव : उत्सर्जन को समाप्त करने या वित्त उपलब्ध करवाने हेतु सभी देशों पर एक सी बाध्यता हो, (जिसकी पैरवी उत्तर ने की है) या देशों की ऐतिहासिक जिम्मेदारियांे एवं विकास के वर्तमान स्तर (जैसा कि दक्षिण का विचार है) के आधार पर अलग-अलग बाध्यताएं हों । 
न्यूनीकरण, अनुकूलन, हानि एवं क्षति में संतुलन : सामान्यतया उत्तर अधिक न्यूनीकरण संबंधी दायित्व (उत्सर्जन कम करना) से संबंधित समझौते पर एकाग्र है । जबकि दक्षिण अनुकूलन (जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के उपाय) और हानि और क्षति (जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप होने वाली हानि व क्षति जैसे तूफान, अतिवृष्टि, बाढ़, अकाल आदि) को लेकर ज्यादा चिंतित है । वहीं उत्तर विशेष रूप से हानि और क्षति संबंधी चर्चाओं का विरोध कर रहा है ।
वित्तीय व्यवस्था : उत्तर ने वायदा किया था कि वह दक्षिण के लिए सन् २०२० तक प्रतिवर्ष १०० अरब डालर उपलब्ध करवाएगा । परंतु अभी तक इसका बहुत कम उपलब्ध कराया गया है । दक्षिण चाहता है कि वित्तीय दायित्व को लेकर पेरिस समझौते में पक्का वायदा किया जाए और ऐसा नक्शा तैयार किया जाए कि किस तरह अब से लगाकर सन् २०२० तक १०० अरब डालर उन तक पहुंचेंगे । लेकिन उत्तर इसका भी प्रतिरोध कर रहा है । 
तकनीक : दक्षिण चाहता है कि उत्तर उन तकनीकों के हस्तांतरण हेतु ठोस प्रतिबद्धता जताए जिनकी भी न्यूनीकरण एवं अनुकूलन में आवश्यकता है। इसमें धन की कमी और बौद्धिक संपदा से संबंधित ऐसे तमाम रोड़े दूर करना जरुरी है जिसकी वजह से लागत में वृद्धि होती है । जबकि उत्तर चाहता है कि दक्षिण व्यावसायिक आधार पर तकनीक प्राप्त करे । इतना ही नहीं वह समझौते में बौद्धिक संपदा जैसे मुद्दों का उल्लेख ही नहीं करना चाहता ।
राष्ट्रों का योगदान : राष्ट्रों से उम्मीद की जा रही है कि वैश्विक जलवायु कार्यवाही हेतु अपने ''योगदान'' की राशि का आंकड़ा प्रकट करें। उत्तर चाहता है कि विकासशील देश भी अधिकतम न्यूनीकरण दायित्व हेतु अपनी राशि का विवरण प्रस्तुत करें । विकासशील देश इस बात को लेकर विचलित हैं कि उत्तर वित्तीय संसाधनांे हेतु अपनी प्रतिबद्धता जाहिर नहीं कर रहा है । इस बीच अनेक विकासशील देशों द्वारा न्यूनीकरण को लेकर बताई गई प्रतिबद्धताएं भी काफी कम स्तर की प्रतीत हो रही हैं । 
वैधानिक बाध्यता : पेरिस समझौते के परिणाम स्वरूप सामने आने वाला समझौता संलेख  (प्रोटोकाल), अथवा कानूनी तौर पर बाध्य समझौता या एक कानूनी ताकत हो सकता है । अभी भी अंतिम रूप से तय नहीं हुुआ है कि यह देशों पर किस प्रकार से बाध्यकारी होगा और यदि कोई इसका पालन नहीं करेगा तो इसके क्या परिणाम    होंगे ।
विकसित और विकासशील देशों के अनेक मत सामने आ रहे   हैं। लेकिन मुख्य मुद्दा यही है कि उत्तर-दक्षिण की तर्ज पर क्या यह व्यापक मतभेद बने रहेंगे ? क्या पेरिस सम्मेलन से पहले यह खाई भर पाएगी और कोई सेतु बन पाएगा ? हमारी जलवायु और मनुष्यता के भविष्य की नियति काफी कुछ इसी पर निर्भर करती है । 

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