मंगलवार, 27 फ़रवरी 2007

ज्ञान विज्ञान


बड़े मस्तिष्क वाले पक्षी ज्याता जीते हैं

क्या मस्तिष्क का बड़ा होना भी उम्र बढ़ाने में मददगार है? शोधकर्ताओं की मानें तो शरीर के मुकाबले बड़े मस्तिष्क वाले पक्षियों की उम्र अपनी ही प्रजाति के उन पक्षियों से ज्यादा होती है, जिनका मस्तिष्क अपेक्षाकृत छोटा होता है। ऐसे पक्षी न सिर्फ ज्यादा समय तक जिंदा रहते है, बल्कि उनका दिमाग भी अत्यधिक तेज होता है और संभावित खतरों के प्रति वे ज्यादा सचेत रहते हैं।

कुल 220 विभिन्न प्रजाति के पक्षियों पर आधारित शोध में इंग्लैंड की बाथ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने उनके मस्तिष्क, शरीर और उनकी उम्र का गहराई से अध्ययन किया। इस शोध में वैज्ञानिकों ने खासकर धु्रवीय तापमान और तराई वाले क्षेत्रों के पक्षियों को शामिल किया। इसमें उन्हें कई चौंकाने वाले तथ्य पता लगे। उन्होंने पाया कि जिन पक्षियों का मस्तिष्क उनके शरीर के अनुपात में बड़ा है, वे जयादा समय तक जिंदा रहे। जबकि छोटे मस्तिष्क वाले पक्षी असमय ही मौत के शिकार हो गए। वैज्ञानिकों के अनुसार शरीर के अन्य अंगों की तुलना में मस्तिष्क को पूरे शरीर का संचालन करने और उनके समुचित विकास के लिए अधिक ऊर्जा की जरुरत होती है। इसलिए बड़े मस्तिष्क वाले पक्षियों में मेटाबोलिक प्रक्रिया उच्च होती है और यही कारण है कि उनके स्वस्थ रहने का समय भी बढ़ जाता है और इस कारण उनकी उम्र निश्चित रुप से ज्यादा होती है।

संजीवनी बूटी के जीन की खोज में वैज्ञानिक

रावण की सेना द्वारा भगवान राम के अनुज लक्ष्मण पर हुए वार के कारण उन्हें मूर्छित अवस्था से निकालने के लिए संजीवनी बूटी का प्रयोग किया गया था। तभी से संजीवनी को सभी जानते हैं मगर इसकी पहचान करने के लिए वैज्ञानिक इन दिनों काफी मेहनत कर रहे हैं।

वैज्ञानिकों ने इस सिलसिले में अपना विशेष शोध भी प्रारंभ कर दिया है। संजीवनी बूटी की यह विशेषता होती है कि यह सूखने पर भी नहीं मरती और थोड़ी सी ही नमी मिलने पर फिर तरोताजा हो जाती है। संजीवनी बूटी के इन विशेष गुणों के मद्देनजर लखनऊ स्थित वनस्पति अनुसंधान (एनबीआरआई) के वैज्ञानिक आजकल इसके विशिष्ट जीन की पहचान करने में जुटे हैं।

संजीवनी बूटी का वैज्ञानिक नाम सेलाजिनेला ब्राहपटेर्सिस है और इसकी उत्पत्ति लगभग तीस अरब वर्ष पहले कार्बोनिफेरस युग से मानी जाती हैं। एनबीआरआई में संजीवनी बूटी के जीन की पहचान पर कार्य कर रहे पाँच वनस्पति वैज्ञानिको में से एक डॉ. पी.एन. खरे ने बताया कि संजीवनी का सम्बंध पौधों के टेरीडोफिया समूह से है जो पृथ्वी पर पैदा होने वाले संवहनी पौधे थे। उन्होंने बताया कि नमी नहीं मिलने पर संजीवनी मुरझाकर पपड़ी जैसी हो जाती है लेकिन इसके बावजूद यह जीवित रहती है और बाद में थोड़ी सी ही नमी मिलने पर यह फिर खिल जाती है। यह पत्थरों तथा शुष्क सतह पर भी उग सकती है।

उन्होंने कहा कि ऐसे वातावरण में अन्य पौधों के अस्तित्व की कल्पना करना मुश्किल है। इसके इसी गुण के कारण वैज्ञानिक इस बात की गहराई से जाँच कर रहे है कि आखिर संजीवनी में ऐसा कौन सा जीन पाया जाता है जो इसे अन्य पौधों से अलग और विषेष दर्जा प्रदान करता है। हालाँकि वैज्ञानिकों का कहना है कि इसकी असली पहचान भी काफी कठिन है क्योंकि जंगलों में इसके समान ही अनेक ऐसे पौधे और वनस्पतियाँ उगती है जिनसे आसानी से धोखा खाया जा सकता है। मगर कहा जाता है कि चार इंच के आकार वाली संजीवनी लम्बाई में बढ़ने के बजाए सतह पर फैलती है।

यह उत्तरप्रदेश उत्तराखंड और उड़ीसा समेत भारत के लगभग सभी राज्यों में पाई जाती है। डॉ. खरे ने बताया संजीवनी का पुराणों में भी जिक्र है। आयुर्वेद में इसके औषधीय लाभों के बारे में वर्णन है। यह न सिर्फ पेट के रोगों में बल्कि मानव के कद में वृध्दि में भी लाभदायक होती है। वरिष्ठ वनस्पति वैज्ञानिक ने बताया कि संजीवनी के जीन का पता लग जाने पर हम इसके लम्बे समय तक जीवित रहने के गुण को पहँचाने के लिए अन्य पौधों को इसका इंजेक्शन दे सकेंगे। इसके साथ ही देश के विभिन्न क्षेत्रों में पानी और सिंचाई की सुविधाओं में कमी के मद्देनजर संजीवनी बूटी के जीन की पहचान वरदान साबित हो सकती है। यही कारण है कि वैज्ञानिक आजकल संजीवनी बूटी के विशेष जीन की खोज में लगे हुए हैं।

अल नीनो के कारण से 2007 सबसे गर्म साल होगा

अब एक सच से रुबरु हो जाएँ। 2007 दुनिया के लिए सबसे गर्म साल साबित होगा, इसका मुख्य कारण है अल नीनो।

ब्रिटेन के मौसम विभाग ने यह भविष्यवाणी की है। विशेषज्ञों का कहना है कि प्रशांत महासागर में अल नीनो के असर से गर्मी का मौसम लंबा खिंचेगा और तापमान बढ़ेगा। 1998 में वैश्विक भूतल तापमान जो था, वह इस साल और भी आगे निकल जाएगा। इस बात की 60 प्रश. से ज्यादा आशंका है। ब्रिटेन में 1914 से तापमान का रेकॉर्ड रखा जा रहा है और 2006 में यहाँ का तापमान सबसे ज्यादा होने की चेतावनी दी गई थी, जो सही साबित हुई।

ब्रिटिश हेडली सेंटर में मौसम परिवर्तन शोध विभाग के प्रमुख श्री क्रिस फॉलैंड का कहना है कि ये आकलन प्रमुख रुप से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन और अल नीनो के असर के आधार पर किया गया है। ग्रीनहाउस गैसों के कारण गर्मी बढ़ती है। दक्षिण अमेरिका के तट की ओर से कभी-कभी समुद्र में गर्म पानी का बहाव होने लगता है और ये तेज होने पर गर्मी बढ़ती चली जाती है। इस साल अल नीनो पहने से ही प्रशांत महासागर में पहँच चुका है। वहीं गैसों के उत्सर्जन से ओजोन परत को क्षति पहुँची है, जिससे तापमान बढ़ता जाता है।

ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंजलिया के निदेशक प्रोफेसर फिलजोन्स का कहना है कि ब्रिटेन के तापमान का आकलन करना अभी संभव नहीं है। यह वैश्विक औसत के आधार पर निकाला जा कसता है। फिर भी इस साल यहाँ गर्मी का असर जबर्दस्त रहेगा। हमारे आसपास का समुद्री तापमान काफी गर्म है। यह तापमान 1961 से 1990 की अवधि के तापमान से भी ज्याद है। हर दस साल में 0.2 डिग्री तापमान बढ़ रहा है।

अल नीनों की वजह से दुनिया में अमेरिका के पश्चिमी तट पर बाढ़ आदि का असर और ऑस्ट्रेलिया में सूखे का प्रभाव देखने का मिल सकता हैं। उत्तरी अटलांटिक में यह तूफान ला सकता है तो प्रशांत क्षेत्र में यह हलचल मचा सकता है।

इलेक्ट्रॉनिक कचरे का खतरा

कम्प्यूटरों का उपयोग बढ़ता जा रहा है और इसके साथ-साथ कम्प्यूटरों का कचरा एक चिंता का विषय बनता जा रहा है। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संगठन ग्रीनपीस द्वारा किए गए एक अध्ययन से चिंताजनक परिणाम सामने आए हैं।

ग्रीनपीस ने कुछ चुनिंदा कम्पनियों के कुछ नए लैपटॉप्स खरीदकर उनके पुर्जे अलग-अलग किए। पहले तो इनकी तहकीकात एक्सरे वगैरह के माध्यम से की गई। फिर हरेक पुर्जे में प्रयुक्त रसायनों की जांच गैस क्रोमेटोग्राफी व मास स्पेक्ट्रोमेट्री की मदद से की गई। ये सारे परीक्षण डेनमार्क की यूरोफिन्स प्रयोगशाला में किए गए। परीक्षण में एसर, एपल, डेल, हेवलेट, और सोनी द्वारा निर्मित लैपटॉप्स शामिल किए गए थे। परीक्षण में एक बात यह सामने आई कि कई ब्राण्ड्स में जो लपटरोधी रसायन इस्तेमाल किए गए हैं वे या तो प्रतिबंधित है या अनुमतिशुदा तो है मगर उनकी बहुत अधिक मात्रा का उपयोग किया गया थां जैसे डेका- बी.डी.ई. नामक प्रतिबंधित रसायन का उपयोग एक ब्राण्ड में हुआ था, इसी प्रकार से एक अन्य ब्राण्ड में टी.बी.बी.पी.ए. का इस्तेमाल अधिक मात्रा में होना पाया गया। ये सारे ब्रोमीनयुक्त लपट-रोधी हैं और स्वास्थ्य का पर्यावरण के लिए घातक माने जाते हैं। यदि जलाया जाए तो इनसे एक अन्य पदार्थ डॉयक्सिन बनता है जो हानिकारक है।

ग्रीनपीस की राय है कि आजकल कम्प्यूटर के पूर्जे काफी मात्रा में फेंके जाते है। शायद भारत जैसे देशों की स्थिति इतना खराब नहीं है मगर इलेक्ट्रॉनिक कचरा तो जमा होने ही लगा है। जब ये पुर्जे कचरे में खुले ढेरों या भराव स्थलो पर फेंके जाते है तो इनमें प्रयुक्त रसायन घुल-घुलकर नदी-नालों और भूजल में पहुंच सकते हैं।

इस रिपोर्ट के संदर्भ में कम्पनियों ने जरुर कहा है कि अपनी उत्पादन प्रक्रिया पर गौर करेंगी। दूसरी ओर सिएटल स्थित बेसल संधि एक्शन नेटवर्क ने भी इन नतीजों का गंभीरता से लिया। यह नेटवर्क राष्ट्र संघ की बेसल संधि के तहत विकसित देशों से विकासशील देशों में पटके जाने वाले घातक पदार्थो के नियमन के लिए बना है। एक तथ्य यह भी प्रकाश में आया है कि इन कम्प्यूटरों में प्रयुक्त घातक रसायनों के सुरक्षित विकल्प उपलब्ध हैं और कम्पनियों को उनका उपयोग करना चाहिए। ***

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