विदेश
अजंलि कवत्रा
जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक नुकसान उठाने वाले देशों में बांग्लादेश भी एक है। यह छोटा सा एशियाई देश समुद्र की सतह में वृध्दि, लगातार बाढ़ के आने और नदी द्वारा होने वाले भू-सक्षरण के संकट का सामना कर रहा है।
जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करने वाली अन्तरराष्ट्रीय समिति “इंटरनेशनल पेनल ऑन क्लायमेट चेंज“ ने आशंका व्यक्त की है कि वर्ष 2100 तक यहां की समुद्री सतह 9 से लेकर 95 सेमी तक बढ़ सकती है। यदि समुद्र सतह इस अनुमान के उच्चतम स्तर तक पहुंचती है तो बांग्लादेश की लगभग 18 प्रतिशत भूमि जलमग्न हो जायेगी। बांग्लादेश में लगभग 3.5 करोड़ लोग समुद्र तट पर रहते हैं। जैसे ही सागर अपनी सीमाओं को लांघ कर जमीन को निगलेगा, तो इतनी बड़ी आबादी को देश के भीतरी भागों में शरण लेनी होगी।
किंतु देश के भीतरी भागों पर भी जलवायु परिवत्रन की मार पड़ेगी और वहां बाढ़ और नदी द्वारा होने वाला भू-क्षरण उनके जीवन को अधिक कठिन बना देगा। “इंटरनेशनल पेनल ऑन क्लायमेट चेंज“ के प्रारुप से संकेत मिलता है वर्ष 2030 तक बांग्लादेश को 10 से 15 प्रतिशत अधिक वर्षा का सामना करना होगा। जैसे-जैसे वायुमंडल में तापमान बढ़ेगा वैसे-वैसे गर्मियों के मौसम में भारत और नेपाल में फैले हिमालय की बर्फ भी पिघलेगी और वह नदियों से बहती हुई बांग्लादेश में तबाही मचायेगी।
बांग्लादेश के प्रमुख पर्यावरण शोध संस्थान, सेंटर फॉर एडवांस स्टडीज के कार्यकारी निदेशक डॉ. आतिक रहमान कहते हैं, पिछले कुछ वर्षो में बरसात और बाढ़ की तरीकों एवं चक्र में भी परिवर्तन हुआ है। पहले 20 सालों में एक बार भारी बाढ़ आती थी मगर अब प्रत्येक 5-7 वर्षो में ही देश को भारी बाढ़ का सामना करना पड़ता है।
सन् 1988 और 1998 में साल भर तक देश का कुल दो-तिहाई हिस्सा जलमग्न रहा। सन् 2004 में आई भीषण बाढ़ से 3 करोड़ निवासी या तो बह गये या बेघर हुए।
बाढ़ और भू-क्षरण ने लोगों को अत्यन्त गरीबी में धकेल दिया है। तीस्ता नदी की बाढ़ में जमीन बह जाने के बाद 35 वर्षीया माजेदा बेगम ने अपना पूरा जीवन उत्तरी बांग्लादेश के गांव बालाशिघाट में बिताता था। परंतु लगातार तीन सालों तक प्रतिवर्ष चौड़ी होती नदी के कारण मजबूरन उन्हें वहां भी अपना मकान कुछ पीछे हटकर ही बनाना पड़ा था।
अन्ततः वर्ष 2000 में नदी उनकी सारी जमीन निगल गई और उन्हें गांव पर सवार होकर भागना पड़ा। अब वे सरकार द्वारा निर्मित ऊँचे बाढ़रोधी तटबंध पर रहती है।
गेहूूं और धान उपजाने वाले अपने खेत गंवा देने के बाद अब उनके पास आमदनी का अन्य कोई स्त्रोत नहीं है, इसलिए माजेदा ने मजबूर होकर अपनी नौ साल की बेटी को राजधानी ढाका में नौकरानी का काम करने के लिए भेज दिया। उसका कहना है, हमारे पास अपने पूरे परिवार का पेट भरने के लिए अब कोई भी साधन नहीं बचा है, इसलिए मेरे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था।
सुश्री माजेदा जलवायु परिवर्तन और वायुमंडल तापमान वृध्दि जैसे शब्दों से अपरिचित है। वह आज तक कार में भी नहीं बैठी है। लेकिन उसके जैसे हाशिये पर पड़े लोग ही जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक आघात झेल रहे हैं।
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