मंगलवार, 27 फ़रवरी 2007

सार्वजनिक यातायात में तकनीक और विकल्प

परिवहन


अनुपम मिश्र

कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली यातायात निगम (डीटीसी) ने नमस्कार सेवा प्रारंभ की थी। इसके अंतर्गत चालक व परिचालक द्वारा ग्राहकों का स्वागत नमस्ते द्वारा किया जाना था। बस के आगे रुट इत्यादि किसी भी प्रकार की सूचना प्रदर्शित नहीं की गई थी बल्कि उसके स्थान पर मात्र नमस्कार सेवा लिखा था। बिना यह जाने कि यह बस मुझे कहां ले जाएगी मैं उसमें बैठ गया। हालांकि मैंने चालक व परिचालक का अभिवादन किया परंतु बदले में उन्होंने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। थोड़े समय बाद यह योजना लोप हो गई।

मैंने ऐसी अनेक विचित्र सेवाओं के बारे में पढ़ा है जिनकी घोषणा संवाददाता सम्मेलनों में की जाती है और जिसमें पत्रकारों का विशेष रुप से ध्यान रखा जाता है। एकाएक मेरी पत्नी को याद आया कि कुछ विशेष बसें सिर्फ महिलाओं के लिये चलाई गई थीं जिनकी खिड़कियों पर पर्दे एवं फर्श पर कालीन बिछे हुए थे। पिछले पचास वर्षो में नवीनीकरण के ऐसे अनेकों माध्यम प्रचलित हुए हैं जिनमें स्टील की छड़ें, सीमेंट की छतें, लोहे की छड़ें या अनेको रंगों से पुताई करना शामिल है। इन पर करोड़ों रुपये खर्च तो कर दिये गये हैं, पर उपरोक्त में से किसी से भी किसी प्रकार की कोई अतिरिक्त सुविधा प्राप्त नहीं हो पाई है।

दिल्ली की बसों के सीएनजी में परिवर्तन से अलबत्ता दिल्ली की वायु शुध्दता में जरुर मदद मिली है। परंतु अगर वे बस के अंदर का वातावरण सुधारने की दिशा में एकाग्र होंगे, तो यह भी एक बड़ी सेवा होगी। ऐसे अधिकांश व्यक्ति जो कि महत्वपूर्ण निर्णय लेते हैं वे स्वयं बसों से सफर नहीं करते हैं। विकास की नई भाषा के हिसाब से दिल्ली के सार्वजनिक यातायात के नियामकों में वे भी शामिल हैं जो की पूर्णतः निजी यातायात साधनों का प्रयोग करते हैं।

लोक-कथाओं में हम सुनते थे कि राजा अपने राज्य में घूम कर राज्य की विशिष्ट नीतियों के संबंध में जानकारी प्राप्त करता रहता था। अगर आज के सत्ता के केन्द्र भी ऐसा ही करें तो उन्हें पता चल जाएगा कि उनके द्वारा लिये गये निर्णयों में कहां गलती है। अगर इस बात की सीमा तय है कि किसी वाहन से कितना धुआं निकलेगा, तो यह बात उस अशालीन भाषा (जिसमें तम्बाकू व अन्य नशे शामिल है) पर भी लागू होना चाहिये जिसका इस्तेमाल चालक एवं परिचालक करते हैं। उन्हें बस की सीट पर लगे उस कपड़े के बारे में भी सोचना पड़ेगा जिन्हें कि बस के चलन में आने के बाद से बदला ही नहीं गया है। यहां पर बज रहा संगीत हिंसा से कमतर नहीं होता। अगर यही संगीत इतनी ही तेज आवाज में यदि दिल्ली के वित्तमंत्री का चालक उनकी कार में बजा रहा हो तो क्या वे इसे पसंद करेंगे? तकनीक पर अत्यधिक निर्भरता ही समस्याओं की जड़ है।

मुझे पूरा विश्वास है कि किसी शोधार्थी का यह मूर्खतापूर्ण प्रस्ताव कि नैनो तकनीक से अपनी बसों में सुधार हो सकता है, का भी लोग भी गंभीरता से लेंगे एवं कई संस्थाएं तो इसके लिये वित्तीय सहायता देने को भी तत्पर हो जाएंगी। हमारी सामान्य बुध्दि कहती है कि यदि दिल्ली में स्काय बस, अधिक क्षमता की बसें, मोनो रेल एवं मेट्रों के अतिरिक्त भी तेज चलित यातायात पध्दति भी लागू कर दी जाए तो भी दिल्ली के सार्वजनिक यातायात की तकलीफें समाप्त नहीं होंगी। यह समस्या अपनी प्रकृति में मात्र तकनीकी नहीं है। अगर हम कोई समाधान चाहते हैं तो हमें वर्तमान प्रचलित बस पध्दति को ही ठीक करना होगा।

डी.टी.सी. के योजनाबध्द तरीके से किये गए विनियोग एवं विध्वंस से यह समस्या प्रारंभ हुई है। इसके द्वारा सैकड़ों निजी बसों को अनुमति दे दी गई जो कि कमोवेश छोटे आपरेटरों की थी। दिल्ली की बसों में से दो-तिहाई उन बस मालिकों की हैं जिनके पास की मात्र एक ही बस है। ये सारी निजी बसें पुलिस को हफ्ता देती हैं जिसके बदले में उन्हें प्रत्येक कानूनी एवं नियम तोड़ने से सुरक्षा उपलब्ध कराई जाती है।

राज्य और केन्द्र के गृहमंत्री को अपनी आंख खोलकर यातायात पुलिस के सिपाही को देखना चाहिये कि वह किस प्रकार सड़क पर खड़ा होकर प्रत्येक बस के नम्बर उस सूची से मिला रहा होता है जिसमें कि व्यक्तियों द्वारा दी गई रिश्वत नोंद की हुई होती है।

अब इस बात पर आश्चर्य नहीं करना चाहिये कि शहर की बसों में गति-अवरोधक क्यों नहीं है। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैने कब आखिरी बार परिचालक को सीटी बजाते सुना था। जबकि पूर्व में डीटीसी की बसों में चालक के पड़ोस में एक घंटी होती थी जिसकी डोर पीछे परिचालक के पास तक जाती थी। अब तो यह पुरातत्व की वस्तु हो गई है। अगर बस में खड़े व्यक्तियों की बात करें तो कुछ विशिष्ट ऊंचाई के व्यक्ति ही ऊपर लगी हेण्डल राड़ तक पहुंच पाएंगे।

दिल्ली की बस व्यवस्था को सुधारने हेतु किसी नई कमेटी की आवश्यकता नहीं है। डीटीसी के अध्यक्ष को मुम्बई की बेस्ट बस सर्विस से सीख लेना चाहिये। निजी बस मालिकों को नियमबध्द करने के लिये दिल्ली को नजदीक के उत्तराचंल से परे भी देखने की आवश्यकता नहीं है।

सन् 1970 से गढ़वाल मोटर ऑनर्स यूनियन उन सड़कों पर बस चला रही है, जिनका निर्माण सरकार ने कभी किया था और जो अब इतनी बद्तर स्थिति में है कि स्वयं सरकार उन पर बस चलाने की स्थिति में नहीं है। परंतु इन छोटे बस मालिकों ने बसों के समय और समान शुल्क के साथ ही संगठित चालकों का एक बड़ा समूह तैयार कर लिया है।

यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं है कि इन खतरनाक पहाड़ी सड़कों पर दिल्ली की बनिस्बत बहुत ही कम दुर्घटनाएं होती हैं। जबकि दिल्ली में पूरे देश की सर्वश्रेष्ठ सड़के मौजूद हैं। पर इसके लिये दिल्ली के बस चालकों मात्र पर दोषारोपण करने का कोई अर्थ नहीं है। राजनैतिक आका, हरियाणा जहां स्वयं उन्हीं के दल की सरकार है और उत्तरप्रदेश से बस विवाद सुलझा नहीं पा रहे हैं। कांग्रेस भले ही स्वयं को एक राष्ट्रीय पहचान बताए परंतु कार्य तो वह एक जिला स्तरीय दल की तरह ही करती है। ***

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