आवरण
एस. फैज़ी
वक्त आ गया है कि परमाणु अस्त्रों के अप्रसार संबंधी संधि के प्रावधानों के चुन-चुनकर क्रियांवयन को कारगर चुनौती दी जाए। 1968 में परमाणु अप्रसार संधि की रचना में भाग लेने वाले अधिकांश देशों के दिमाग में लक्ष्य यह था कि अन्ततः दुनिया से परमाणु हथियारों का पूरी तरह खात्मा करना है। परमाणु अप्रसार संधि की भूमिका में और अनुच्छेद 6 में भी स्पष्ट कहा गया है कि इसका लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण के जरिए परमाणु निरस्त्रीकरण का है।
इस संधि में एक निहित यह है कि उन्हीं देशों को परमाणु हथियार रखने की इज़ाजत थी जो 1967 से पूर्व इन्हें हासिल कर चुके थे। हालांकि परमाणु अस्त्रों से लैस देशों ने ऐसा कोई वचन नहीं दिया था कि वे इन हथियारों का इस्तेमाल अन्य देशों के खिलाफ नहीं करेंगे मगर परमाणु शस्त्र विहीन देशों ने इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को उस समय यह सोचकर स्वीकार कर लिया था कि इस संधि के अहम लक्ष्य यानी परमाणु हथियारों के खात्मे पर गंभीरता से अमल किया जाएगा।
औपनिवेशिक जमाने के बाद रची गई यह एकमात्र ऐसी बहुपक्षीय संधि है जिसमें अप्रजातांत्रिक वीटो अधिकार सुरक्षा परिषद में भी मिला हुआ है। अर्थात् परमाणु अप्रसार संधि में किसी संशोधन के मामले में इन देशों को वीटो अधिकार प्राप्त है।
पिछले दशक के अंतिम कुछ वर्षो में परमाणु अप्रसार संधि के अनुच्छेद 6 को क्रियान्वित करने की दिशा में कुछ कूटनीतिक प्रयास हुए हैं। हालांकि कुछ परमाणु राष्ट्रों ने इसका विरोध भी किया है। जब 1995 के समीक्षा सम्मेलन में इस संधि की अवधि को अनिश्चितकाल तक बढ़ाने का प्रस्ताव आया तो विकासशील देशों ने इस आशा में सहमति दे दी कि इससे अनुच्छेद 6 के क्रियांवयन में मदद मिलेगी और हिरोशिमा व नागासाकी की त्रासद पुनरावृत्ति को रोका जा सकेगा।
सन् 1996 में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा था कि परमाणु हथियार का इस्तेमाल या इस्तेमाल करने की धमकी गैर-कानूनी है। न्यायालय ने अप्रसार संधि में शामिल पक्षों से आव्हान किया था कि वे परमाणु अस्त्रों के खात्में का अपना दायित्व पूरा करें। इस पूरी प्रक्रिया को पाश्चात्य कार्पोरेट मीडिया ने तो बिलकुल जगह नहीं दी मगर नागरिक संगठनों ने इसमें अहम भूमिका निभाई।
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के फैसले के बाद राष्ट्र संघ की आम सभा ने 1997 में एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें एक परमाणु अस्त्र संधि तैयार करने का आव्हान किया गया था। 1999 में एक और प्रस्ताव पारित किया गया। यह प्रस्ताव भी जोरदार बहुमत से पारित हुआ था और इसमें राष्ट्रों से आग्रह किया गया था कि वे परमाणु अस्त्र संधि पर विचार विमर्श वर्ष 2000 में शुरु कर दें।
अलबत्ता, बाद के वर्षो में यह जोश व उत्साह क्षीण पड़ता गया। भारत स्वयं भी वैश्विक परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए मुहिम चलाने में अगुवा रहा था मगर उसने भी अपनी इस परंपरा को तिलांजलि दे दी। यह देश के शासक वर्ग में आए सोच के परिवर्तन का द्योतक माना जा सकता है।
वैसे तो परमाणु अप्रसार संधि काफी भेदभावपूर्ण है ही मगर इसके प्रावधानों को भी चुन-चुनकर लागू किया गया जो इस संधि की भावा के विपरीत था। इसके चलते आज दुनिया एक खतरनाक जगह बन गई है। कुछ देशों ने इतने परमाणु हथियार जमा कर रखे हैं कि वे इस दुनिया को दर्जनों बार तबाह कर सकते हैं। ये देश दुनिया के विकाशील देशों को यह उपदेश नहीं दे सकते कि वे अपने परमाणु कार्यक्रमों को छोड़ दें। कई बार तो इन परमाणु कार्यक्रमों का कोई वास्तविक वजूद नहीं होता, बल्कि ये विकसित देशों की कल्पना की उड़ान होते हैं। वैसे यदि विकासशील देशों में ये कार्यक्रम कहीं चल रहे हैं, तो गरीबी में फंसे देशों में एक भौंडा कलंक ही लगते हैं।
बहरहाल, यह दुनिया महाविनाश के इन भयानक हथियारों के खात्में का इंतजार बहुत लंबे समय तक नहीं कर सकती। राष्ट्रों की सरहदों से ऊपर उठकर एक जन आंदोलन ही मुगालतों से घिरे इन राष्ट्रों को परमाणु हथियारों की संधि पर बातचीत के लिए मजबूर कर सकता है।
इसका पहला अनिवार्य कदम यह होगा कि परमाणु हथियारों से लैस राष्ट्र का यह पक्का वचन दें कि वे इन हथियारों का इस्तेमाल उन देशों के खिलाफ नही करेंगे जिनके पास ऐसे हथियार नहीं हैं। गुट निरपेक्ष आंदोलन ने भी यही मांग की थी। ***
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