मशीन में पिसती सभ्यता
भारत डोगरा
आज से करीब तीन शताब्दी पहले जो औद्योगिक क्रान्ति ब्रिटेन में आरंभ हुई थी, उसका एक महत्वपूर्ण आधार यह था कि कपड़े की हाथ से कताई बुनाई के स्थान पर मशीन से कताई-बुनाई की जाए । कताई की मशीन और पावरलूम से ब्रिटेन में पहले के मुकाबले सस्ता कपड़ा बन सका । यही वह समय था, जब ब्रिटेन का दुनिया भर मेंराज फैल रहा था और वहां के व्यापार पर बिटेन का नियंत्रण था और वहां के व्यापार पर बिट्रेन वहां यह कपड़ा सस्ते में बेच सकता था । इससे भारत सहित दुनियाभर में लाखों हाथकरघे पर बुनने वाले बुनकरों का रोजगार उजड़ गया । उनमें से बहुत से बेरोजगारी, तंगहाली व भूख से मर गए । उस समय दूसरो का बाजार छीनने की जिद में ब्रिटेन व यूरोप के अन्य देशों को तो सफलता मिल गई, पर क्या पूरी दुनिया की दृष्टि से यह एक अच्छा बदलाव था ? आज २०० वर्ष गुजर जाने के बाद हमें ठंडे दिमाग से इस बारे में सोचना चाहिए । एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक तथ्य जिस ओर प्राय: घ्यान नहीं दिया गया है, वह यह है कि ब्रिटेन के अपने बुनकरो ने भी कपड़ा उत्पादन के मशीनीकरण का बहुत विरोध किया था । उन्होंने कारखानों पर हमले भी किए और अनेक मशीनों को तोड़ दिया । बाद में बड़ी सख्ती से उनके इस विरोध को दबा देने से पहले यह याद रखना चाहिए कि वे केवल अपनी रोजी रोटी की रक्षा कर रहे थे । हाथकरघा बुनकरों का दृष्टिकोण समझने के लिए यह जानना भी जरूरी है कि औद्यौगिक क्रान्ति के आगमन से पहले इन बुनकरों के जो संगठन थे, उनमें किसी का रोजगार छीनने की संभावना उत्पन्न हो, तो चाहे वह सस्ता उपाय हो पर उसे अच्छा नहीं माना जाता था । यहां तक कि इसके लिए कुछ सजा भी दी जाती थी । परंतुु साम्राज्यवाद के दौर मेंजो ताकतें सामने आइंर्, उनका सोचने का तरीका अलग था और जो पहले बुरा माना जाता था, दंडनीय माना जाता था, वह इस नए दौर की ताकतों का मुनाफा दुनिया भर में बढाने के लिए अच्छा माना जाने लगा । पर यदि इनकी संकीर्ण सोच से हटकर देखा जाए तो हाथ के हुनर के स्थान पर मशीन के आ जाने का ब्रिटेन के पूरे समाज को क्या लाभ हुआ है । यह कहना कठिन है । मशीन द्वारा सस्ते उत्पादन का मुख्य आधार यह था कि उत्पादन प्रक्रिया में तेजी आ जाए जिससे कारीगरों की संख्या में कमी आ सके ।पहले से कहीं अधिक उत्पादन के लिए भी अब पहले से कम कारीगरों की जरूरत थी जो लोग इस प्रक्रिया में इस कार्य से हटे उन्हें मिलों में मजदूर बनने के अवसर प्राप्त् हुए । उस समय मिल मजदूरों की जो चिंताजनक स्थिति थी, वह निश्चय ही कारीगरों की पहले की स्थिति से बदतर थी । इतना ही नही बुनकरों को पहले जो अच्छी गुणवत्ता का कपड़ा अपने हाथ से बनाने का संतोष लुप्त् होता गया क्योंकि बड़े कारखानें का मजदूर तो एक मशीनीकृत प्रक्रिया का छोटा सा हिस्सा मात्र बन कर रह गया है । सवाल उठता है कि अत्यधिक मशीनीकरण होने के बाद औद्यौगिक क्रान्ति के अग्रणी देशों के कारीगर व किसान कहां गए ? जिस तरह यह देश अपने-अपने साम्राज्यवाद की लड़ाइयां लड़ रहा है, उस स्थिति में यह आश्चर्य की बात नहीं थी कि मशीनीकरण ने इस समाजों से जिन लोगों को परंपरागत रोजगार से हटाया, उनमें से सबसे अधिक फौज में गए । अपने-अपने साम्राज्यवादी हितों को आगे बढ़ाने के लिए इन देशों ने अपने सैनिकों व उपनिवेशों के सैनिकोंको अनेक युद्धों में झोका व अंत में पहला विश्वयुद्ध हुआ । इस युद्ध का अंत टकराव का कोई बुनियादी हल निकाले बिना ही हो गया, ,अत: तनाव सुलगते रहे जिसके फलस्वरूप द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ । इसके बाद भी तेज अनियंत्रित मशीनीकरण को एक समस्या के रूप में नहीं समझा गया । इसके फलस्वरूप एक ओर बेरोजगारी स्थाई समस्या बन गई वहीं दूसरी ओर जिन रोजगार की रचना हुई उनमें न तो रचनात्मकता थी व नही वे अधिकांश लोगों को संतोष दे सके । बढ़ते धन के बावजूद बोरियत, अलगाव व अवसाद की समस्याएं बढ़ती रहीं । कृषि मेंमशीनीकरण का सबसे प्रतिकूल असर यह हुआ कि टिकाऊ खेती, मिट्टी के उपजाऊपन व पर्यावरण की रक्षा वाली खेती के लिए जिस मानवीय कौशल, निष्ठा व श्रम की जरूरत थी, उस की कमी ही समस्या बन गई । इन सब कारणों से मशीनीकरण के लाभ के बारे में पुनर्विचार करने की जरूरत तो पहले से महसूस की जा रही थी परंतु जब से ग्रीनहाऊस प्रभाव गैसों के अधिक उर्त्सजन से जलवायु बदलाव का संकट उत्पन्न होने की समझ बनी है तब से इस पर पुनर्विचार और जरूरी हो गया है । इस नई समझ का अर्थ यह है कि औद्यौगिक क्रांति के बाद जो भी मनुष्य की श्रम-शक्ति या पशुआें की उर्जा से होने वाले कार्य का विस्थापन, फॉसिल इंर्धन, कोयला आदि से चलित मशीनीकरण से हुआ, उस सबने धरती की जीवनदायी क्षमता को ही स्थाई क्षति पंहुचाई है । यदि इस नई समझ के आधार पर देखें तो विश्व के करोड़ों हाथकरघा बुनकरों की रोजी-रोटी को नष्ट करना अब अधिक बड़ी भूल मालूम होती है । महात्मा गांधी ने अपने समय में इस बारे में बहुत महत्वपूर्ण चेतावनी दी थी । अत: आज जरूरी है कि तेज, अनियंत्रित मशीनीकरण के बारे में हम नए सिरे से पुनर्विचार करें । ***गोरैया का घरौंदा शेक्सपीयर के हैमलेट व छायावादी कवियित्री महादेवी वर्मा की कविताआें की पात्र रही गोरैया उत्तराखंण्ड से विलुप्त् होती जा रही है । कभी घर-आँगन में चारों ओर चहकने वाली इस चिड़िया की फिक्र अब भारत सरकार को भी सता रही है इस चिड़िया के घरोंदे को फिर से आबाद करने के लिए कई स्वयंसेवी संस्थाआें ने भी सरकार से हाथ मिलाये है । ऐसा ही प्रयास उत्तराखंण्ड की आर्क नामक संस्था ने भी किया है । आर्क यानी एक्शन एंड रिसर्च फॉर कन्जर्वेशन इन हिमालयाज ने विश्व गोरैया दिवस के मौके पर उत्तराखंड में घोसला बनाने का एक कार्यक्रम शुरू किया है इसके तहत लोगों में आकर्षक घोसलों को बाँट कर उनसे इस चिड़िया के रक्षण की अपील की गई है । आर्क में महत्वपुर्ण भूमिका निभाने वाले प्रतीक पंवार बताते है कि दो साल पूर्व जब उन्हे यह कार्यक्रम शुरू करने का खयाल आया तो उन्होंने इसका फील्ड ट्रायल करवायाँ और योजना की संभावित सफलता की जाँच की अपने घोंसलों की बाबत वे कहते है - यह घोंसला मासूम पक्षी गोरैयाके अंडों को शिकारी पक्षियों से बचाना एवं इनकी वंशवृद्धि में सहायता पहुँचाने के उद्देश्य से बनाया गया है साथ ही , इससे पक्षी को निवास के लिए एक सुरक्षित स्थान मिलेगा ।
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