मंगलवार, 14 मई 2013

जनजीवन
सूखा और जन सामान्य
डॉ. लक्ष्मीनारायण मित्तल

    वर्तमान में दुनिया के २०% विकसित देश दुनिया के ८०% संसाधनोंका अदयनीय प्रयोग करते हैं और शेष ८०% अविकसित या विकासशील देश मात्र २०% प्राकृतिक संसाधनों का संचयित प्रयोग करते हैं ।
    प्राचीन भारतीय जीवन शैली प्रकृति के साथ सहअस्तित्व की थी और पाश्चात्य (यूरोपीय) संस्कृति मानव श्रेष्ठ है, इस पर विश्वास करती है और शेष प्रकृति के शोषण को अपना अधिकार मानती है ।  उपनिषदों में कहा गया है - त्याग करते हुए उपभोग करो (त्येन त्यकतेन मुजीथ:) ।
    पर्यावरण शब्द दो शब्दों का युग्म है - परि -चारों और की स्थिति और आवरण का अर्थ है -घेरा यानि प्रकृति में जो भी हमारे चारों और है, वह हमारा पर्यावरण है ।

    दर्शनों में पंच महाभूतों -पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश को तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है, वैदिक परम्परा में इन्हें देवत्व की उपाधि दी गई है । जैन दर्शन ने इन्हें जीवों की उपाधि दी है -यानि मात्र मानव ही नहींे अपितु तथाकथित जड़प्रकृति भी प्राणवान है ।
    जैन दर्शन ने पर्यावरण असन्तुलन का कारण असंयम माना है । महावीर स्वामी ने सत्रह प्रकार के संयमों की बात की है - मुख्यत:इन्हें जीव संयम और अजीव संयम में बाँटा गया है ।
    असंयम पर्यावरण को प्रदूषित करता है स्वयं का भी अहित करता है, इसके लिए संकट, कष्ट और दृ:ख का कारण बनता है और (जड़) प्रकृति को स्थायी या अस्थायी क्षति पहुँचाता है ।
    आज प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुध दोहन, हमारी लोभ की प्रकृति को दर्शाती है । हमनें कृत्रिम आवश्यकताआेंको स्वीकार कर लिया है । उपभोक्तावादी संस्कृति कल की, अपने आने वाली पीढ़ी और दूसरों के कल्याण की बात नहीं सोचती ह्ै । यह सुविधावादी मनोवृति लोभ और विकास के कृत्रिम धारण पर आधारित है ।
    हम किसी भी प्राकृतिक वस्तु के स्वभाव, गुण और धर्म को नहीं बदल सकते । उसके उत्पादन की गति नहींबढ़ा सकते, केवल उसके रूप को बदल सकते हैं । लौह अयस्क या कच्च तेल पृथ्वी के नीचे से अपनी गति से बनेगा, मानव केवल छेड़छाड़ करके उसके रूप को बदल सकता  है । लोहे से मोटर कार बना सकता है । कच्च्े तेल से पेट्रोल बना सकता है । परन्तु कच्च तेल उत्पादन की गति को बदलने की सामर्थ्य मनुष्य मेंनहीं है ।
    पश्चिमी अर्थशास्त्र हमें सिखलाता है कि हमारी आवश्यकताएँ अनन्त हैं और हमारी पूर्ति सीमित    है । असल में यह नितान्त गलत धारणा है । एक तो किसी एक समय हमारी शारीरिक आवश्यकताएँ सीमित है - किसी एक समय हमें न्यूनतम कपड़ों की आवश्यकता है, एक छ: फुट जगह रहने के लिए चाहिये और भोजन भी सीमित । गांधीजी कहते थे कि प्रकृति हमारी आवश्यकताआेंको पूर्ण करने में सक्षम है परन्तु हमारे लालच को पूरा करने में नहीं ।      हाँ हमें भावों के क्षेत्र में असीमता चाहिये । प्रेम घृणा, क्रोध, स्नेह, अनुराग, जुगप्सा, वीरता ये भाव असीमीत हैं परन्तु इनकी पूर्ति मानव मन से होती है जो इस प्रकार के असंख्य भावों से भरी है । उसकी कोई कमी नहीं है ।
    जैन धारणा के अनुसार पर्यावरण के किसी एक तत्व का अंसतुलन हिंसा है । पानी का गैर जरूरी प्रयोग हिंसा है षड् जीव निकायों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु वनस्पति)भी हिंसा न करने के संदर्भ में जैन दर्शन के जो निर्देश है - वे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये सर्वाधिक मूल्यान है ।
    महाराष्ट्र में भयंकर सूखा पड़ा है क्योंकि किसानों को पानी न देकर कोकाकोला बनाने वालों को या कल्लखानों को लाखों गैलन पानी दिया जा रहा है । खेती में भी महाराष्ट्र के प्रमुख राजनीतिज्ञों की शुगर लाबी है इसी से किसान अन्न पैदा न करके गन्ना उत्पादन करना चाहते है । आज महाराष्ट्र में गन्ना सस्ता है, चारा महंगा है । पानी सबसे  महंगा हो गया है । महाराष्ट्र के हजारों ग्रामीण मुम्बई की झोपड़ियों, फुटपाथों पर देह टिकाने लायक जगह की मजबूरी में है । वाटर शेड बनाने में कहते है, महाराष्ट्र अग्रणी राज्य रहा है । वहाँ हर दूसरे साल सूखा पड़ता है, परन्तु सरकार की लापरवाही यह है कि स्टेट वाटर बोर्ड और वाटर अथॉरिटी की कोई बैठक पिछले वर्ष से अभी तक नहींहुई है ।
    अग्नि का असंयम ऊर्जा के क्षेत्रों में कमी ला रहा है । प्राचीन भारतीय मूल्यों में एक वृक्ष या एक पत्थर का जीवन भी उतना ही मूल्यवान है जितना एक मनुष्य  का । मुनि और श्रावक वनों की सुरक्षा करते थे उन्हें काटते न थे । जैन साहित्य में वनस्पति की रक्षा के लिए अनेक निर्देश है । सबसे बढ़कर भारतीय दर्शन और जैन और बौद्ध साहित्य इच्छाआें के संयम की बात करते है । यही पर्यावरणीय संतुलन का आधार होगा । यदि हम पदार्थो के भोग मेंसंयम बरतेगे और प्रकृति का शोषण नहींकरेंगे तो अपनी  आने वाली पीढ़ी के लिए भी पर्याप्त् प्राकृतिक संसाधन छोड़कर जायेंगे । 
    पहले देशाटन पैदल होता  था । आज आदमी दो कदम भी पैदल नहींचलना चाहता है । यातायात का संयम पेट्रोलियम पदार्थो को संरक्षित करेगा ।
    हम असंयमी होकर प्रकृति का लगातार शोषण करेंगे तो धरती की प्राकृति संसाधनों की उपलब्धता की अपनी मर्यादा और सीमा है, यदि इन सीमाआें को ध्यान में रखकर उपयोग के लिये मर्यादा पूर्ण आचरण होगा तभी धरती पर जन्म लेने वाली हमारी भावी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित रह पायेगा ।

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