सामयिक
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून
चिन्मय मिश्र
खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लेकर चल रहा अनावश्यक विवाद यह दर्शाता है कि भर पेट वालों के लिए भूखों के बारे में सोचने का समय नहीं है । ना ही उनकी चिंता है कि देश समानता के आधार पर संचालित हो ।
इक्कीसवीं शताब्दी में पहुंचते न पहुंचते देश के नागरिक एक विचित्र स्थिति में पहुंच गए है । आजादी के ६५ बरस पश्चात्, पहली हरित क्रांति के ४० बरस बीत जाने व हमेंसातवें आसमान का सपना दिखाने वाली नई आर्थिक व उदारवादी नीति के क्रियाशील होने के बीस वर्ष बाद भी हम भोजन के मामले में असुरक्षित क्यों है ? इसलिए खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लागू करने की आंदोलनों की १२ बरस पुरानी मांग, जिस पर सर्वोच्च् न्यायालय सन् २०११ से ही विचार कर रहा है और लगातार निर्देश भी दे रहा है, वह यूपीए-२ के इस पांच सालाना कार्यकाल का फ्लेगशिप कार्यक्रम हो जाता है । ठीक वैसे ही जैसे पिछले कार्यकाल में सूचना का अधिकार कानून और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून था, जिसमें बाद में महात्मा गांधी का नाम जोड़कर हर भारतीय की आत्मा से जुड़ने का प्रयास किया गया ।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून
चिन्मय मिश्र
खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लेकर चल रहा अनावश्यक विवाद यह दर्शाता है कि भर पेट वालों के लिए भूखों के बारे में सोचने का समय नहीं है । ना ही उनकी चिंता है कि देश समानता के आधार पर संचालित हो ।
इक्कीसवीं शताब्दी में पहुंचते न पहुंचते देश के नागरिक एक विचित्र स्थिति में पहुंच गए है । आजादी के ६५ बरस पश्चात्, पहली हरित क्रांति के ४० बरस बीत जाने व हमेंसातवें आसमान का सपना दिखाने वाली नई आर्थिक व उदारवादी नीति के क्रियाशील होने के बीस वर्ष बाद भी हम भोजन के मामले में असुरक्षित क्यों है ? इसलिए खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लागू करने की आंदोलनों की १२ बरस पुरानी मांग, जिस पर सर्वोच्च् न्यायालय सन् २०११ से ही विचार कर रहा है और लगातार निर्देश भी दे रहा है, वह यूपीए-२ के इस पांच सालाना कार्यकाल का फ्लेगशिप कार्यक्रम हो जाता है । ठीक वैसे ही जैसे पिछले कार्यकाल में सूचना का अधिकार कानून और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून था, जिसमें बाद में महात्मा गांधी का नाम जोड़कर हर भारतीय की आत्मा से जुड़ने का प्रयास किया गया ।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम - २०१३ (संशोधित संस्करण केबिनेट द्वारा स्वीकृत) की प्रस्तावना मेंलिखा है, सभी लोग सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकें, इसके लिए उन्हेंउच्च् गुणवत्तायुक्त आहार को किफायती दर पर उपलब्ध कराया जाए, जिससे सभी मनुष्यों को अपने संपूर्ण जीवन चक्र में खाद्य एवं पोषाहार सुरक्षा प्रदान की जा सके । उपरोक्त कथन से किसी भी तरह की असहमति की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती ।
खाद्य सुरक्षा अधिनियम के पीछे रात-दिन अपनी जिंदगी हलाकान कर देने वाला आखिर इतना बिफरा हुआ क्यों है ? इसे जानने के लिए इस प्रस्तावित अधिनियम के कुछ प्रावधानों पर निगाह डालना जरूरी है । सुन्दर प्रस्तावना के बाद अगला अनुच्छेद है, पात्रता । इस कानून में पात्रता की परिभाषा है, प्राथमिकता वाले परिवारों को पांच किलोग्राम अनाज प्रति व्यक्ति प्रति माह की पात्रता होगी और अंत्योदय परिवारों को ३५ किलो अनाज प्रति व्यक्ति-प्रति माह की पात्रता होगी और अंत्योदय परिवार मिलकर (कहा जाए - पात्र परिवार) ग्रामीण आबादी के ७५ प्रतिशत और शहरी आबादी के ५० प्रतिशत के बराबर हो जांएगे ।
इसी अनुच्छेद में यह भी कहा गया है चावल ३ रूपये, गेहूं २ रूपये और मोटा अनाज (कानून में इसे कोअर्स ग्रेन कहा गया है) १ रूपये प्रति किलो की दर से उपलब्ध कराया जाएगा । यहां विशुद्ध रूप से केवल वह भी ५ किलो प्रति व्यक्ति देने की बात कही है । क्या भोजन में किसी और सामग्री जैसे दाल, तेल आदि की आवश्यकता नहीं होती ? वैसे आईसीएमआर (इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च) के अनुसार एक स्वस्थ व्यक्ति को एक माह में १४ किलो अनाज, ८०० ग्राम तेल और डेढ़ किलो दाल की आवश्यकता पड़ती है । यानि प्रतिदिन करीब ४६६ ग्राम । कानून प्रावधान कर रहा है, महज १६६ ग्राम प्रतिदिन । इसके अलावा तेल व दाल नदारद हैं ।
छत्तीसगढ़ के खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर भी एक नजर दौडाएं । इसके अनुसार केवल वे लोग जो आयकर देते हैं, जिनके पास ४ हेक्टेयर सिंचित, ८ हेक्टेयर असिंचित कृषि भूमि है, या जिनके पास १,००० स्क्वे. फीट का पक्का मकान है, केवल वे ही इस कानून की परिधि से बाहर रहेंगे । इतना नहीं यहां अंत्योदय एवं प्राथमिकता वाले परिवारों को १ रूपये प्रतिकिलो के हिसाब से ३५ किलो अनाज, १० रूपये किलो की दर पर २ किलो दाल, ५ रूपये प्रति किलो की दर से २ किलो चना एवं २ किलो नमक मुफ्त मिलेगा । यानि इसकी परिधि में ९० प्रतिशत लोग होंगे ।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून एक केन्द्रीय कानून होगा । इसमें प्रावधान है कि यह पूरे देश में एक सा लागू होगा । वहीं भारत में एक ओर केरलजैसे विकसित राज्य हैं तो दूसरी और बिहार और ओडिशा जैसे पिछडे राज्य । परन्तु इस कानून मेंअधिकतम पात्र परिवारों की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं है । यह अजीब विरोधाभासी प्रवृत्ति दर्शाता है ।
इन दिनों सब्सिडी से (खासकर आम आदमी प्रदत्त) देश के रसातल में जाने की बात जोरशोर से उठाई जा रही है । वर्तमान में सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर ८८,९७७ करोड़ रूपये की सब्सिडी दी जा रही है । यदि सरकारी विधेयक पारिता होता है तो यह १,१२,२०५ करोड़ रूपये हो जाएगी । मजेदार बात यह है कि संसद की स्थायी समिति की अनुशंसा यदि मानी जाए तो सब्सिडी घटाकर ९२,४९९.४० करोड़ पर आ जाती है । वहीं भोजन का अधिकार अभियान की अनुशंसाएं इस सब्सिडी की राशि को १,९७,२८४ करोड़ रूपये से २,४६,६०५ करोड़ रूपये मध्य पहुंचाती है । इतनी बड़ी रकम का जिक्र आते ही हाय-बाप शुरू हो जाती है कि इतना पैसा कहां से आएगा । एक स्तर पर यह बात एकदम वाजिब भी नजर आती है । लेकिन जब हम अपनी नजर पैनी करते है तो पाते है कि गतवर्ष कारपोरेट आयकर, एक्साइज ड्यूटी और कस्टम ड्यूटी में कुल कर छूट करीब ५,२८,१६३ लाख करोड़ रूपये पहुंचती है । वहीं सोना, हीरा व जेवरातों पर दी गई छूट करीब ६१,०३५ करोड़ रूपये बैठती है । यानि तकरीबन ६ लाख करोड़ रूपये प्रतिवर्ष । इसके एक तिहाई मेंभारत की पूरी आबादी कम दा पर भरपेट अनाज खा सकती है ।
एक और विचारणीय तथ्य यह भी है कि आखिर सरकार में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम बनाने की इच्छाशक्ति कैसे निर्मित हो गई । चुनावी राजनीति और खाद्यान्न की राजनीति का सामंजस्य सन् १९९५ में प्रारंभ हो गया था । सबसे पहले समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने कालीहांडी में भूख से हुई मौतों के संबंध में भोजन के अधिकार को मूल अधिकारोंके शामिल करने की बात उठाई थी । बाद में चन्द्रबाबू नायडू का कम्प्यूटीकरण तो उतना कारगर नहीं हुआ, लेकिन कांग्रेस का कम कीमत पर अनाज उपलब्धता का दावा काम कर गया । तमिलनाडु में जयललिता, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह और उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी ने भी इस सस्ते अनाज की उपलब्धता की बात की । अनेक स्थानों पर इस विषय पर सरकारों को दूसरे कार्यकाल का मौका भी मिला ।
इस बीच सर्वोच्च् न्यायालय ने इस मामले को गंभीरता से लिया और एक के बाद एक दिशा निर्देश देना शुरू किए । आईसीडीएस मध्यान्ह भोजन (स्कूलों में) व भोजन संबंधी अन्य सारे कार्यक्रम और योजनाआें के पीछे कमोवेश सर्वोच्च् न्यायालय की सद्इच्छा और निर्देश ही थे । इस बीच कांग्रेस ने अपने २००९ के चुनावी घोषणा पत्र में इसे लागू किए जाने की बात कही । वहीं संभवत: एक तथ्य यह भी है कि सरकार एक कानून बनाकर उसे न्यायालय की निगरानी से बाहर ले आना चाहती है ।
कानून पर तो बहुत सारी बातें हो सकती हैं, लेकिन एक प्रावधान पर गौर करना आवश्यक है । इसके अध्याय ८ में पीडीएस सुधार के मामले में कहा गया है कि केन्द्र व राज्य सरकारें विभिन्न पीडीएस सुधारों को आगे बढ़ाएंगे । इसमें घर-घर अनाज मुहैया कराने, आईसीटी आवेदन व कम्प्यूटरीकरण, पात्र हितग्राहियों की विशिष्ट पहचान के लिए आधार (यूआईडी) के इस्तेमाल, रिकार्ड में पारदर्शिता, उचित मूल्य दुकानों को खोलने में सार्वजनिक संस्थाआें या निकायों को प्राथमिकता देना, उचित मूल्य दुकानों का संचालन महिलाआें को देने, पीडीएस के तहत विविध उपभोक्ता सामग्री मुहैया कराना और कैश ट्रांसफर, फूड कूपन या अन्य योजनाआेंके तहत् अनाज की पात्रता निर्धारित करने वाली योजनाएं शामिल हैं ।
इससे साफ जाहिर होता है कि इस कानून का अंतिम उद्देश्य बहुत चालाकी से नकद हस्तांतरण की ओर बढ़ना है । इसके बाद सभी नागरिक बाजार के भरोसे हो जाएंगे और भारतीय अनाज बाजार बहुराष्ट्रीय व महाकाय राष्ट्रीय कंपनियोंके हवाले हो जाएगा और लाखों करोड़ रूपये का सालाना व्यापार कुछ लोगोंके हाथ में सीमित हो जाएगा । इसका सीधा प्रभाव खेती-किसानी पर भी पड़ेगा । इसकी खास वजह यह है कि सार्वजनिक खरीदी न्यूनतम हो जाएगी और किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य की कोई गांरटी नहीं रहेगी । कृषि को दोबारा सशक्त बनाए बगैर खाद्य सुरक्षा की कल्पना ही शेखचिल्ली के सपने जैसी होगी । इसमेंइसे लेकर कोई वायदा नहीं किया गया है कि कृषि क्षेत्र का उर्द्धार होगा ही ।
कृषि की रासायनिक तत्वोंपर बढ़ती निर्भरता, दालों एवं दलहनों के उत्पादन में लगातार कमी से निपटने की बात भी नहीं की गई है । साथ ही बहिस्कृत एवं जोखिमभरे समूहों के लिए भी इसमें पर्याप्त् प्रावधान नहीं है । कुल मिलाकर यह कानून ऊंट के मुंह मेंजीरा है और कमोवेश एक खानापूर्ति ही है । अगर हम वास्तव में देश से भूख व असहायता को समाप्त् करना चाहते हैं तो आवश्यक है कि देश में रह रहे प्रत्येक नागरिक को सम्मान व समता की दृष्टि से देखा जाए एवं कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना का मखौल उड़ाना बंद किया जाए ।
खाद्य सुरक्षा अधिनियम के पीछे रात-दिन अपनी जिंदगी हलाकान कर देने वाला आखिर इतना बिफरा हुआ क्यों है ? इसे जानने के लिए इस प्रस्तावित अधिनियम के कुछ प्रावधानों पर निगाह डालना जरूरी है । सुन्दर प्रस्तावना के बाद अगला अनुच्छेद है, पात्रता । इस कानून में पात्रता की परिभाषा है, प्राथमिकता वाले परिवारों को पांच किलोग्राम अनाज प्रति व्यक्ति प्रति माह की पात्रता होगी और अंत्योदय परिवारों को ३५ किलो अनाज प्रति व्यक्ति-प्रति माह की पात्रता होगी और अंत्योदय परिवार मिलकर (कहा जाए - पात्र परिवार) ग्रामीण आबादी के ७५ प्रतिशत और शहरी आबादी के ५० प्रतिशत के बराबर हो जांएगे ।
इसी अनुच्छेद में यह भी कहा गया है चावल ३ रूपये, गेहूं २ रूपये और मोटा अनाज (कानून में इसे कोअर्स ग्रेन कहा गया है) १ रूपये प्रति किलो की दर से उपलब्ध कराया जाएगा । यहां विशुद्ध रूप से केवल वह भी ५ किलो प्रति व्यक्ति देने की बात कही है । क्या भोजन में किसी और सामग्री जैसे दाल, तेल आदि की आवश्यकता नहीं होती ? वैसे आईसीएमआर (इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च) के अनुसार एक स्वस्थ व्यक्ति को एक माह में १४ किलो अनाज, ८०० ग्राम तेल और डेढ़ किलो दाल की आवश्यकता पड़ती है । यानि प्रतिदिन करीब ४६६ ग्राम । कानून प्रावधान कर रहा है, महज १६६ ग्राम प्रतिदिन । इसके अलावा तेल व दाल नदारद हैं ।
छत्तीसगढ़ के खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर भी एक नजर दौडाएं । इसके अनुसार केवल वे लोग जो आयकर देते हैं, जिनके पास ४ हेक्टेयर सिंचित, ८ हेक्टेयर असिंचित कृषि भूमि है, या जिनके पास १,००० स्क्वे. फीट का पक्का मकान है, केवल वे ही इस कानून की परिधि से बाहर रहेंगे । इतना नहीं यहां अंत्योदय एवं प्राथमिकता वाले परिवारों को १ रूपये प्रतिकिलो के हिसाब से ३५ किलो अनाज, १० रूपये किलो की दर पर २ किलो दाल, ५ रूपये प्रति किलो की दर से २ किलो चना एवं २ किलो नमक मुफ्त मिलेगा । यानि इसकी परिधि में ९० प्रतिशत लोग होंगे ।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून एक केन्द्रीय कानून होगा । इसमें प्रावधान है कि यह पूरे देश में एक सा लागू होगा । वहीं भारत में एक ओर केरलजैसे विकसित राज्य हैं तो दूसरी और बिहार और ओडिशा जैसे पिछडे राज्य । परन्तु इस कानून मेंअधिकतम पात्र परिवारों की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं है । यह अजीब विरोधाभासी प्रवृत्ति दर्शाता है ।
इन दिनों सब्सिडी से (खासकर आम आदमी प्रदत्त) देश के रसातल में जाने की बात जोरशोर से उठाई जा रही है । वर्तमान में सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर ८८,९७७ करोड़ रूपये की सब्सिडी दी जा रही है । यदि सरकारी विधेयक पारिता होता है तो यह १,१२,२०५ करोड़ रूपये हो जाएगी । मजेदार बात यह है कि संसद की स्थायी समिति की अनुशंसा यदि मानी जाए तो सब्सिडी घटाकर ९२,४९९.४० करोड़ पर आ जाती है । वहीं भोजन का अधिकार अभियान की अनुशंसाएं इस सब्सिडी की राशि को १,९७,२८४ करोड़ रूपये से २,४६,६०५ करोड़ रूपये मध्य पहुंचाती है । इतनी बड़ी रकम का जिक्र आते ही हाय-बाप शुरू हो जाती है कि इतना पैसा कहां से आएगा । एक स्तर पर यह बात एकदम वाजिब भी नजर आती है । लेकिन जब हम अपनी नजर पैनी करते है तो पाते है कि गतवर्ष कारपोरेट आयकर, एक्साइज ड्यूटी और कस्टम ड्यूटी में कुल कर छूट करीब ५,२८,१६३ लाख करोड़ रूपये पहुंचती है । वहीं सोना, हीरा व जेवरातों पर दी गई छूट करीब ६१,०३५ करोड़ रूपये बैठती है । यानि तकरीबन ६ लाख करोड़ रूपये प्रतिवर्ष । इसके एक तिहाई मेंभारत की पूरी आबादी कम दा पर भरपेट अनाज खा सकती है ।
एक और विचारणीय तथ्य यह भी है कि आखिर सरकार में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम बनाने की इच्छाशक्ति कैसे निर्मित हो गई । चुनावी राजनीति और खाद्यान्न की राजनीति का सामंजस्य सन् १९९५ में प्रारंभ हो गया था । सबसे पहले समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने कालीहांडी में भूख से हुई मौतों के संबंध में भोजन के अधिकार को मूल अधिकारोंके शामिल करने की बात उठाई थी । बाद में चन्द्रबाबू नायडू का कम्प्यूटीकरण तो उतना कारगर नहीं हुआ, लेकिन कांग्रेस का कम कीमत पर अनाज उपलब्धता का दावा काम कर गया । तमिलनाडु में जयललिता, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह और उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी ने भी इस सस्ते अनाज की उपलब्धता की बात की । अनेक स्थानों पर इस विषय पर सरकारों को दूसरे कार्यकाल का मौका भी मिला ।
इस बीच सर्वोच्च् न्यायालय ने इस मामले को गंभीरता से लिया और एक के बाद एक दिशा निर्देश देना शुरू किए । आईसीडीएस मध्यान्ह भोजन (स्कूलों में) व भोजन संबंधी अन्य सारे कार्यक्रम और योजनाआें के पीछे कमोवेश सर्वोच्च् न्यायालय की सद्इच्छा और निर्देश ही थे । इस बीच कांग्रेस ने अपने २००९ के चुनावी घोषणा पत्र में इसे लागू किए जाने की बात कही । वहीं संभवत: एक तथ्य यह भी है कि सरकार एक कानून बनाकर उसे न्यायालय की निगरानी से बाहर ले आना चाहती है ।
कानून पर तो बहुत सारी बातें हो सकती हैं, लेकिन एक प्रावधान पर गौर करना आवश्यक है । इसके अध्याय ८ में पीडीएस सुधार के मामले में कहा गया है कि केन्द्र व राज्य सरकारें विभिन्न पीडीएस सुधारों को आगे बढ़ाएंगे । इसमें घर-घर अनाज मुहैया कराने, आईसीटी आवेदन व कम्प्यूटरीकरण, पात्र हितग्राहियों की विशिष्ट पहचान के लिए आधार (यूआईडी) के इस्तेमाल, रिकार्ड में पारदर्शिता, उचित मूल्य दुकानों को खोलने में सार्वजनिक संस्थाआें या निकायों को प्राथमिकता देना, उचित मूल्य दुकानों का संचालन महिलाआें को देने, पीडीएस के तहत विविध उपभोक्ता सामग्री मुहैया कराना और कैश ट्रांसफर, फूड कूपन या अन्य योजनाआेंके तहत् अनाज की पात्रता निर्धारित करने वाली योजनाएं शामिल हैं ।
इससे साफ जाहिर होता है कि इस कानून का अंतिम उद्देश्य बहुत चालाकी से नकद हस्तांतरण की ओर बढ़ना है । इसके बाद सभी नागरिक बाजार के भरोसे हो जाएंगे और भारतीय अनाज बाजार बहुराष्ट्रीय व महाकाय राष्ट्रीय कंपनियोंके हवाले हो जाएगा और लाखों करोड़ रूपये का सालाना व्यापार कुछ लोगोंके हाथ में सीमित हो जाएगा । इसका सीधा प्रभाव खेती-किसानी पर भी पड़ेगा । इसकी खास वजह यह है कि सार्वजनिक खरीदी न्यूनतम हो जाएगी और किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य की कोई गांरटी नहीं रहेगी । कृषि को दोबारा सशक्त बनाए बगैर खाद्य सुरक्षा की कल्पना ही शेखचिल्ली के सपने जैसी होगी । इसमेंइसे लेकर कोई वायदा नहीं किया गया है कि कृषि क्षेत्र का उर्द्धार होगा ही ।
कृषि की रासायनिक तत्वोंपर बढ़ती निर्भरता, दालों एवं दलहनों के उत्पादन में लगातार कमी से निपटने की बात भी नहीं की गई है । साथ ही बहिस्कृत एवं जोखिमभरे समूहों के लिए भी इसमें पर्याप्त् प्रावधान नहीं है । कुल मिलाकर यह कानून ऊंट के मुंह मेंजीरा है और कमोवेश एक खानापूर्ति ही है । अगर हम वास्तव में देश से भूख व असहायता को समाप्त् करना चाहते हैं तो आवश्यक है कि देश में रह रहे प्रत्येक नागरिक को सम्मान व समता की दृष्टि से देखा जाए एवं कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना का मखौल उड़ाना बंद किया जाए ।
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