मंगलवार, 14 मई 2013

कविता
कहाँ रहेगा आदमी ?
श्याम बहादुर नम्र

    यह जमीन सिर्फ आदमी की नहीं, सभी की है,
    इसकी हर एक चीज इस जगत में हर किसी की है ।
        हक है पर्वतों को कि सीना तान कर रहे खड़े,
        हक है हर एक पेड़ को कि वो उगे, पले, बढ़े ।
    मिल के सागरों से वो बने लहर मचल सके,
    बादलों के भेष में गगन तक उछल सके ।
        उड़ के जब भी चाहे पहॅुंच जाए वो पहाड़ पे,
        रूक सके, बरस सके, शहर पे या उजाड़ पे ।
    पंछियों को हक है, जहाँ चाहें वो उड़ रहें,
    चह-चहाएँ, कूक-गाएँ, फड़फड़ाएँ खुश रहें ।
        हर हिरन को हक है, वह उछाल मारता फिरे,
        शेर को भी हक है, वह दहाड़ मारता फिरे
    आदमी को चाहिये कि सबसे हक को जान ले,
    सबके साथ ही वो जी सकेगा, ऐसा मान ले ।
        पर जमी पे बढ़ रहा है, बेतरह से आदमी,
        लड़ रहा है खुद में, हवस की वजह से आदमी ।
    सब को पाँव के तले दबा रहा है आदमी,
    जीव-जन्तु पेड़ सब चबा रहा है आदमी ।
        आदमी के बोझ और हरकतों से ये जमी,
        नष्ट हो गई तो फिर कहाँ रहेगा, आदमी ।।   

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