विज्ञान, हमारे आसपास
पका हुआ खाना खाकर हम हुए बुद्धिमान
डॉ.डी. बालसुब्रमण्यन
मानव मस्तिष्क का विकास तब शुरू हुआ जब हमने भोजन को पकाना शुरू किया जबकि वानर सब कुछ कच्च ही खाते थे ।
प्रोसीडिंग्स ऑफ युएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज के २२ अक्टूबर के अंक में ब्राजील की दो महिला वैज्ञानिकों डॉ. फोनेस्का-एजेवेड़ों और हर्क्युलानो-हूजेल ने दावा किया है कि मनुष्यों के दिमाग का आकार तब बढ़ना शुरू हुआ जब उन्होनें भोजन का पकाकर खाना शुरू किया, जबकि हमारे सबसे करीबी वानर (ग्रेट एप्स) आग का उपयोग करना नहीं जानते थे और सब कुछ कच्चही खाते थे । उन्होनें यह दावा किया है कि मस्तिष्क का इस तरह का बदलाव ही मानव विकास की प्रमुख घटना रहा था । और इसके लिए हम आग के उपयोग के शुक्रगुजार है ।
पका हुआ खाना खाकर हम हुए बुद्धिमान
डॉ.डी. बालसुब्रमण्यन
मानव मस्तिष्क का विकास तब शुरू हुआ जब हमने भोजन को पकाना शुरू किया जबकि वानर सब कुछ कच्च ही खाते थे ।
प्रोसीडिंग्स ऑफ युएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज के २२ अक्टूबर के अंक में ब्राजील की दो महिला वैज्ञानिकों डॉ. फोनेस्का-एजेवेड़ों और हर्क्युलानो-हूजेल ने दावा किया है कि मनुष्यों के दिमाग का आकार तब बढ़ना शुरू हुआ जब उन्होनें भोजन का पकाकर खाना शुरू किया, जबकि हमारे सबसे करीबी वानर (ग्रेट एप्स) आग का उपयोग करना नहीं जानते थे और सब कुछ कच्चही खाते थे । उन्होनें यह दावा किया है कि मस्तिष्क का इस तरह का बदलाव ही मानव विकास की प्रमुख घटना रहा था । और इसके लिए हम आग के उपयोग के शुक्रगुजार है ।
उन्होनें इस तरह का दावा क्यों किया ? हम मनुष्यों का दिमाग शरीर के अनुपात में बड़ा होता है । हमारा मस्तिष्क शरीर अनुपात दूसरे प्रायमेट्स की तुलना में अधिक है । हमारे मस्तिष्क में ८६ अरब तंत्रिकाएं या न्यूरॉन्स हैं जबकि ग्रेट एप्स के पास केवल २८ अरब ही है । यह मानव विकास में एक बड़ा बदलाव रहा है । क्यों और कैसे अचानक यह परिवर्तन आया यह सवाल आज तक एक पहेली ही है । और हमारे मस्तिष्क के कामकाज मेंबहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है । कंकाल पेशियोंऔर लीवर के बाद मस्तिष्क ही है जो सबसे ज्यादा मेटाबॉलिक ऊर्जा का अवशोषण करता है । हालांकि यह शरीर के पूरे भार का केवल २ प्रतिशत है, मगर यह पूरे शरीर की चयापचयी ऊर्जा का २० प्रतिशत अवशोषित करता है । दूसरे प्रायमेट्स में यह सिर्फ ०९ प्रतिशत है । इस तरह के ऊर्जा-खर्ची अंग को चलाने के लिए भोजन यानी कैलारी की बहुत अधिक मात्रा की जरूरत होती है ।
ज्यादा बड़े शरीर को ज्यादा कैलोरी चाहिए और ज्यादा कैलोरी के लिए ज्यादा भोजन चाहिए । इसका मतलब है कि भोजन तलाशने और खाने-पचाने मेंज्यादा समय जाएगा और भोजन में कैलोरी की मात्रा भी काफी होनी चाहिए । शरीर को मिलने वाली कैलोरी की मात्रा भोजन खाने व पचाने मेंलगने वाले समय पर निर्भर करती है । इसका अंदाजा हम इस बात से लगा सकते हैं कि गौरिल्ला को अपना भोजन पाने-खाने के लिए दिन मेंलगभग १० घंटे लगाना होता हैं ।
ऐसा अनुमान लगाया गया है कि ऐसा करते हुए उसके शरीर का वजन १२० किलोग्राम के आसपास हो जाता है । इतने बड़े शरीर को संभालने के लिए चयापचय दर की गणना क्लाइबर पैमाने के आधार पर की जाती है । यह होती है ७० (शरीर का वजन) किलौकैलोरी प्रतिदिन । यानी १२० किलोग्राम के गौरिल्ला को दिन में ७० १२० = ८४०० किलाकैलोरी की जरूरत रोज होगी । चूंकि मस्तिष्क तंत्रिकाआें को बहुत ज्यादा ऊर्जा की आवश्कयता होती है, इसलिए यह गौरिल्ला जैसे कपि के दिमाग के आकार की अधिकतम सीमा को निर्धारित कर देता है । उनका दिमाग तभी और बड़ा हो सकता है जब वे १० घंटे नहीं बल्कि दिन भर खाते रहें ।
इसी मोड़ पर कच्च्े और पके हुए भोजन की बात उभरती है । प्रोसीडिंग्स ऑफ यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज के २९ नवम्बर २०११ के अंक में हार्वड पीबॉडी म्यूजियम के डॉ. रिचर्ड रैंगहैन ने कच्च्े और पके हुए भोजन से मिलने वाली ऊर्जा की गणना की थी ।
श्री रैगंतेन और उनके साथियों ने कच्च्े बनाम पके हुए भोजन का आकलन करने के लिए चूहों के वजन का अध्ययन किया । उन्होंने कुछ चूहोंको कच्च मांस खिलाया और कुछ को पका हुआ मांस । इसी प्रकार से कुछ को कच्च्े शकरकंद खिलाए गए और कुछ को कच्च्े शकरकंद पीसकर खिलाए गए तो कुछ को पके हुए या साबुत या पके हुए पिसे हुए शकरकंद पर रखा गया । उन्होंने पाया कि जिन चूहों को पके हुए मांस या पके हुए शकरकंद पर रखा गया था उनका वजन ज्यादा बढ़ा (और वजन में यह वृद्धि कुल भोजन की मात्रा या उनकी दौड़-भाग से स्वतंत्र थी) । ऐसा लगता है कि पका हुआ भोजन ज्यादा आसानी से पचता है और पकाने की क्रिया में रोगजनक सूक्ष्मजीवों को मारने में भी मदद मिलती है । इसके आधार पर डॉ. रिचर्ड रैंगहैन ने कहा कि भोजन को पकाकर खाना ही हमारे पूर्वजों के फलने-फूलने का कारण रहा होगा ।
करीब २० लाख वर्षोंा से ज्यादा समय तक मनुष्यों ने कच्च्े मांस और कंद-मूल पर गुजारा किया था । जब हमने आग बनाना सीख लिया तब भोजन पकाने की शुरूआत हुई । भोजन को पकाकर खाने से ज्यादा पोषक तत्त्व और ऊर्जा मिलने लगी । डॉ. रैंगहैन ने सन् २०१२ में एक किताब प्रकाशित की थी - कैचिंग फायर: हाऊ कुकिंग मेड अस ह्यूमन (आग पर पकड़: पकाने ने हमें इन्सान कैसे बनाया) । उन्होंने बताया था कि हमारे होमिनिड पूर्वजों ने जब भोजन को पकाकर खाने की शुरूआत की तब से उनकी आहार नली छोटी होती गई और मस्तिष्क का आकार बढ़ने लगा ।
ब्राजील की उक्त शोधकर्ताआें ने इसी बिंदू को आगे बड़ाया है । उनका मत है कि कच्च्े भोजन की अपेक्षा पके हुए भोजन से ज्यादा ऊर्जा मिलती है । अरबोंन्यूरॉन्स को चलाने के लिए प्रतिदिन ६ किलोकैलोरी की आवश्यकता होती है । हमारे रोजमर्रा के सामान्य भोजन से लगभग १८०० किलोकैलोरी मिलती है जिसका २० प्रतिशत या ३६० किलोकैलारी मस्तिष्क के कामकाज में खर्च होती है ।
इन आकड़ों से पता चलता है कि पका हुआ भोजन कितना कीमती है । यदि ७० किलोग्राम वजन के एक इन्सान को कच्च्े भोजन से प्रतिदिन १८०० किलोकैलोरी प्राप्त् करना है । तो उसे १६-१८ घंटे खाना खाने में बिताना होंगे ।
इस प्रकार पका हुआ भोजन खाने की बदौलत शुरूआती होमो इरेक्टस को भोजन की तलाश और उसे खाने में कम समय खर्च करना पड़ता होगा । इसके अलावा दिमाग के बढ़ते आकार के चलते सोचने की क्षमता भी आई होगी । एजेरेडो व हर्क्यूलानो हूजेल ने तर्को के आधार पर यह संभावना जताई है कि मानव विकास के दौरान दिमाग का आकार बढ़ने में पके हुए भोजन का बड़ा सकारात्मक महत्व रहा होगा ।
इस पर्चे पर कई टिप्पणियां और अलोचनाएं आई हैं, जो अपेक्षित भी है । कच्च भोजन (सिर्फ वनस्पति नहीं, फल और मेवे) खाने वाले लोगों ने लिखा है कि वे कच्ची चीजें खाकर स्वस्थ, खुश और दिमागदार रहते हैं । अन्य लोगों ने इस पर प्रश्न उठाया है कि यह कच्च भोजन भी किसी न किसी रूप से प्रोसेस किया जाता है ।
लेकिन यह इस बहस का मुख्य मुद्दा नहीं है । मुख्य मुद्दा तो यह है कि आग के उपयोग और भोजन को पकाकर ज्यादा ऊर्जा और पोषक तत्व मिलते हैं । इससे उस महत्वपूर्ण समय में विकास में कैसे मदद मिली होगी जब कई अन्य कारकों ने भी होमो इरेक्टस के उदय में मदद की होगी और फिर होमो सेपिएन्स अस्तित्व में आया होगा - वही होमो सोपिएन्स जो अपने बड़े दिमाग की बदौलत अतीत में लौटकर यह देखने की क्षमता रखता है कि हमारा दिमाग कैसे बड़ा हुआ ।
ज्यादा बड़े शरीर को ज्यादा कैलोरी चाहिए और ज्यादा कैलोरी के लिए ज्यादा भोजन चाहिए । इसका मतलब है कि भोजन तलाशने और खाने-पचाने मेंज्यादा समय जाएगा और भोजन में कैलोरी की मात्रा भी काफी होनी चाहिए । शरीर को मिलने वाली कैलोरी की मात्रा भोजन खाने व पचाने मेंलगने वाले समय पर निर्भर करती है । इसका अंदाजा हम इस बात से लगा सकते हैं कि गौरिल्ला को अपना भोजन पाने-खाने के लिए दिन मेंलगभग १० घंटे लगाना होता हैं ।
ऐसा अनुमान लगाया गया है कि ऐसा करते हुए उसके शरीर का वजन १२० किलोग्राम के आसपास हो जाता है । इतने बड़े शरीर को संभालने के लिए चयापचय दर की गणना क्लाइबर पैमाने के आधार पर की जाती है । यह होती है ७० (शरीर का वजन) किलौकैलोरी प्रतिदिन । यानी १२० किलोग्राम के गौरिल्ला को दिन में ७० १२० = ८४०० किलाकैलोरी की जरूरत रोज होगी । चूंकि मस्तिष्क तंत्रिकाआें को बहुत ज्यादा ऊर्जा की आवश्कयता होती है, इसलिए यह गौरिल्ला जैसे कपि के दिमाग के आकार की अधिकतम सीमा को निर्धारित कर देता है । उनका दिमाग तभी और बड़ा हो सकता है जब वे १० घंटे नहीं बल्कि दिन भर खाते रहें ।
इसी मोड़ पर कच्च्े और पके हुए भोजन की बात उभरती है । प्रोसीडिंग्स ऑफ यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज के २९ नवम्बर २०११ के अंक में हार्वड पीबॉडी म्यूजियम के डॉ. रिचर्ड रैंगहैन ने कच्च्े और पके हुए भोजन से मिलने वाली ऊर्जा की गणना की थी ।
श्री रैगंतेन और उनके साथियों ने कच्च्े बनाम पके हुए भोजन का आकलन करने के लिए चूहों के वजन का अध्ययन किया । उन्होंने कुछ चूहोंको कच्च मांस खिलाया और कुछ को पका हुआ मांस । इसी प्रकार से कुछ को कच्च्े शकरकंद खिलाए गए और कुछ को कच्च्े शकरकंद पीसकर खिलाए गए तो कुछ को पके हुए या साबुत या पके हुए पिसे हुए शकरकंद पर रखा गया । उन्होंने पाया कि जिन चूहों को पके हुए मांस या पके हुए शकरकंद पर रखा गया था उनका वजन ज्यादा बढ़ा (और वजन में यह वृद्धि कुल भोजन की मात्रा या उनकी दौड़-भाग से स्वतंत्र थी) । ऐसा लगता है कि पका हुआ भोजन ज्यादा आसानी से पचता है और पकाने की क्रिया में रोगजनक सूक्ष्मजीवों को मारने में भी मदद मिलती है । इसके आधार पर डॉ. रिचर्ड रैंगहैन ने कहा कि भोजन को पकाकर खाना ही हमारे पूर्वजों के फलने-फूलने का कारण रहा होगा ।
करीब २० लाख वर्षोंा से ज्यादा समय तक मनुष्यों ने कच्च्े मांस और कंद-मूल पर गुजारा किया था । जब हमने आग बनाना सीख लिया तब भोजन पकाने की शुरूआत हुई । भोजन को पकाकर खाने से ज्यादा पोषक तत्त्व और ऊर्जा मिलने लगी । डॉ. रैंगहैन ने सन् २०१२ में एक किताब प्रकाशित की थी - कैचिंग फायर: हाऊ कुकिंग मेड अस ह्यूमन (आग पर पकड़: पकाने ने हमें इन्सान कैसे बनाया) । उन्होंने बताया था कि हमारे होमिनिड पूर्वजों ने जब भोजन को पकाकर खाने की शुरूआत की तब से उनकी आहार नली छोटी होती गई और मस्तिष्क का आकार बढ़ने लगा ।
ब्राजील की उक्त शोधकर्ताआें ने इसी बिंदू को आगे बड़ाया है । उनका मत है कि कच्च्े भोजन की अपेक्षा पके हुए भोजन से ज्यादा ऊर्जा मिलती है । अरबोंन्यूरॉन्स को चलाने के लिए प्रतिदिन ६ किलोकैलोरी की आवश्यकता होती है । हमारे रोजमर्रा के सामान्य भोजन से लगभग १८०० किलोकैलोरी मिलती है जिसका २० प्रतिशत या ३६० किलोकैलारी मस्तिष्क के कामकाज में खर्च होती है ।
इन आकड़ों से पता चलता है कि पका हुआ भोजन कितना कीमती है । यदि ७० किलोग्राम वजन के एक इन्सान को कच्च्े भोजन से प्रतिदिन १८०० किलोकैलोरी प्राप्त् करना है । तो उसे १६-१८ घंटे खाना खाने में बिताना होंगे ।
इस प्रकार पका हुआ भोजन खाने की बदौलत शुरूआती होमो इरेक्टस को भोजन की तलाश और उसे खाने में कम समय खर्च करना पड़ता होगा । इसके अलावा दिमाग के बढ़ते आकार के चलते सोचने की क्षमता भी आई होगी । एजेरेडो व हर्क्यूलानो हूजेल ने तर्को के आधार पर यह संभावना जताई है कि मानव विकास के दौरान दिमाग का आकार बढ़ने में पके हुए भोजन का बड़ा सकारात्मक महत्व रहा होगा ।
इस पर्चे पर कई टिप्पणियां और अलोचनाएं आई हैं, जो अपेक्षित भी है । कच्च भोजन (सिर्फ वनस्पति नहीं, फल और मेवे) खाने वाले लोगों ने लिखा है कि वे कच्ची चीजें खाकर स्वस्थ, खुश और दिमागदार रहते हैं । अन्य लोगों ने इस पर प्रश्न उठाया है कि यह कच्च भोजन भी किसी न किसी रूप से प्रोसेस किया जाता है ।
लेकिन यह इस बहस का मुख्य मुद्दा नहीं है । मुख्य मुद्दा तो यह है कि आग के उपयोग और भोजन को पकाकर ज्यादा ऊर्जा और पोषक तत्व मिलते हैं । इससे उस महत्वपूर्ण समय में विकास में कैसे मदद मिली होगी जब कई अन्य कारकों ने भी होमो इरेक्टस के उदय में मदद की होगी और फिर होमो सेपिएन्स अस्तित्व में आया होगा - वही होमो सोपिएन्स जो अपने बड़े दिमाग की बदौलत अतीत में लौटकर यह देखने की क्षमता रखता है कि हमारा दिमाग कैसे बड़ा हुआ ।
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