माँ कभी नहीं थकती
भारत डोगरा
यह मत पूछो कि समाज ने तुम्हें क्या दिया बल्कि यह सोचो कि समाज को तुम क्या दे सकते हो । मेथी मां का जीवन इस विचार का सजीव उदाहरण है । उन्होंने गाँव के कल्याण तथा विकास में असाधारण योगदान दिया तथा सूचना का अधिकार, मनरेगा जैसे बड़े सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाई है ।
राजस्थान के जिला अजमेर में किशनगढ़ प्रखंड के अन्तर्गत खेड़ा गाँव में रहने वाली पैंसठ वर्र्षीय दलित महिला मेथी मां जब बहुत छोटी थी तभी उनके माता-पिता का देहांत हो गया । वे प्रवासी मजदूर थे जिनकी चम्बल नदी में डूबने से मृत्यु हो गई थी । माता-पिता की मृत्यु के बाद एक शराबी रिश्तेदार ने मेथी मां को चन्द रूपयों के लिए उम्रदराज व्यक्ति को सौंप दिया । उनका उम्रदराज पति एक दुर्घटना में इतनी बुरी तरह घायल हो गया कि उसके बाद कभी बिस्तर से उठ नहीं सका । मेथी ने इस विपत्ति की घड़ी में लंबे समय तक उसकी हर संभव देखभाल की ।
इन सब परेशानियों के बावजूद, मेथी जब बेयरफुट कॉलेज (समाज कार्य व अनुसंधान केंद्र, तिलोनिया) के कार्यकर्ताआें के संपर्क मेंआइंर् तो वह अपने गांव की सेवा के लिए तैयार थीं । उसने प्रसाविका (प्रसव में सहायिका दाई) का प्रशिक्षण लिया और जल्द ही काम में कुशलता हासिल कर ली । साथ ही उसने धुआँ-रहित चूल्हा बनाना भी सीख लिया और अपने गाँव के रसोईघरों में अनेक धुआँ-रहित चूल्हे स्थापित किए ।
मेथी के गांव में एक शराब का ठेका था जिसकी वजह से गांव की महिलाएं तथा बच्च्े बेहद परेशान थे । मेथी ने महिलाआें को एकजुट करके इस शराब के ठेके खिलाफ ऐसी मुहिम छेड़ी कि इसे गांव से बाहर निकाल कर ही दम लिया ।
गरीब परिवार की एक महिला को गाँव के एक दबंग परिवार ने डायन कहकर बहुत मारा-पीटा था । मेथी मां ने इस इस अन्याय के विरोध में गाँव वालों को एकजुट किया । जल्द ही उस दबंग परिवार ने माफी मांगी और उस गरीब महिला को दोषमुक्त घोषित किया गया । पंचायत चुनावों में दलित महिलाएँ प्राय: उन्हीं क्षेत्रों से विजयी होती थीं जहाँ उनके लिए सीट आरक्षित होती थीं लेकिन मेथी मां को इतना जनसमर्थन प्राप्त् था कि वे अनारक्षित सीट पर जीत सकीं ।
जब सेंटर समाज कार्य एवं अनुसंधान केंद्र ने सूचना का अधिकार (आर.टी.आई.) और नरेगा का महत्व बताया तो मेथी माँ ने बड़ी तत्परता के साथ दिल्ली, जयपुर, ब्यावर और उदयपुर में धरने तथा रैलियों में भाग लिया । मामला चाहे आग लगने पीड़ित अरामपुरा गांव के निवासियों की मदद का हो या फिर कालीडुंगड़िया गांव में हुए हमले में पड़ित व्यक्ति के लिए जयपुर फुट की व्यवस्था करने का, मेथी माँ किसी भी तरह के योगदान देने के लिए स्वयंसेविका के रूप में हमेशा तैयार रहती हैं ।
उन्हें अपनी असाधारण सफलताआें का तनिक भी गुमान नहीं है । वे बड़ी आसानी से कह जाती है - यह सब सेंटर (बेयरफुट कॉलेज) की मदद और मार्गदर्शन से संभव हुआ है । मेथी बाई कहती हैं वास्तव में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हर इंसान दूसरे इंसान के दु:ख को कम करने में अपना योगदान करे ।
८४ वर्षीय गाल्कू मां कई बच्चें की दादी-नानी हैं और अब तो वह परदादी-परनानी भी बन चुकी हैं । लेकिन इन सभी रिश्तों से ऊपरभी इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय छवि है माँ की । करीब तीस साल पहले किशनगढ़ प्रखंड के पानेर गाँव में महिला समूह के संगठन से जुडने के बाद उनके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया । वह खासकर अरूणा रॉय के मार्गदर्शन को याद करके उनके प्रति आभार व्यक्त करती हैं । उनके समूह की महिलाआें ने सेंटर से अपने गांव में एक शिशु देखभाल केंद्र स्थापित करने का निवेदन किया और सबकि राय-सहमति से गाल्कू मां को इस काम की जिम्मेदारी सौंपी गई ।
गाल्कू मां बताती हैं कि उन्हीं दिनों से पूरा संगठन सरकारी पदाधिकारी को किसी काम के लिए रिश्वत देने के सख्त खिलाफ था । संगठन में बार-बार यह सवाल भी उठाया जाता था कि महिलाआें को पुरूषों के मुकाबले कम वेतन-मजदूरी क्योंदी जाती है फिर न्यूनतम मजदूरी पाने के लिए एक लंबा संघर्ष चला जिसमेंपुरूषों ने भी महिलाआें का साथ दिया । लेकिन कई अन्य कार्यकर्ताआें के साथ-साथ उन्हें भी गांव के पुरूषों से रह-रहकर अपमान और कटाक्ष भरे तो कभी उपहास के शब्द सुनने को मिले । लेकिन गाल्कू और उनके साथी इसे नजरअंदाज करते हुए अपने काम में लगे रहे जिसके फलस्वरूप गांव मेंे महिलाआें के स्वास्थ्य तथा लड़कियों की शिक्षा के स्तर में सुधार होने लगा ।
कई अन्य स्थानों पर बलात्कार तथा शोषण की घटनाएं होने पर तो गाल्कू मां उन जगहों पर जाकर विरोध प्रदर्शन में भाग लेती और यथासंभव मदद करती थीं । जयपुर में आयोजित सूचना के अधिकार के एक धरने में वह लगातार ५३ दिनों तक शामिल रहीं । उनसे पूछा गया कि जब वे इन विरोध-प्रदर्शनों में शामिल होती थी तो क्या उन्हें डर नहीं लगता था, तो उन्होनें तपाक से कहा - जो चोरी और डकैती करते हैं, उन्हें डरना चाहिए । जो व्यक्ति न्याय के लिए लड़ता है उसे डरने की कोई जरूरत नहीं होती ।
गाल्कू मां ने वार्ड पंचायत का चुनाव लड़ा तो बड़े आराम से जीत गई । जरूरतमंद महिलाआें तथा बुजुर्गोंा के पेंशन तथा अन्य लाभप्रद योजनाआें के सही-सही लागू होने पर उन्होनें विशेष ध्यान दिया । उन्होंने यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि रोजगार प्रािप्त् में गरीबों को प्राथमिकता मिले और स्वयं नरेगा के कार्यस्थलोंपर जाकर निरीक्षण करतीं और व्याप्त् गड़बड़ियों का पता लगाती थी ।
आज से तीस साल पहले रामकरण जी के द्वारा सेंटर से संयोजित सात दिनों की एक कानून संबंधित प्रशिक्षण कार्यशाला में पिंगुन गांव, दुदु प्रखंड, जिला जयपुर की एक दलित महिला रूकमा मां ने भाग लिया था । तभी से पैंसठ वर्षीय रूकमा सामाजिक बदलाव के लिए महिलाआें को एकजुट करने में लगी हैं । जब गांव में महिला-समूह का निर्माण हो रहा था तो महिलाआें ने उन्हें प्रसाविक (दाई) के प्रशिक्षण के लिए चुना । एक कुशल प्रसाविका होने के नाते कई अन्य महिलाआें से करीबी संपर्क बनाने में उसे सहूलियत हुई ।
रूकमा एक बार न्यूनतम मजदूरी न मिलने के खिलाफ अनशन मेंशामिल होने भीम गई थी । कुछ दिनों तक अनशन के बाद पुलिस बलों ने उसे व उसके साथियों को जबरदस्ती धरना स्थल से हटा दिया । इस घटना के तुरन्त बाद ही वह एक दूसरे बड़े संघर्ष में शामिल हो गई । यह संघर्ष जमीदार के विरोध मेंथा जिसने उस जमीन पर कब्जा कर लिया था जिससे होकर बरसात का पानी तालाब में जाता था । इस जमींदार ने एक ऐसी दीवार खड़ी कर दी थी कि पानी की दिशा बदल गई और पानी तालाब की बजाए जमींदार के खेतों में जाने लगा था । इस वजह से गांववालों पर भारी विपत्ति आ गई । पदाधिकारियों द्वारा कार्यवाही न किए जाने पर उन्होनें महिलाआें को इकट्ठा किया जिसमें परिणामस्वरूप लगभग २५०० औरतें एकजुट हो गई और ५०० औरतें पदाधिकारी से मिलने गई । जब पदाधिकारियों से सहायता का आश्वासन मिला तो औरतों ने वापस गांव आकर पदाधिकारियों की मौजदूगी में बाधा बनी दीवार गिरा दी और बरसात का पानी पुन: तालाब में जाने लगा ।
रूकमा ने राजस्थान की रूपकंवर सती घटना के विरोध में भी बड़े पैमाने पर लोगों को संगठित किया । वह सूचना का अधिकार (आरटीआई) धरने के लिए लगातार ४० दिन ब्यावर में और ५३ दिन जयपुर में मौजूद रहीं । इस प्रकार के अनेक प्रेरणादायी उदाहरण हैं ।
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