वन घायल हैं डरी सी नदियाँ
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
जंगलों को पनपने में सदियाँ लग जाती हैं किन्तु जंगल काटने वाले उसे चंद दिनों में ही काट डालते हैं । जंगल चुपचाप कट जाता है । पहले जंगलों के प्रति आदमी के मन मेंआस्था रहती थी । वह जंगल के बीच जंगली बने रहकर भी जंगल का अमंगल करने की सोचता तक नहींथा । वह सदियों से इस तथ्य को जानता है कि जंगल भी जलचक्र के नियंता हैं । पादप अपने पादो से पानी पीते है और सूर्य ताप उन्हें पनपाता है । जंगलों से आदमी क्या कुछ नहीं पाता है । जंगल ही जल को सहेजते हैं । जंगल ही तो शिव जटारूप होते है जिनमें जल संचय की क्षमता है ।
जंगली परिस्थितियां ही पर्वतों की थाती हैं । छोटे-बड़े पर्वत इन जंगलों को अपने कंधोंपर उठाये रहते हैं। पर्वतों से ही नि:सृत होती हैं नदियाँ । हिमाच्छादित पर्वतों के पेड़ों की जड़ों से बूंद-बूंद रिसता है जल, और यही धारा के रूप में पेड़-पौधों के पद प्रक्षालित करता हुआ प्रवाहित होता है । भारत का किरीट हिमालय वॉटर टावर यूँ ही नही कहलाता है । हिमालय ही तो सदानीरा नदियों का पिता धर्म निभाता है । पर्वतों से फूटतेहुए झरने-जल प्रपात ही तो नदियों का गात (शरीर) बनाते हैं । कल-कल करते झरने गीत प्यार के गाते है । वन घायल हो तो सहम जाते है प्रपात, सरिताएं और सलिलाएं ।
सृष्टि में कोई भी रचना अकारण नहीं है । हर वनस्पति का अपना हरित आधार है । हर वन्य जन्तु का अपना रूप रंग आकार है । हर जीव परितंत्र में अपना योगदान करता है और अभय रहता है । किन्तु जंगलों में मानुषी हस्तक्षेप ने सारे संतुलन को बिगाड़ा है । आदमी ने स्वार्थ में पेड़ों को काट डाला है । जंगल साफ हुए तो मिट गई सभ्यताएं । पर्यावरण में भर गई कल्मषाएं । हमें यह याद रखना होगा कि यदि कहीं एक पेड़ भी कटता है तो सम्पूर्ण परितंत्र आहत होता है और अपना धैर्य खोता है ।
अगर सृष्टि शरीर है तो नदियाँ सरस नाड़ियाँ हैं । जंगल फेफड़े हैं । हरियाला आवरण त्वचा है और पेड़ पौधे रोम हैं । हर अंग का एक दूसरे से तालमेल है । प्रकृति में पंचतत्वों का ही तो खेल है । हर तत्व का भव-भूमि से बंधन है । किसी एक के भी आहत होने पर दूसरा भी रूठता है । नेह बंधन टूटता है । इसी टूटन को हमें रोकना है । वनों को घायल करने वालों को टोकना है ताकि हमारे जल स्त्रोत सूखने न पायें । नदियाँ डरे नहीं वरन् उल्लसित रहें और हम सरसता पायें । आज हमारी प्रकृति को आत्मीय संवेदना की दरकार है । हमें समझना होगा कि प्रकृति की भी एक सम्मुन्नत संसद है, सरकार है । अत: हमें प्रकृतिके प्रति विधायक भाव रखना होगा । नदियों के प्रति संवेदना को उकेरती प्रसिद्ध साहित्यकार अज़हर हाशमी की कविता में कहा गया है :-
वन घायल हैं डरी सी नदियाँ
बैचेनी से भरी सी नदियाँ
लहरें थी जिनकी मुस्काने
कहाँ गई वे परी सी नदियाँ
भारी भरकम उधर है गायब
इधर लुप्त् छरहरी सी नदियाँ
प्राणी जिनसे जल पीते थे
कहाँ गई तश्तरी सी नदियाँ
सभ्य कहे जाने वालों ने
खोटी कर दी खरी सी नदियाँ
जख्मी जंगल पुकारते हैं
मरहम से फिटकरी सी नदियाँ
अब भी कोशिश करें अगर हम
जी उठेंगी मरी सी नदियाँ ।
पर्वत शिवम् हैं तो नदियाँ पूर्णा हैं । और सरसता को पाकर ही धरती अन्नपूर्णा है । पर्वतों से नि:सृत नदियों में नित नूतन जल गतिमान रहता है जो दौड़कर सागर तक जाता है । नदियों का पथ रेख बनाता है । इठलाती -बलखाती नदियॉ ही तो जल-परमीता हैं । नदियाँ ही रामायण हैं और नदियाँ ही तो गीता है । नदियाँ संस्कृति प्रणीता हैं । नदी सरीखे व्रल द्रव्य का भाव त्रिवेणी बहती है । किन्तु इनकी दुर्दशा आज यहाँ कुछ कहती है । जंगलों के अमंगल के कारण ही नदियाँ अनमनी होकर बह रही है । जहरीले प्रदूषण के रूप में पाप हमारा सह रही है । प्रदूषण से नदियाँ ही नहीं समुद्र भी आहत हैं । धरती में भी कहीं नहीं राहत है । हर बादल, पर्जन्य (जल पूर्ण) नहीं होता है । कहीं अतिवृष्टि कहीं अनावृष्टि के रूप में कहर बरपाता है । जंगल भी वर्षा के विरह गीत गाता है । अब तो नदियों के तट भी सूने ही रह जाते हैं । थके हुए परिंदे-पंछी भी तरू छाँव नहीं पाते हैं । हमें जंगलों को मुदमंगलकारी बनाना ही होगा । मरूस्थलों में फिर से हमें अरण्य सजाना ही होगा ।
हिमालय वनों का सरंक्षक है । और वन जल के संरक्षक है वन ही मेघोंको आकर्षित करते हैं । ऊँची पर्वत श्रृंखलाआें के शीर्ष ही हिमवान हैं जहाँ हिम नदियाँ (ग्लेशियर) हैं । यही हिमनद ही तो नदियों के पोषक हैं । आज हिमालय तेजी से क्षर रहा है क्योंकि अस्थिर पर्वतों पर बड़े-बड़े बाँध बनाने से जहाँ नदियों का दम घुटा हे, वही पहाड़ों के ऊपर बोझ बढ़ा है । हमें हिमालय के क्षरण को रोकना होगा । परिक्षेत्र के राज्यों जम्मू कश्मीर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड के जनमानस को हिमालय नीति अभियान से जोड़ना होगा । बेहतर होगा कि समन्वय प्राधिकरण गठित किया जाये । पहाड़ों पर जल संरक्षण वन रोपण की समवेत नीति बनाई जाये ताकि पहाड़ों का जज्बा और नदियों का प्रवाह बना रह सके औरहिमालय हिमवान रहे ।
यूँ तो हम चिंता कर रहे हैं कि ग्लोबल वॉर्मिग तथा हरित गृह प्रभाव के कारण हिमालय हिम से रीत न जाये किन्तु मीडिया द्वारा आंकड़ों के सब्जबाग दिखलाए जा रहे है । यह विरोधाभाष क्यों । आंकड़ों के अनुसार वर्ष १९९७ से वर्ष २००७ तक सघन वनों का क्षेत्रफल ३३.१ लाख हेक्टेयर बढ़ा है । जानकारों के अनुसार यह मामूली बात नहीं है । यानि पिछले दस वर्षो में देश के वन क्षेत्र प्रतिवर्ष तीन लाख हेक्टेयर की दर से बढ़े है । ध्यान देने योग्य यह भी है कि इस समयावधि में ब्राजील और इंडोनेशिया जैसे देशों में प्रतिवर्ष २५ मिलियन हेक्टेयर जंगल काटे गए है । हमारी सरकार बढ़ी हुई हरियाली को जन जागरूकता का परिणाम बतला कर अपनी पीठ थपथपा रही है । किन्तु दूसरी और वन की परिभाषा को ही बता नहीं पा रही है । अत: आंकड़ों की बाजीगरी छोड़कर सही वन नीति एवं जल नीति के प्रति गंभीर होना चाहिए ।
केन्द्र सरकार ने गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित करके उसके रखरखाव के लिए प्राधिकरण का गठन किया है । आशा है गंगा प्रवाह पथ पुन: स्वच्छ हो सकेगा । प्राधिकरण को कार्य करने में कहीं अड़चनों का सामना भी करना पड़ेगा क्योंकि अनेक पक्षकार होगें अनेक विचार होंगे किन्तु विभिन्न मंत्रालयों को तालमेल से काम करना होगा । राष्ट्रीय नदी घोषित करने का उद्देश्य मूलतत्व तथा कार्यक्रम को विस्तार देना प्रतीक्षित है । सम्बन्धित राज्यों का उत्तरदायित्व व्यय तथा प्रबंधन की रूपरेखा बननी है ताकि प्राधिकरण सक्षमता के साथ कार्य कर सके । जरूरत है कि कानून के साथ-साथ जन चेतना को भी जाग्रत किया जाये । आस्था एवं विश्वास को बनाये रखा जाए । नदियों के रक्षक जंगल होते हैं । अत: जंगलों की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए क्योंकि जंगल बचेगें तो बहेगी नदियाँ ।
यदि हम चाहते हैं कि हमारी कुदरत-कायनात में जिन्दगानी बनी रहे तो हमें उगाना होगा हरा भरा जंगल अपने अंदर । एक जीवंत एहसास के साथ ताकि बहती रहे सरस भाव धारा हमारे अर्न्तमन में । मन में विचार और विचार से संकल्प बनेगा । तभी हम अपने वन और नदियों की रक्षा कर सकेंगे । जब तक जंगल है तभी तक है प्राणवायु, जिससे हम सप्राण है । जन-जन तक यह संदेश भी पहुंचा सकेगे कि जल ही जीवन है और जीवन क्या है, जीव और वन का मिला जुला रूप इसलिये इनकी सुरक्षा जरूरी है ।
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