परम्परा, ज्ञान और धरोहर का व्यापार
विश्वभर में जैव विविधता को व्यापार बनाकर उसके माध्यम से अधिकाधिक आर्थिक दोहन का चलन हमारी सभ्यता को संकट में डाल रहा है । घटते वन और बढ़ता प्रदूषण हमारे सामने एक तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें कि विनाश के अलावा और कुछ दिखाई नहींदे रहा है । आवश्यकता है जैव विविधता की महत्ता को समझा जाए और इसे बचाने के प्रयासो को सम्मेलनों से बाहर निकालकर आम जनता के बीच लाया जाए ।
परम्परागत ज्ञान और सांस्कृतिक धरोहर से सरोकार सखने वाली हमारी प्राकृतिक सम्पदा उपभोक्ता संस्कृति के बाजार मेंअब मूल्यवान हो गई है । जैव विविधता की दृष्टि से सम्पन्न भारत के उन क्षेत्र में घुसपैठ हो चुकी है, जहां दुर्लभ जड़ीबूटियां और मूल्यवान जीवाश्म मौजूद हैं । भौगोलिक विभिन्नताआें से परिपूर्ण हर इलाके में पेड़-पौधों के साथ वन्य पशुपक्षियों का बसेरा अब छिनता जा रहा है । दुर्भाग्य है कि जैव विविधता की कीमत जो समझते है, उसी समुदाय के कुछ लोग इसे बेचने में लगे हैं । भौतिक विकास की लिप्सा में प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग हो रहा है लेकिन जैव विविधता को संजोने का प्रयास आज भी शैशवावस्था में है ।
वैज्ञानिकों को पृथ्वी पर १६ लाख जीव जंतुआें की प्रजातियों की जानकारी है, जिसकी संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है । मगर इसके ठीक विपरीत हजारों प्रजातियां विलुप्त् होती जा रही है । पशु-पक्षी या किसी जंतु की प्रजाति विलुप्त् होने के बाद ही उसकी अहमियत का पता हमें चलता है ।
पृथ्वी के आनुवांशिक संसाधन साझा विरासत हैं, जिन्हें सम्पूर्ण मानव जाति के द्वारा उपयोग में लाया जाना चाहिए । जैव प्रौद्योगिकी उत्पादों के इन महत्वपूर्ण स्त्रोतों से भारी भरकम व्यापारिक लाभ हैं । विकसित राष्ट्र जैव विविधता से सम्पन्न राष्ट्रों से इन्हें लेने के लिए अपना दबाव बना रहे हैं । जबकि जैविक संसाधन उस राष्ट्र की सम्पत्ति हैं, जहां पर ये आनुवांशिक मूल रूप से पाए जाते हैं ।
जैव विविधता के संरक्षण का प्रश्न तभी से उठ खड़ा हुआ, जबसे इसके अनुचित दोहन के विरोधी स्वर उठे । जैव विविधता के संरक्षण का अर्थ है, किसी भी राष्ट्र की भौगोलिक सीमाआें में पाए जाने वाले पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की जातियों को विलुप्त् होने से बचाना । इन जातियों के लगभग पांच प्रतिशत को ही मानव खेतों व बागों में बोता है एवं उगाता और पालता है, शेष ९५ प्रतिशत जातियां प्राकृतिक रूप से वन क्षेत्रों, नदी-नालों एवं समुद्री तटों में स्वमेव उगती एवं पलती हैं ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के आव्हान पर ब्राजील के रियो-डि-जेनेरो पृथ्वी शिखर सम्मेलन में उपस्थित राष्ट्रों ने सामूहिक रूप से धरती की जैव विविधता के संरक्षण का निर्णय लिया था । भारत ने भी इस समझौते को स्वीकृति दी है ।
जैव विविधता की दृष्टि से भारत विश्व के समृद्धतम राष्ट्रों में है । भारत की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति होने के कारण पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की जितनी अधिक प्रजातियां यहां पाई जाती हैं, उतनी विश्व के गिने-चुने राष्ट्रों में ही मिलती हैंे । पृथ्वी पर उपलब्ध चार जैव भौगोलिक परिमंडलों में तीन पराध्रुव तटीय, अफ्रीकी तथा इण्डोमलायन के प्रतिनिधि क्षेत्र भारत में पाए जाते हैं । विश्व के किसी भी देश में दो से अधिक परिमंडलों के क्षेत्र नहीं मिलते हैं । यही कारण है कि यूरोप और अमेरिका की तरह भारत में हिरणों की आठ प्रजातियां पाई जाती हैं । विश्व का सबसे दुर्लभ छोटा चूहा हिरण (माउस डियर) भारत में ही पाया जाता है । अफ्रीकी राष्ट्रों की तरह बब्बर शेर और एण्टीलोप की जातियां भी भारत में पाई जाती हैं ।
उल्लेखनीय तथ्य है कि सारे महाद्वीप में हिरणों की प्रजातियां नहीं पाई जाती । मानव जाति के निकटस्थ चार प्राकृतिक संबंधियों में गुरिल्ला, चिम्पैंजी, ओरंग उटान और गिब्बन में अंतिम जाति गिब्बन भारत के अरूणांचल प्रदेश के वनों में पाई जाती है । यह सभी जीव विषुवत रेखा के सदाबहार वनों के हैं । जलवायु की विविधता के साथ-साथ धरातल की विविधता, लम्बा सागरतट एवं अनेक समुद्री द्वीपों के कारण पशुपक्षियों एवं वनस्पतियों की विभिन्न जातियों का विकास भारत में संभव हो सका है ।
हमारे देश में अभी तक पशुपक्षियोंकी ६५ हजार प्रजातियां (मछलियां २ हजार, रेंगने वाले जीव ४२०, जल स्थर चर जीव १५०, पक्षियों की १२०, स्तनपायी पशुआें की २४० तथा शेष कीट पतंगों की जतियां) एवं पुष्पधारी वनस्पतियों की १३ हजार जातियां पहचानी जा चुकी हैं । तीव्रतर औद्योगिक विकास व कुप्रबंधन से जैव विविधता के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है । पशुपक्षियोंकी अनेक प्रजातियां तेजी से विलुप्त् हो रही हैं ।
मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोयायटी के अनुसार लगभग ११८६ पक्षियों की प्रजातियां सम्पूर्ण विश्व में अब समािप्त् की ओर अग्रसर हैं । सोयायटी के अनुसार इनमें से ७८ पक्षियों की प्रजातियां केवल भारत में विलुिप्त् के कगार पर हैं तथा १८२ प्रजातियां आने वाले दस वर्षोंा के भीतर खत्म हो जाएंगी । संस्था के अनुसार प्रजातियों के विलुप्त् होने की दर ६४० करोड़ वर्ष पूर्व डायनासोर के विलुप्त् होने की दर से भी अधिक है । इनमें ९९ प्रतिशत विलुप्त् हो रही प्रजातियां मूलत: मनुष्यजन्य कारकों के कारण हैं, जिसमें शिकार, आधुनिक कृषि व औद्योगिक विकास मुख्य हैं ।
देश में औषधीय पौधों की लगभग ९५०० प्रजातियां हैं, जिनमें से ७५०० प्रजातियों का उपयोग दवाआें के रूप में किया जाता है । ३९०० औषधीय पौधों का संबंध वनवासियों की खाद्य संबंधी जरूरतों से है । २५० पौधों के बारे में तो इतना तक कहा जाता है कि भोजन के विकल्प के रूप मेंभविष्य में येे ही मनुष्य की जरूरतों को पूरा करेंगे । मुंडारिका एनसाइक्लोपीडिया के कॉदर जॉन हॉफमैन ने लिखा है कि ३५ पौधे ऐसे हैं, जिनसे आदिवासी शराब बनाते हैं । २६ कंद मूल सब्जी के रूप में इस्तेमाल करते हैं । ४४ पौधों को जहरीला बताया गया है और २५ पेड़ों के फुलोंको भी हमारे वनवासी सब्जी की तरह खाते हैं ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अमेरिका में ३३ फीसदी और एशिया में६५ प्रतिशत लोग आयुर्वेद चिकित्सा पर विश्वास करते हैं । मारीशस, नेपाल और श्रीलंका में तो इस चिकित्सा प्रणाली को सरकारी मान्यता प्राप्त् है । भारत, चीन, थाईलैंड, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और इंडोनेशिया में तो प्राचीनकाल से ही जड़ीबूटियों से इलाज की परम्परा रही है । आज इन वनौषधियों को लूटा जा रहा है । भारी पैमाने पर इनकी तस्करी हो रही है । परिणामस्वरूप हमारे वनवासी प्रकृति की इस अमूल्य धरोहर से वंचित होते जा रहे हैं ।
भारतीय जड़ीबूटियों की धड़ल्ले से हो रही तस्करी के पीछ ेहमारे अपने ही लोग भी काफी हद तक जुड़े हुए है ं । सभी महाद्वीपों में ऐसे अनेक देश है ंजहां काफी बड़ी कीमत देकर इन वनौषधियों को खरीदा जा रहा है । इनसे मिलने वाली भारी कीमत ने ही इनकी तस्करी को बढ़ाया है । दो वर्ष पूर्व हुए एक अध्ययन के मुताबिक हर वर्ष ८० हजार टन वनस्पति, जिसमेंदुर्लभ जड़ीबूटियां भी शामिल हैं, वैध और अवैध तरीके से भारत से बाहर लाई गई हैं ।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा आंके गए एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष ५.४ अरब डॉलर मूल्य के जैव संसाधन तीसरी दुनिया के देशों से चुराए जाते हैं । इसका ६० प्रतिशत भाग सिर्फ अमेरिका हड़पता है । जर्मनी की एक दवा कंपनी हॉकिस्ट (हेक्सट्) पिछले कुछ वर्षोंा से भारतीय उपक्रम हाकिस्ट इंडिया के नाम पर केरल के वनों से लेकर हिमालय के पर्वतों तक समूचे भारत के पौधों, पादपों और मिट्टी के नमूने इकठ्ठा कर रही है । दो वर्ष पूर्व यह कंपनी लगभग ९० हजार नमूनों की जांच कर चुकी थी । पिछले कुछ वर्षोंा से छत्तीसगढ़ राज्य से बड़े पैमाने पर जड़ीबूटियां खरीदने वाले दलाल पैदा हो गए हैं, जो इन जड़ीबूटियों को अंधाधुंध बाहर भेज रहे हैं ।
मानव जिंदगी के लिए जिस तरह जमीन, हवा, पानी जरूरी है, उसी तरह वनस्पति और प्राणी भी जरूरी हैं । किन्हीं कारणों से यदि पौधे या प्राणी को क्षति पहुंचती है तो इसका दुष्परिणाम प्रकृतिके सारे क्रियाकलापों में अनुभव किया जाता है ।
जीवन निर्वाह के लिए धन दौलत से हवा, पानी ज्यादा जरूरी है । शुद्ध हवा, पानी व प्राकृतिक संतुलन तभी बना रह सकता है, जब हम सही मायने मेंवसुंधरा को माता समझें और उसके साथ वैसा ही व्यवहार करें ।
रवीन्द्र गिन्नौरे
विश्वभर में जैव विविधता को व्यापार बनाकर उसके माध्यम से अधिकाधिक आर्थिक दोहन का चलन हमारी सभ्यता को संकट में डाल रहा है । घटते वन और बढ़ता प्रदूषण हमारे सामने एक तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें कि विनाश के अलावा और कुछ दिखाई नहींदे रहा है । आवश्यकता है जैव विविधता की महत्ता को समझा जाए और इसे बचाने के प्रयासो को सम्मेलनों से बाहर निकालकर आम जनता के बीच लाया जाए ।
परम्परागत ज्ञान और सांस्कृतिक धरोहर से सरोकार सखने वाली हमारी प्राकृतिक सम्पदा उपभोक्ता संस्कृति के बाजार मेंअब मूल्यवान हो गई है । जैव विविधता की दृष्टि से सम्पन्न भारत के उन क्षेत्र में घुसपैठ हो चुकी है, जहां दुर्लभ जड़ीबूटियां और मूल्यवान जीवाश्म मौजूद हैं । भौगोलिक विभिन्नताआें से परिपूर्ण हर इलाके में पेड़-पौधों के साथ वन्य पशुपक्षियों का बसेरा अब छिनता जा रहा है । दुर्भाग्य है कि जैव विविधता की कीमत जो समझते है, उसी समुदाय के कुछ लोग इसे बेचने में लगे हैं । भौतिक विकास की लिप्सा में प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग हो रहा है लेकिन जैव विविधता को संजोने का प्रयास आज भी शैशवावस्था में है ।
वैज्ञानिकों को पृथ्वी पर १६ लाख जीव जंतुआें की प्रजातियों की जानकारी है, जिसकी संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है । मगर इसके ठीक विपरीत हजारों प्रजातियां विलुप्त् होती जा रही है । पशु-पक्षी या किसी जंतु की प्रजाति विलुप्त् होने के बाद ही उसकी अहमियत का पता हमें चलता है ।
पृथ्वी के आनुवांशिक संसाधन साझा विरासत हैं, जिन्हें सम्पूर्ण मानव जाति के द्वारा उपयोग में लाया जाना चाहिए । जैव प्रौद्योगिकी उत्पादों के इन महत्वपूर्ण स्त्रोतों से भारी भरकम व्यापारिक लाभ हैं । विकसित राष्ट्र जैव विविधता से सम्पन्न राष्ट्रों से इन्हें लेने के लिए अपना दबाव बना रहे हैं । जबकि जैविक संसाधन उस राष्ट्र की सम्पत्ति हैं, जहां पर ये आनुवांशिक मूल रूप से पाए जाते हैं ।
जैव विविधता के संरक्षण का प्रश्न तभी से उठ खड़ा हुआ, जबसे इसके अनुचित दोहन के विरोधी स्वर उठे । जैव विविधता के संरक्षण का अर्थ है, किसी भी राष्ट्र की भौगोलिक सीमाआें में पाए जाने वाले पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की जातियों को विलुप्त् होने से बचाना । इन जातियों के लगभग पांच प्रतिशत को ही मानव खेतों व बागों में बोता है एवं उगाता और पालता है, शेष ९५ प्रतिशत जातियां प्राकृतिक रूप से वन क्षेत्रों, नदी-नालों एवं समुद्री तटों में स्वमेव उगती एवं पलती हैं ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के आव्हान पर ब्राजील के रियो-डि-जेनेरो पृथ्वी शिखर सम्मेलन में उपस्थित राष्ट्रों ने सामूहिक रूप से धरती की जैव विविधता के संरक्षण का निर्णय लिया था । भारत ने भी इस समझौते को स्वीकृति दी है ।
जैव विविधता की दृष्टि से भारत विश्व के समृद्धतम राष्ट्रों में है । भारत की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति होने के कारण पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की जितनी अधिक प्रजातियां यहां पाई जाती हैं, उतनी विश्व के गिने-चुने राष्ट्रों में ही मिलती हैंे । पृथ्वी पर उपलब्ध चार जैव भौगोलिक परिमंडलों में तीन पराध्रुव तटीय, अफ्रीकी तथा इण्डोमलायन के प्रतिनिधि क्षेत्र भारत में पाए जाते हैं । विश्व के किसी भी देश में दो से अधिक परिमंडलों के क्षेत्र नहीं मिलते हैं । यही कारण है कि यूरोप और अमेरिका की तरह भारत में हिरणों की आठ प्रजातियां पाई जाती हैं । विश्व का सबसे दुर्लभ छोटा चूहा हिरण (माउस डियर) भारत में ही पाया जाता है । अफ्रीकी राष्ट्रों की तरह बब्बर शेर और एण्टीलोप की जातियां भी भारत में पाई जाती हैं ।
उल्लेखनीय तथ्य है कि सारे महाद्वीप में हिरणों की प्रजातियां नहीं पाई जाती । मानव जाति के निकटस्थ चार प्राकृतिक संबंधियों में गुरिल्ला, चिम्पैंजी, ओरंग उटान और गिब्बन में अंतिम जाति गिब्बन भारत के अरूणांचल प्रदेश के वनों में पाई जाती है । यह सभी जीव विषुवत रेखा के सदाबहार वनों के हैं । जलवायु की विविधता के साथ-साथ धरातल की विविधता, लम्बा सागरतट एवं अनेक समुद्री द्वीपों के कारण पशुपक्षियों एवं वनस्पतियों की विभिन्न जातियों का विकास भारत में संभव हो सका है ।
हमारे देश में अभी तक पशुपक्षियोंकी ६५ हजार प्रजातियां (मछलियां २ हजार, रेंगने वाले जीव ४२०, जल स्थर चर जीव १५०, पक्षियों की १२०, स्तनपायी पशुआें की २४० तथा शेष कीट पतंगों की जतियां) एवं पुष्पधारी वनस्पतियों की १३ हजार जातियां पहचानी जा चुकी हैं । तीव्रतर औद्योगिक विकास व कुप्रबंधन से जैव विविधता के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है । पशुपक्षियोंकी अनेक प्रजातियां तेजी से विलुप्त् हो रही हैं ।
मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोयायटी के अनुसार लगभग ११८६ पक्षियों की प्रजातियां सम्पूर्ण विश्व में अब समािप्त् की ओर अग्रसर हैं । सोयायटी के अनुसार इनमें से ७८ पक्षियों की प्रजातियां केवल भारत में विलुिप्त् के कगार पर हैं तथा १८२ प्रजातियां आने वाले दस वर्षोंा के भीतर खत्म हो जाएंगी । संस्था के अनुसार प्रजातियों के विलुप्त् होने की दर ६४० करोड़ वर्ष पूर्व डायनासोर के विलुप्त् होने की दर से भी अधिक है । इनमें ९९ प्रतिशत विलुप्त् हो रही प्रजातियां मूलत: मनुष्यजन्य कारकों के कारण हैं, जिसमें शिकार, आधुनिक कृषि व औद्योगिक विकास मुख्य हैं ।
देश में औषधीय पौधों की लगभग ९५०० प्रजातियां हैं, जिनमें से ७५०० प्रजातियों का उपयोग दवाआें के रूप में किया जाता है । ३९०० औषधीय पौधों का संबंध वनवासियों की खाद्य संबंधी जरूरतों से है । २५० पौधों के बारे में तो इतना तक कहा जाता है कि भोजन के विकल्प के रूप मेंभविष्य में येे ही मनुष्य की जरूरतों को पूरा करेंगे । मुंडारिका एनसाइक्लोपीडिया के कॉदर जॉन हॉफमैन ने लिखा है कि ३५ पौधे ऐसे हैं, जिनसे आदिवासी शराब बनाते हैं । २६ कंद मूल सब्जी के रूप में इस्तेमाल करते हैं । ४४ पौधों को जहरीला बताया गया है और २५ पेड़ों के फुलोंको भी हमारे वनवासी सब्जी की तरह खाते हैं ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अमेरिका में ३३ फीसदी और एशिया में६५ प्रतिशत लोग आयुर्वेद चिकित्सा पर विश्वास करते हैं । मारीशस, नेपाल और श्रीलंका में तो इस चिकित्सा प्रणाली को सरकारी मान्यता प्राप्त् है । भारत, चीन, थाईलैंड, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और इंडोनेशिया में तो प्राचीनकाल से ही जड़ीबूटियों से इलाज की परम्परा रही है । आज इन वनौषधियों को लूटा जा रहा है । भारी पैमाने पर इनकी तस्करी हो रही है । परिणामस्वरूप हमारे वनवासी प्रकृति की इस अमूल्य धरोहर से वंचित होते जा रहे हैं ।
भारतीय जड़ीबूटियों की धड़ल्ले से हो रही तस्करी के पीछ ेहमारे अपने ही लोग भी काफी हद तक जुड़े हुए है ं । सभी महाद्वीपों में ऐसे अनेक देश है ंजहां काफी बड़ी कीमत देकर इन वनौषधियों को खरीदा जा रहा है । इनसे मिलने वाली भारी कीमत ने ही इनकी तस्करी को बढ़ाया है । दो वर्ष पूर्व हुए एक अध्ययन के मुताबिक हर वर्ष ८० हजार टन वनस्पति, जिसमेंदुर्लभ जड़ीबूटियां भी शामिल हैं, वैध और अवैध तरीके से भारत से बाहर लाई गई हैं ।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा आंके गए एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष ५.४ अरब डॉलर मूल्य के जैव संसाधन तीसरी दुनिया के देशों से चुराए जाते हैं । इसका ६० प्रतिशत भाग सिर्फ अमेरिका हड़पता है । जर्मनी की एक दवा कंपनी हॉकिस्ट (हेक्सट्) पिछले कुछ वर्षोंा से भारतीय उपक्रम हाकिस्ट इंडिया के नाम पर केरल के वनों से लेकर हिमालय के पर्वतों तक समूचे भारत के पौधों, पादपों और मिट्टी के नमूने इकठ्ठा कर रही है । दो वर्ष पूर्व यह कंपनी लगभग ९० हजार नमूनों की जांच कर चुकी थी । पिछले कुछ वर्षोंा से छत्तीसगढ़ राज्य से बड़े पैमाने पर जड़ीबूटियां खरीदने वाले दलाल पैदा हो गए हैं, जो इन जड़ीबूटियों को अंधाधुंध बाहर भेज रहे हैं ।
मानव जिंदगी के लिए जिस तरह जमीन, हवा, पानी जरूरी है, उसी तरह वनस्पति और प्राणी भी जरूरी हैं । किन्हीं कारणों से यदि पौधे या प्राणी को क्षति पहुंचती है तो इसका दुष्परिणाम प्रकृतिके सारे क्रियाकलापों में अनुभव किया जाता है ।
जीवन निर्वाह के लिए धन दौलत से हवा, पानी ज्यादा जरूरी है । शुद्ध हवा, पानी व प्राकृतिक संतुलन तभी बना रह सकता है, जब हम सही मायने मेंवसुंधरा को माता समझें और उसके साथ वैसा ही व्यवहार करें ।
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