चांदे के टुकड़ों की लगी, काला बाजार में बोली
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने घोषणा की है कि चंद्रमा की सतह से लाए गए चट्टानों के टुकड़े गायब हो गए हैं ।
कई सालों से चल रहे एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिए सामने आया कि इन टुकड़ों की कालाबाजार में मांग है और इनकी बिक्री भी होती है । साथ ही किसी देश ने आधिकारिक तौर पर बिक्री की, तो किसी देश ने इसकी ऊंची कीमत लगाई । १९७२ में नासा के अपोलो-१७ मिशन और १९६९ में अपोलो मिशन के दौरान चंद्रमा की सतह से ३७० टुकड़े एकत्रित किए गए थे । इसमें से २७० टुकड़े अलग-अलग देशों में बांटे गए, जबकि १०० टुकड़े अमेरिकी राज्यों में बांटे गए थे । लेकिन, अब इनमें १८४ टुकड़े ऐसे हैं, जो गुम हो गए, चोरी हो गए या जिनका कोई पता नहीं है। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने आदेश दिया था कि टुकड़ों को ५० अमेरिकी राज्यों और १३५ देशों में बांट दिया जाए ।
टुकड़ों की खोज के लिए नासा के पूर्व एजेंट जोसेफ गुथिज ने १९९८ में स्टिंग ऑपरेशन लूनर एक्लिप्स शुरू किया । उन्हें पता लगा कि गद्दाफी सरकार और रोमानिया ने अपने हिस्से के चांद के टुकड़े खो दिए । होंडुरास ने जोसेफ को ही एक टुकड़ा बेचने के लिए ५० लाख डॉलर की मांग की । रूसी सरकार ने १९९३ में आधिकाधिक तौर पर लूना-१६ मिशनसे हासिल चांद की टुकड़ों की नीलामी की । जोसेफ का कहना है कि इन टुकड़ों की कालाबाजार में भी बिक्री होती है । असली और नकली दोनों ही टुकड़ों की ऊंची बोली लगाई जाती है।
एक गुमनाम संग्रहकर्ता द्वारा चांद की सतह की ०.२ ग्राम धूल साढ़े चार लाख डॉलर में खरीदी और कथित तौर पर कैलीफोर्निया की एक महिला ने चांद का टुकड़ा ऑनलाइन बेचने की कोशिश की थी ।
इस सदी में मिट जाएगा ११८३ प्रजातियों का नामो-निशान
पक्षियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है । अनुमान है कि १०० साल में पक्षियों की ११८३ प्रजातियां विलुप्त् हो सकती है । इस समय दुनिया में पक्षियों की ९९०० ज्ञात प्रजातियां है। विभिन्न कारणों से पक्षियों की प्रजातियों का विलुप्त् होना जारी है और १५०० से लेकर अब तक भगवान के डाकिए कहे जाने वाले इन खुबसूरत जीवों की १२८ प्रजातियां विलुप्त् हो चुकी है ।ख्यात पक्षी विज्ञानी आरके मलिक के मुताबिक बदलती जलवायु, आवासीय ह्ास, मानवीय हस्तक्षेप और भोजन पानी में घुल रहे जहरीले पदार्थ पक्षियों के विनाश के प्रमुख कारण है। यदि पक्षियों के उचित संरक्षण के प्रयास नहीं किए गए तो आने वाले १०० वर्ष में इनकी कुल प्रजातियां का १२ प्रतिशत हिस्सा यानि की ११८३ प्रजातियां विलुप्त् हो सकती हैं । खूबसूरत तोता भी संकट में है । पक्षी विज्ञानियों के अनुसार, तोते की विश्वभर में ३३० ज्ञात प्रजातियां हैं, लेकिन आने वाले १०० साल में इनमें से एक तिहाई प्रजातियों के खत्म हो सकती है ।
श्री मलिक के मुताबिक पक्षियों की विलुिप्त् का एक बड़ा कारण उनका अवैध व्यापार और शिकार भी है । तोते और गौरेया जैसे पक्षियों को लोग जहां अपने घरों की शान बढ़ाने के लिए पिजरों में कैद रखते हैं । वही तीतर जैसे पक्षियोें का शिकार किया जाता है। राष्ट्रीय पक्षी मोर जहां बीजों में मिले कीटनाशकों की वजह से मारा जा रहा है, वही पर्यावरण को स्वच्छ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला गिद्ध जैसे पक्षी पशुआें को दी जाने वाली दर्द निवारक दवा की वजह से मौत का शिकार हो रहा है । गिद्ध मरे हुए पशुआें का मांस खाकर पर्यावरण को साफ रखने में मदद करता है, लेकिन उसका यह भोजन ही उसके लिए काल का संदेश ले आता है ।
विभिन्न तरह के गिद्धोंके अतिरिक्त ग्रेट इंडियन बर्स्टड, गुलाब सिर वाली बत्तख, हिमालयन क्वेल, साइबेरियन सारस आदि प्रमुख है, जिन पर गंभीर संकट मंडरा रहा है।
भारतीय वैज्ञानिकों को मिली औषधि क्षेत्र में नयी सफलता
भारतीय वैज्ञानिकों ने एक ऐसा फंगस(फफंूद) विकसित किया है, जो कैंसर जैसी घातक बीमारियों के इलाज में कारगर है । देहरादून स्थित भारतीय वन अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित इस फफंूद से उपचार तो होगा ही, साथ ही यह व्यावसायिक रूप से भी फायदेमंद है ।
इस फफंूद से मलेशिया की एक कम्पनी द्वारा निर्मित दवाएं पहले से ही बाजार में उपलब्ध हैं, लेकिन एफआरआई के वैज्ञानिकों ने इस फफंूद को भारत की परिस्थितियों के अनुकूल बनाया है, ताकि कि इसे समूचे उत्तर भारत में उगाया जा सके। एफआरआई के फोरस्ट डिवीजन के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एनएसके हर्ष के अनुसार संस्थान ने एक ऐसे फफंूद गैनोडर्मा ल्यूसिडियम का पता लगाया है, जो पापलर तथा अन्य पादक प्रजातियों के तने पर उगता है । यह एचआईवी कैंसर जैसी लाइलाज बीमारियों के उपचार में सक्षम है ।
डॉ. हर्ष के अनुसार अनुसंधान से साबित हो गया है कि भारत में भी गैनोडर्मा फफंूद आसानी से उगाया जा सकता है । उन्होनें एफआरआई परिसर में पापलर तथा अन्य पादक प्रजातियों के वुड ब्लॉक पर इस फफंूद को उगाकर इसमें समाहित औषधीय गुणों का अध्ययन किया । इससे पहले एशिया में चीन, जापान तथा कोरिया में गैनोडर्मा फफंूद को उगाया जाता था । मलेशिया की एक दवा निर्माता कंपनी इस फफंूद से तैयार दवाएं रिशी, लिग चि तथा लिग झि की बाजार में पहले से ही बिक्री कर रही है ।
सड़कों हादसों की भेंट चढ़ता है सालाना एक लाख करोड़
सड़क हादसों में जान गंवाने के मामले में भारत पूरी दुनिया में अव्वल तो है ही, लेकिन इस कारण देश के बजट का दस फीसदी हिस्सा भी एक तरह से पानी में बह जाता है । अंतरराष्ट्रीय सड़क फेडरेशन (आइआरएफ) के अनुसार, भारत में सालाना करीब एक लाख करोड़ रूपये (२० लाख डॉलर) से ज्यादा की धनराशि सड़क दुर्घटनाआें की भेंट चढ़ जाता है ।
आइआरएफ ने सड़क हादसों पर काबू नहीं कर पाने के लिए सरकार की आलोचना की है । उसका कहना है कि राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी के कारण सड़क हादसों पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है । गैर सरकारी संगठन आईआरएफ के अध्यक्ष के.के. कपिला का कहना है कि हर साल होने वाले इस भारी आर्थिक नुकसान की, जानकारी सरकार को है । श्री कपिला ने कहा कि यह दुखद है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का तीन फीसदी हिस्सा सड़क हादसों के कारण प्रत्येक वर्ष बर्बाद हो जाता है ।
सरकारी आकड़ों के अनुसार सड़क दुर्घटनाआें की अगर यही रफ्तार रही तो आने वाले वर्षोमें इससे होने वाला नुकसान एक लाख करोड़ से काफी ज्यादा हो सकता है। राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, सड़क दुर्घटनाआें में वर्ष २०१० में देश में करीब १,३०,००० लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था । योजना आयोग द्वारा २००१-०३ के बीच किए गए एक अध्ययन का हवाला देते हुए आईआरएफ ने कहा कि वर्ष १९९९-२००० में सड़क दुर्घटनाआें के कारण देश को करीब ५५,००० (दस अरब डॉलर) करोड़ रूपये का नुकसान हुआ था । एक दशक में इस कारण होने वाला नुकसान लगभग दो गुना हो गया है । श्री कपिला ने कहा कि सड़क हादसों पर लगाम कसने के लिए मोटर वाहन अधिनियम १९८८ में व्यापक बदलाव किए जाने की जरूरत है । सड़क दुर्घटनाआें में प्रभावितों के लिये तत्काल चिकित्सा सहायता मिलने की कारगर व्यवस्था का अभाव होने और पुलिस एवं अन्य सरकारी कार्यवाही का डर से भी दुर्घटनाग्रस्त को तत्काल मदद के लिये लोग आगे नहीं आ रहे है, इन दो बड़े कारणों से सड़क दुर्घटनाआें में होने वाली मौतों की संख्या बड़ रही है ।
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