शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

५ जनजीवन


जनजीवन
हम भी पड़े हैं शहरो में
भारती चतुर्वेदी
२००७ में एक इतिहास बना और बिगड़ा । इस दौरान पृथ्वी पर जीवन के आरंभ होने के पश्चात् पहली बार गांवों की बनिस्बत शहरों में रहने वालों की संख्या अधिक हो गई । मानवीय बसाहट के व्यवहार में आए इस परिवर्तन ने कई नए गुल खिलाए । इसमें अनौपचारिक क्षेत्र में पुनर्चक्रीकरण मुख्य है। कई विशाल शहरी बसाहटों में गरीब लोग अपनी जीविका के लिए अपशिष्ट के व्यवस्थापन, अपशिष्ट उठाना,छंटाई करना, फेंक दिए गए वस्तुआें को मरम्मत के अतिरिक्त अपशिष्ट व्यापार पर निर्भर हैं । वैश्विक अध्ययन से हमें पता चलता है कि कुछ गरीबी से निजात पा गए हैं । परंतु अधिकांश अभी भी गरीब बने हुए हैं और न्यूनतम मजदूरी कमाते हुए किसी तरह अपना पेट भरते हुए जिंदा हैं । इसे कुछ हद तक ग्रामीण गरीबी से मुक्ति भी कहा जा सकता है । दुनियाभर के पुनर्चक्रीकरण करने वालों से बातचीत से पता चलता है कि इनमें से अधिकतर विशेषत: कचरा बीनने वाले अपनी जीविका को बचाए रखने के लिए जबरदस्त संघर्षरत हैं । इस तरह के संघर्ष और रणनीतियों की सफलता की कहानी कोलम्बिया के बोगोटा शहर में मार्च २००८ में आयोजित एक सम्मेलन में उभर करआई । देशों की सीमा से मुक्त कचरा बीनने वालों का यह अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन लेटिन अमेरिका का तीसरा व प्रथम वैश्विक सम्मेलन था । बोगोटा आसोसिएशन ऑफ रिसायकलर्स की मेजबानी में आयोजित इस सम्मेलन को अनेक कचरा बीनने वाली सहकारिता समितियों ने मदद की थी । इस सम्मेलन का उद्देश्य इससे संबंधित बातचीत की एक वैश्विक प्रक्रिया को प्रारंभ करना था। पिछले दशक में इस बात पर आम सहमति बनी है कि शहरों का स्वरूप कैसा हो व इसे किस तरह पाया जा सके । कल्पना लोक जैसे ये शहर विश्वस्तर के शहर कहलाते हैं । वैसे इनका कहीं कोई अस्तित्व नहीं है परंतु इस तरह की आम सहमति गिरते-पड़ते उस धुंधले विचार की ओर दौड़ रही है । तकरीबन सभी बड़े शहर रेम्प पर चल रहे उन माडलों की तरह हैं जो कि एक सी प्रतीत होती हैं । इनमें कुछ कमोवेश निर्धन शहरी समूह जो अपने सपनों को साकार करने में असमर्थ हैं, भी अधिकाधिक तौर पर इस एकरूपता को अंगीकार कर लेना चाहते हैं । कुछ मामलों में बड़े स्तर पर नकल और कुछ में थोपे हुए विकास के कारण एक आदर्श शहर का बना बनाया सांचा उभर आता है । इसमें शहरी सेवाएं और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन भी सम्मिलित होता है । नीति निर्माता, नगरपालिकाएं, दान देने वाले संस्थान, शहरी विशेषज्ञ ओर अनियमित शोधकर्ता इस भुलावे से बंधे रहते हैं । यहां पर दो बातें होती हैं । पहली बात तो यह है कि विकासशील विश्व की नियति है कि वह उन प्रवृत्तियों को औपचारिक रूप से आत्मसात कर लेता है जो कि दानदाताआें अथवा शहरी सरकारों द्वारा उसे दिखाई जाती है । विकासशील देशों के महापौरों को विकसित विश्व में अध्ययन भ्रमण हेतु ले जाया जाता है । जहां पर वे अधिकाधिक पद्धति और प्रक्रियाआें के बारे में सीखते हैं। इस विचार में घरेलू उद्यम की गुंजाईश बहुत कम होती है । अधिकांश मामलों में यह ज्ञानअर्जन अफसरशाही द्वारा ही होता है अतएव इसमें किसी भी प्रकार के सार्वजनिक योगदान की संभावनाएं धूमिल हो जाती है। सेनफ्रांसिस्कों का ही उदाहरण ले, यहां उपशिष्ट के निपटान के संबंध में प्रगति तो हो रही है परंतु उन बेघरों के बारें में कोई विमर्श नहीं हो रहा जो एल्युमिनियम के खोखे (केन) बीन कर कूड़ा करकट को पुनर्चक्रण करने वाले अधिकारिक समूह के पास तक पहुंचाते हैं । पूरे विश्व में इस अनौपचारिक क्षेत्र को सभी चर्चाआें से बाहर रखा जाता है । दूसरा जब इस तरह के ज्ञान को कार्यान्वित करने का प्रयास किया जाता है तो पता चलता है कि इस पर पहले ही प्रभावी तंत्र और विचारों ने आरंभिक पहल कर ली है परंतु इसमें किसी सार्थक जनभागीदारी की कोई सूचना नहीं होती और ये कभी कभार ही व्यापक सामाजिक मांग और आवश्यकताआें के प्रति जवाबदेह होती है । परिणाम स्वरूप नीति निर्धारण और उसके जमीनी कार्यान्वयन मेंअलगाव की वजह यह है कि गरीब इस ज्ञान और जानकारी तंत्र का हिस्सा ही नहीं होता । इस बात पर किसी का ध्यान नहीं जाता कि ठोस अपशिष्ट के मामले में मनौपचारिक पुनर्चक्रीकरण क्षेत्र को कमतर आंका जाता है । बोगोटा सम्मेलन उनकी इन अदृश्य और चुप्पी भी उपस्थिति से ही संचालित था । आखिरकार विकासशील शहर की एक प्रतिशत जनसंख्या अपशिष्ट के निपटान और पुनर्चक्रीकरण से अपनी जीविका चलाती है परंतु यह औपचारिक ज्ञान वाला समुदाय उन्हें इससे बाहर कर देना चाहता है । इसका सबसे दुखद पक्ष यह है कि यह वंचित समुदाय अपने भविष्य के निर्णय में भागीदारी भी तक के कबाड़ बीनने वालों ने अपशिष्ट निपटान के संस्थागत होने की वजह से विस्थापित होने की बात कही । सफाई का स्तर बढ़ाने एवं अपशिष्ट की मात्रा बढ़ने की वजह से निजी कंपनियों की हिस्सेदारी को इसका कारण बताया जा रहा है । नई व्यवस्था में पारम्परिक रूप से कचरा बीनने वालों के लिए स्थान नहीं है । सुनाई गई व्यथाआें की वैश्विक तुलना भी की जा सकती है । एक तुर्की कुर्दजो कि वहां की असोसिएशन का अध्यक्ष था, का कहना था कि उसे तो दोहरी मार पड़ती है एक तो वह स्थानीय घृणा के पात्र अल्पसंख्यक समुदाय का है और दूसरा वह कचरा बीनने वाला है । नगर निगम के अधिकारी उसे और उसके सहयोगियोंको मारते है अगर वे पुनर्चक्रीकरण हेतु अपशिष्ट नगर निगम द्वारा स्वीकृत निजी कंपनी को नहीं देते । वेनुजुएला में भी बहुत अवसाद भरी स्थिति है । जबकि शेवाज के नेतृत्व में वहां कचरा बीनने वालों के एक समुह को बिना किसी सामाजिक सुरक्षा और कम मजदूरी पर एक ऐसे पुनर्चक्रीकरण कारखाने में जबरन मजदूरी कराई जाती थी जिसे सरकार ने ठेका दिया था । इस संस्था ने उन्हें एक ऐसी सहकारी समिति की सदस्यता लेने को बाध्य किया जिस पर वास्तव में कंपनी का ही अधिकार था । अंतत: कर्मचारियों ने कारखाने पर कब्जा कर लिया । कोलम्बिया में आयोजित इस सम्मेलन में विश्वभर में कचरा बीनने वालों के अधिकारों को लेकर चल रही बहस पर भी चर्चा हुई । इस संबंध में किसी तंत्र का निर्माण सिर्फ कहानियां कहने के लिए नहीं बल्कि इनकी आवाज उस औपचारिक क्षेत्र तक पहुंचाने के लिए आवश्यक है जिससे कि इन्हें न्यायोचित और औपचारिक रूप से अपशिष्ट निपटान के जरिए जीविकोपार्जन की अनुमति मिल सके । बराबरी की नागरिकता के व्यापक परिप्रेक्ष्य मेंऔर सामाजिक बदलावों के मद्देनज़र कचरा बीनने वालों का तंत्र बनना अब और भी जटिल हो गया है । अगर नीति निर्धारित योजना में भी जटिल हो गया है । अगर नीति निर्धारित योजना मे इनके सम्मिलन के तैयार भी हो जाएं तो भी सामाजिक तौर पर इन्हें अस्पृश्यता सहनी ही पड़ेगी । फेरी वालों या मछुआरों के बजाय कचरा बीनने वालों से निपटना होगा । ४० देशों में भारत के भी दो प्रतिनिधि थे । वे लेटिन अमेरिका व मिस्त्र के कचरा बीनने वालों के सेहत और वेशभूषा देखकर चकित थे । प्रत्येक समूह का मानना था कि उन्हें अभी बहुुत लम्बा रास्त तय करना है । किसी भी तंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि यह होती है कि वह एक परम्परा कायम कर सके और और यह प्रयास भी होना चाहिए कि वह सभी दिशाआें में फैलेऐसे प्रयास भी होने चाहिये । ***
फैल रहा है समुद्री रेगिस्तान
ताजा अनुसंधान से पता चला है कि पिछले पचास वर्षोंा में समुद्रों मे ंऐसे क्षेत्रों का विस्तार हुआ है , जहां ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम है । इसका सम्बंध संभवत: वैश्विक जलवायु परिवर्तन से है । शोधकर्ताआें का मत है कि यदि यही रूझान जारी रहा तो समुद्री इकोसिस्टम पर घातक असर हो सकते हैं । समुद्रों के अंदर एक गहराई पर पानी में ऑक्सीजन की मात्रा नयूनतम होती है। ताजा अनुसंधान दर्शाता है कि यह परत ऊपर -नीचे दोनों तरफ फैल रही है और आसपास के समुद्रों में भी फैलती जा रही है । आम तौर पर जलवायु के मॉडल्स बताते हैं कि जब मानवीय क्रियाकलापों के कारण समुद्र सतह गर्म होगी तो समुद्र के पानी का मंथन उतनी अच्छी तरह से नहीं हो पाएगा । ऐसा होने पर अंदर के पानी में ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाएगी । जर्मनी के किएल विश्वविद्यालय के लोथर स्ट्रामा के नेतृत्व में किए गए उपरोक्त अनुसंधान से संकेत मिलता है कि यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है । उन्होंने पाया कि पिछले पचास वषों में समुद्र की इस परत में ऑक्सीजन की मात्रा घटती गई है ।

कोई टिप्पणी नहीं: