शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

६ ऊर्जा जगत


ऊर्जा जगत
तेल की कीमत चुकाता आम आदमी
प्रो. रामप्रताप गुप्त
पिछले आठ-दस सालों में तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमत में तीव्र गति से वृद्धि हुई है । सन् १९९९ में तेल की कीमत मात्र १० डालर प्रति बैरल के लगभग थी जो कुछ दिनों पूर्व १४० डालर से भी अधिक हो गई थी । एक वर्ष पहले ये ९५ डालर प्रति बैरल थी। इस भारी वृद्धि की पृष्ठभूमि में जब हम भारत में तेल की आंतरिक कीमतों पर नजर डालते हैं पर हम पाते हैं कि सरकार के हर संभव रहे हैं कि ये या तो स्थिर रहें या इनमें न्यूनतम वृद्धि की जाए । पिछले एक वर्ष में तेल के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य में ५० प्रतिशत की वृद्धि के बाद भारत सरकार ने ५ जून को इसकी कीमत में ६.७ प्रतिशत की वृद्धि की है । हमारी सरकार तेल की कीमतों को स्थिर बनाए रखने में अपनी सफलता को एक उल्लेखनीय उपलब्धि मानती है । प्रश्न यह उठता है कि कीमतों के निम्नस्तर का लाभ जनता के किस वर्ग को मिल रहा है और इन्हें स्थिर बनाए रखने की लागत किस वर्ग द्वारा उठाई जा रही है ? भारत में तेल की कुल खपत का ७५ प्रतिशत भाग आयातित होता है तथा २५ प्रतिशत देश में उत्पादित होता है । इन वर्षो में सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों के परिणामस्वरूप तेल के आयात में दिनोदिन वृद्धि हो रही है । तेल का आंतरिक उत्पादन सार्वजनिक क्षेत्र की ओएनजीसी और आइल इण्डिया द्वारा किया जाता है । कुछ निजी कंपनियां भी तेल के नए स्त्रोतोंको खोजने का प्रयास कर रही हैं परंतु अभी तक उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली है । इन दिनों आम जनता के बीच यह धारणा फैलाई जा रही है कि तेल उत्पादन के क्षेत्र में कार्यरत हमारी सार्वजनिक क्षेत्र की ये कंपनियां भारी मुनाफा कमा रहीं हैं, क्योंकि तेल की उत्पादन लागत उसकी बढ़ती कीमतों की पृष्ठभूमि में बहुत कम होती है । इसी पृष्ठभूमि में यह भी कहा जा रहा है कि तेल के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य में वृद्धि की स्थिति में भी आंतरिक मूल्य को स्थिर रखने के प्रयास में जो घाटा होता है उसे बजाय मूल्य वृद्धि के आंतरिक तेल उत्पादक कंपनियोंके मुनाफे और सरकारी करों की दर में कमी करके पूरा कर लिया जाए । यही किया भी जा रहा है । पेट्रोल मंत्री मुरली देवड़ा इस हेतु सरकार पर दबाव बनाने में सफल भी रहे हैं । यदि हम आयतित तेल की कीमत १२० डालर प्रति बैरल चुका रहे हों तो उस स्थिति में एक लीटर डीजल में प्रयुक्त कच्च्े तेल की लागत ३१.७० रू. होगी । इसमें अगर उसके परिशोधन, परिवहन, सरकारी कर आदि की लागत को जोड़ दें तो डीजल की लागत ५४ रू. प्रति लीटर आयेगी । इस समय डीजल पर केन्द्रीय उत्पादन शुल्क ३.७५ रू. प्रति लीटर तथा राज्यों के विक्रय कर औसतन ९ रू. प्रति लीटर हैं । डीजल का वर्तमान विक्रय मूल्य ३९ रू. प्रति लीटर है । इसी तरह ही पेट्रोल के उत्पादन में घाटा ५ से ८ रू. प्रति लीटर, केरासीन पर ३३ रू. प्रति लीटर और प्रति गैस सिलेण्डर ३५० रू. है । आयातित कच्च्े तेल की ऊँची कीमतें एवं देश में उससे उत्पादित डीजल, पेट्रोल, केरोसीन, रसोई गैस आदि के मूल्यों को निम्नस्तर पर बनाए रखने के कारण सरकार को अनुमानत: १,८५,००० करोड़ रू. का वार्षिक घाटा होता है । इस घाटे का सरकार देश में तेल उत्पादन करने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के मुनाफे से पूरा कर रही है । अगर सरकारी तेल कंपनियों का मुनाफा आयातित कच्च्े तेल के उत्पादों की देश में नीची कीमतों के कारण होने वाले घाटे को पूरा करने में प्रयुक्त नहीं किया जाता तो उस राशि के अन्य अनेक उपयोग संभव थे, जिनसे राष्ट्र वंचित हो रहा है । प्रश्न यह है कि देश में उत्पादित तेल पर प्राप्त् लाभ के आयातित तेल के उत्पादों के मूल्यों को नीचा रखने से उत्पन्न घाटे को पूरा करने में प्रयुक्त न कर अगर अन्यत्र उपयोग किया जाता तो उससे लाभ प्राप्त् करने वाला जनता का कौन-सा वर्ग होता और आज इन उत्पादों की निम्नस्तरीय कीमतों का लाभ लेने वाला वर्ग कौन-सा हैं? डीजल और पेट्रोल की निम्नस्तरीय कीमतों का मुख्य लाभ दिन प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या के कारों और दुपहिया वाहनों के स्वामियों का मिल रहा है । सस्ता डीजल सर्वजनिक परिवहन के स्थान पर निजी परिवहन कारों, के उपयोग को प्रोत्साहित कर रहा है । विगत वर्षोंा में सार्वजनिक परिवहन की तुलना में निजी परिवहन की सुविधाआें में कई गुना वृद्धि हुई है । ऐसा कहा जा सकता है कि केरोसिन और रसोई गैस की कीमतों के निम्नस्तर का लाभ जनता को मिल रहा है । परंतु केरोसिन के एक बड़े भाग का उपयोग वाहनों के स्वामी डीजल में मिलावट के लिए कर रहे है । इसी तरह रसोई गैस का उपयोग भी कारों, जीपों आदि को चलाने के लिए किया जा रहा है । कुल मिलाकर सस्ते पेट्रोल डीजल का मुख्य लाभ उच्च् आय वर्ग के लोग मिलाकर सस्ते पेट्रोल डीजल का मुख्य लाभ उच्च् आय वर्ग के लोग ही ले रहे है एवं सस्ते केरोसिन और रसोई गैस के लाभ का एक बड़ा हिस्सा भी हड़पकर आम जनता को वास्तविक लाभ से वंचित कर रहे हैं । साथ ही सार्वजनिक वाहनों के स्थान पर निजी वाहनों जैसे कारों, दुपहिया वाहनों आदि के बढ़ते उपयोग के कारण भी पेट्रोल, डीजल की खपत में वृृद्धि के कारण हमारा तेल का आयात भी अनावश्यक रूप से बढ़ रहा है । अगर हमारी सरकार तेल उत्पादों की कीमतों को कम न रख कर उन्हें आयातित मूल्यों के समकक्ष करने की नीति अपना लेती तो उस स्थिति में सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों को आयतित तेल का घाटा पूरा करने का दायित्व नहीं उठाना पड़ता और उस स्थिति में सरकार इस राशि का उपयोग देश में शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के विस्तार और गुणवत्ता में सुधार के लिए प्रयुक्त कर पाती। उल्लेखनीय है कि हमारा देश स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय आय का मात्र १.२ प्रतिशत खर्च करता है और इसी दृष्टि से उसका स्थान विश्व के अंतिम १० राष्ट्रों में है । इसी तरह शिक्षा पर हम राष्ट्रीय आय का ४ प्रतिशत से भी कम खर्च करते हैं जबकि कोठारी आयोग ने सन् १९६६ में ही इस पर कम से कम ६ प्रतिशत खर्च करने का सुझाव दिया था । शिक्षा और स्वास्थ्य पर कम व्यय का मुख्य शिकार गरीब वर्ग के लोग ही होते हैं । इस तरह डीजल, पेट्रोल आदि की कीमतें कम रखने और घाटे को सार्वजनिक क्षेत्र की देशी तेल उत्पादक कंपनियों के लाभ से पूरा करने का मुख्य शिकार भी देश के गरीब वर्ग के लोग ही रहे हैं । तेल उत्पादों के मूल्यों को निम्नस्तरीय रखने की सरकारी नीतियां मुख्य रूप से मध्यम एवं उच्च् आय वर्ग के लोगों के हित में हैं। परंतु दूसरी ओर होने वाले घाटे की पूर्ति के प्रयासों के कारण सरकार शिक्षा एवं स्वास्थ्य, साफ व सुरक्षित पेयजल की पूर्ति जैसे संवैधानिक दायित्वों को भी पूरा नहीं कर पा रही है । व्यापक हितों की दृष्टि से इस नीति पर पुर्नविचार करने की आवश्यकता है । ***

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