सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

पर्यावरण परिक्रमा
नदी पुनरूद्धार के लिए लोगों को आगे आना चाहिए 
ईशा फांउडेशन के संस्थापक सदगुरू जग्गी वासुदेव ६००० किमी का सफर तय कर पिछले दिनों मध्यप्रदेश आये । रैली फॉर रिवर के प्रणेता सदगुरू ने कहा कि मृत्यु शैया पर गंगा जल दिया जाता है, उसे मोक्षदायिनी माना जाता है । लेकिन बात जब पुनरूद्धार या स्वच्छता की आती है, तो कोई आगे नहीं आता । नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए सोच में बदलावा लाना ही होगा । 
गंगा बेसिन देश के २० फीसदी हिस्से को कवर करता है । सरकारी योजना केवल स्वच्छता के लिए चलाई जा रही है, जबकि जरूरत पुनरूद्धार की है । सरकार चाहे तो ३ साल की कार्ययोजना से ही नदियों का प्रदूषण खत्म कर सकती है । 
नदियों में सिर्फ ४ फीसदी पानी ग्लेशियर से आता है, शेष ९६ फीसदी जंगलों पर निर्भर है । अधिकांश नदियां साल में तीन से चार महीने ही बहती है । भारत में औसतन ४५ से ५० दिन बारिश होती है । नदियों में ३६५ दिन पानी रखना चुनोतीपूर्ण कार्य है । छह-सात साल में स्थिति और बिगड़ी है । यूनिवर्सिटी ऑफ तमिलनाडु के साथ शोध किया, वैश्विक विशेषज्ञों से विचार साझा किए और रैली का बिगुल फंूका । 
नदियों के पुनर्जीवित करने पर सभी को एकमत करना है । हालांकि हमने १६ राज्यों के मुख्यमंत्रियों से एमओयू हस्ताक्षर समस्या हल करने की कोशिश की   है । मध्यप्रदेश के बारे में आपने कहा कि नर्मदा की स्थिति बिगड़ रही है । 
नर्मदा ५८ से ६० फीसदी तक क्षरण और प्रदूषण का शिकार हो चुकी  है । ५० साल पहले की तुलना में नर्मदा के आसपास ९० फीसदी हरियाली खत्म होने से यह स्थिति बनी है । इसमें लोगों को जोड़ने की जरूरत है । 
आइसमेन ने बनाये १८ ग्लेशियर 
लद्दाख की पथरीली बंजर भूमि, जहां बादल भी बरसने से कतराते है, एक इंसान ने अथक प्रयास के दम पर यहां १८ ग्लेशियर बना डाले । आइस मैन के नाम से मशहूर ८१ वर्षीय छिवांग नार्फेल ने ये सभी हिमनद बड़े जतन से तैयार किए हैं । इन हिमनदों से लेह के अनेक गांवों में पानी की जरूरत पूरी हो सकी है । पद्मश्री से सम्मानित छिवांग ने जल संरक्षण का यह महान कार्य दशकों पहले अकेले दम पर शुरू किया था । अब उनके साथ करीब एक हजार लोग और तीन गैर सरकारी संगठन जुड़ चुके हैं । टाटा ट्रस्ट भी उनका साथ दे रहा है ।
लेह के ऊपरी इलाकों में खून जमा देने वाली सर्दी बीतने के बाद अजीब स्थिति होती है । अप्रैल व मई में खेती के समय पानी नहीं होता और जब जून में पानी आता है तो खेती का समय निकल जाता है । तीन दशक पहले छिवांग ने लोगों को इस जटिल परेशानी से उबारने की     ठानी । 
जल संरक्षण के लिए छिवांग ने कृत्रिम हिमनद बनाने की युक्ति अपनाई । उन्होंने गांवों के पास ही पानी को एकत्र करने की ठानी । इसके लिए बड़े आकार के कृत्रिम बांध बनाए । जून-जुलाई मेंबड़ी मात्रा में इनमें पानी एकत्र हो जाता है । सर्दियों में यह पानी जम जाता है और कृत्रिम ग्लेशियर के रूप में जल को संरक्षित रखता है । गर्मियों में इन कृत्रिम हिमनदों का बर्फ पानी मे तब्दील हो जाता है । इस युक्ति ने खेति सहित पेय जल की समस्या से लोगों को मुक्ति दिलाई है । नार्फेल अब तक लेह के फोगत्से, इगु, स्कटी, स्टाकनो, साटो, उमला गांवो के पास कृत्रिम ग्लेशियर बना चुके हैं । नए ग्लेशियर थुक्से, अल्वे में बना रहे है । 
सेवा निवृत्त सिविल इंजीनियर छिवांग बताते हैं कि १९८७ में उन्होंने यह काम शुरू किया था, जो आज भी जारी है । लद्दाख में नब्बे प्रत्तिशत पानी की उपलब्धता ग्लेशियर से होती है । हम पांच से छह हजार फीट ऊंचाई वाले इलाकों में बांध बनाकर सर्दियों से पहले पानी एकत्र करते हैं । हमारा सबसे बड़ा ग्लेशियर फोगत्से गांव के पास है । 
लेह में बनाए गए इन कृत्रिम ग्लेशियरों से दो दर्जन गांवों के करीब पांच हजार लोगों को लाभ मिल रहा है । हर कृत्रिम ग्लेशियर एक दूसरे से सटे दो गांवों की जरूरत को पूरा करने में सक्षम है । 
दुनिया में ८५ करोड़ ३० लाख लोग मर रहे हैं भूखे
दुनिया में ८५ करोड़ ३० लाख लोग भुखमरी का शिकार है । जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों और हिसंक संघर्षो के कारण पिछले एक दशक में पहली बार इस वैश्विक स्तर पर भुखमरी में ११ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है । 
संयुक्त राष्ट्र की ओर से २०३० तक के लिए तय सतत विकास लक्ष्य के तहत पहली बार वैश्विक स्तर पर खाद्य सुरक्षा और पोषण पर रोम में जारी की गयी रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है । रिपोर्ट में कहा गया है कि गत वर्ष भूखे लोगों की संख्या दुनिया में जहां ८१ करोड़ ५ लाख थी वहीं इस साल तीन करोड़ ८० लाख बढ़कर ८५ करोड़ ३ लाख हो गयी है । इसके पीछे जलवायु परिवर्तन और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में हो रहे हिंसक संघर्षो की बड़ी भूमिका है । 
संयुक्त राष्ट्र की पंाच प्रमुख एजेंसियों के अध्यक्षों ने रिपोर्ट की संयुक्त प्रस्तावना में लिखा है यह खतरे की घंटी है जिसे हम अनसुना नहीं कर सकते, जब तक हम मिलकर खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करने वाले कारणों को खत्म करने का प्रयास नहीं करेगे, तब तक २०३० तक दुनिया से कुपोषण खत्म करने का लक्ष्य हासिल नहीं हो पाएगा । एक सुरक्षित और समग्र रूप से विकसित समाज के लिए यह पहली शर्त है । 
रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में भुखमरी और कुपोषण से ग्रस्त बच्चें की संख्या सबसे ज्यादा हिसाग्रस्त क्षेत्रों में है । दक्षिणी सूडान इसका ज्वलंत उदाहरण है । इस साल के शुरू में यहां अकाल पड़ा था । युद्ध ग्रस्त नाइजीरिया, सोमालिया और यमन में भी कुछ ऐसे ही हालात हैं ।  संयुक्त राष्ट्र के अनुसार जिन क्षेत्रों में शांति है वहां भी हालात सामान्य नहीं है । वहां जलवायु परिवर्तन कहर बरपा रहा है । 
अब नीनो के प्रभाव से इन क्षेत्रों में सूखे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक  विपदाएं खाद्यान्न संकट उत्पन्न कर रही है । इसके अलावा वैश्विक आर्थिक मंदी ने भी हालात खराब किए है । यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन, अंतरराष्ट्रीय कृषि विकास कोष, बाल विकास कोष, विश्व खाद्य कार्यक्रम और विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से मिलकर तैयार की गयी है । 
सालाना ८३० करोड़ यूनिट बिजली पैदा करने का लक्ष्य
देश में वर्ष २०२२ तक धरती के भीतर मौजूद गर्मी से भी बिजली बनाने के लिये सरकार ने अगले पांच साल में भू-तापीय ऊर्जा (जियोथर्मल) से १,००० मेगावाट क्षमता के प्लांट स्थापित करने का लक्ष्य रखा है । इससे सालाना औसतन ८३० करोड़ यूनिट बिजली पैदा हो सकती है । नवीन व नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रायल (एमएनआरई) इस दिशा में तेजी से काम कर रहा है । देशभर में ऐसी जगहों की पहचान भी कर ली गई है जहां जियोथर्मल से बिजली बनाई जा सकती है । 
केन्द्रीय विद्युत नियामक आयोग (सीईआरसी) ने इसकी लागत का भी अनुमान लगा लिया है । एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि  जियोथर्मल से देश में १०,००० मेगावाट तक बिजली पैदा की जा सकती है । ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) और एमएनआरई इस पर शोध कर रहा है । देशभर में ३४० ऐसी जगहें चिन्हित कर ली गई है, जहां पृथ्वी में मौजूद गर्मी से बिजली बनाई जा सकती है । यह इलाके ११ राज्यों में है । इनमें जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, ओडिशा, आंधप्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य शामिल है । 
पृथ्वी में ३ से ४ किलोमीटर गहराई (क्रस्ट) में उष्मा गर्म चट्टान या पानी के रूप में मौजूद है । इससे बनने वाली बिजली को भू-तापीय (जियोथर्मल) बिजली कहते है । इसके लिए चिन्हित जगहों में से अधिकतर पर पृथ्वी के अंदर का तापमान ३५ डिग्री सेल्सियस है । कुछ जगह बॉयटिंग पाइंट तापमान ८४ डिग्री सेल्सियस तक है । छत्तीसगढ़ के सरगुजा में यह ९८ डिग्री सेल्सियस तक पाया गया है । 
जियोथर्मल प्लॉट से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन लगभग न के बराबर होता है । यह पर्यावरण के लिए अच्छा है । पृथ्वी में उष्मा लगातार बनती रहती है । यह खत्म नहीं होती इसीलिए जियोथर्मल को अक्षय ऊर्जा का दर्जा दिया गया है । 
जियोथर्मल का एक मेगावाट का प्लांट लगाने के लिए सिर्फ ०.७५-१.२ एकड़ जमीन चाहिए । सोलर प्लांट मे ५-८ एकड़ जमीन लगती है । देश में एनटीपीसी, एनएचपीसी ओएनजीसी जैसी सरकारी कंपनियों के साथ टाटा पावर जैसी निजी क्षेत्र की कंपनियां जियोथर्मल से बिजली बनाने की संभावना तलाश रही है । 

कोई टिप्पणी नहीं: