रविवार, 29 अगस्त 2010

१२ सामाजिक पर्यावरण

नए कानून के नए शिकार
चिन्मय मिश्र

सूचना का अधिकार कानून के सहारे गुजरात के गिर जंगलों में अवैध खनन के खिलाफ संघर्ष करने वाले ३३ वर्षीय अमित जेठवा की हत्या के साथ इस वर्ष के पहले सात महिनोंमें सूचना का अधिकार कानून के कार्यकर्ताआें की हुई हत्याआें की संख्या ८ तक पहुंच गई है ।
अमित जेठवा की २० अक्टूबर को अहमदाबाद उच्च् न्यायालय परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी । इस वर्ष ३ जनवरी को सतीश शेटट्ी की पूणे महाराष्ट्र, ११ फरवरी को विश्राम लक्ष्मण डोडिया की अहमदाबाद, गुजरात, १४ फरवरी को शशिधर मिश्रा, बेगूसराय, बिहार, २६ फरवरी को अरूण सावंत, बदलापुर महाराष्ट्र ११ अप्रेल को सोला रंगाराव, कृष्णा जिला आंधप्रदेश, २१ अप्रैल को विठ्ठल गीते, बीड जिला महाराष्ट्र और ३१ मई की दत्ता पाटिल, कोल्हापुर महाराष्ट्र की भी नृशंस हत्याएं कर दी गई थीं ।
उपरोक्त सभी हत्याआें के संबंध में संबंधित राज्य सरकारों को एक रटा-रटाया जवाब है, मामले की जांच चल रही है । हम शीघ्र की दोषी को पकड़ लेंगे । गौरतलब है कि जिन ८ आर.टी.आई. कार्यकर्ताआें की हत्या हुई है, उनमें से दो कार्यकर्ताआें सतीश शेटट्ी और विश्राम लक्ष्मण डोडिया ने तो संबंधित राज्य सरकारों से पुलिस सुरक्षा की भी मांग की थी, जिस पर सरकार ने ध्यान ही नहीं दिया ? नतीजा सबके सामने है । इसके अलावा पिछले ७ महीनों में देशभर में आर.टी.आई. कार्यकर्ताआें पर २० गंभीर प्राणघातक हमले भी हुए हैं ।
इन घटनाआें ने अक्टूबर २००५ से अस्तित्व में आए सूचना का अधिकार कानून के खतरनाक पक्ष को सामने ला खड़ा किया
है । इनमें यह संदेश भी जा रहा है कि भारत में कानून का इस्तेमाल सिर्फ शासन और प्रशासन जनता के खिलाफ कर सकता है । अगर जनता सूचना का अधिकार कानून के माध्यम से किसी को कटघरे में खड़ा करना चाहती है तो उसका हश्र भी देख लो । इस संदर्भ में भारत के मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह का कहना है, सूचना का अधिकार कानून का प्रभाव अब स्पष्ट रूप से दिखने लगा है, जो लोग सूचना को बाहर नहीं आने देना चाहते वे खतरनाक तरीके अपना रहे हैं ।
सवाल यह उठता है कि अंतत: सूचना कौन-कौन दबाना चाहते हैं ? इसमें सिर्फ वे गैर सरकारी व्यक्ति नहीं हैं, जो अपने विरूद्ध संभावित कार्यवाही से दुख की बात है कि आरटीआई कार्यकर्ताआें को सरकारी उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ रहा है । पिछले वर्ष से दिल्ली स्थित पब्लिक काज रिसर्च फाउंडेशन ने सूचना का अधिकार कार्यकर्ताआें के लिए एक राष्ट्रीय पुरस्कार देने की शुरूआत की है । इसके अंतर्गत प्रथम पुरस्कार प्राप्त् करने वाले आरटीआई कार्यकर्ता आसाम के अखिल गोगोई को भ्रष्टाचार के मामले सामने लाने की सजा के बतौर कई बार जेल भी जाना पड़ा था । देशभर में ऐसे अनगिनत मामले सामने आ रहे हैं ।
देश का शासन, प्रशासन, उद्योग वर्ग, बाहुबली, भू-माफिया आदि यह बात हजम ही नहीं कर पा रहे हैं कि उनसे कोई कुछ पूछ भी सकता है । प्रधानमंत्री के स्तर पर इस कानून मेंबदलाव की पैरवी होने से इन तत्वों के हौंसले एकाएक बढ़ते नजर आ रहे हैं । आजादी के ६ दशक बाद पहली बार जनता को पूछने का हक मिलने से यह काफी संतोष का अनुभव कर रही थी । परंतु इन हिंसक वारदातों के माध्यम से उनका मनोबल तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है । इस बीच उत्तरप्रदेश के सूचना आयुक्त ब्रजेश कुमार मिश्रा ने एक शिकायतकर्ता रामसेवक वर्मा के खिलाफ पुलिस जांच के आदेश दिए हैं। सूचना आयुक्त का मानना है कि यह व्यक्ति सरकारी अधिकारियों को परेशान करता है । अब इसके बाद और क्या कहा जा सकता है ?
इस संदर्भ में एक और घटना पर गौर करना आवश्यक है । मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले में जागृत आदिवासी दलित संगठन, महात्मा गांधी नरेगा, स्वास्थ्य सेवाआें में अनियमितताआें, राशन दुकानों से खाद्य वितरण जैसी समस्याआें के संबंध मेंकई बार आरटीआई के माध्यम से जानकारी लेकर और कई बार सीधे भी संघर्ष करता है । आदिवासियों का संघर्ष पूर्णत: शांतिपूर्ण होता है । इसलिए प्रशासन उनके विरूद्ध ज्यादा सख्त धाराएं लगाने में असमर्थ रहता है । आदिवासियों में बढ़ती जागरूकता को दबाने के लिए अंतत: प्रशासन ने अपने हथकंडे अपनाए ओर इस संगठन के प्रमुख कार्यकर्ता वालसिंह को लूट और लकड़ी की तस्करी के आरोप में गिरफ्तारी कर लिया । इस प्रकार भ्रष्टाचार का विरोध कराने वाला स्वयं ही अपराधी करार कर दिया गया । यही वास्तविक भारतीय शासनतंत्र है ।
यह लेख लिखते-लिखते ही समाचार मिला कि उत्तरप्रदेश के बहराइच जिले के कटघर गांव का रहने वाला विजय बहादुर उर्फ बब्बूसिंह जो लखनऊ में होमगार्ड में पदस्थ था, उसने अपने गांव में हो रहे निर्माण में बरती जा रही अनियमितताआें को लेकर आरटीआई के अंतर्गत आवेदन दिया था । इस बार जब वह गांव मेंआया तो संबंधित पक्षों ने २७ जुलाई को उसकी हत्या कर दी । इस तरह इस साल हत्याआें का यह आंकड़ा ९ तक पहुंच चुका है । पूणे महाराष्ट्र में मारे गए सतीश शेटट्ी ने १० वर्ष पूर्व पूणे मुम्बई एक्सप्रेस-वे परियोजना में हुए भूमि सौदों में भ्रष्टाचार उजागर किया था । वर्तमान में वे एक कंपनी द्वारा धोखाधड़ी करके अधिग्रहित की गई १८०० एकड़ भूमि से संबंधित दस्तावेजों को शासन से प्राप्त् करने में प्रयासरत थे । वही बब्बू सिंह इसके मुकाबले बहुत छोटे भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करना चाहते थे । परंतु दोनों को अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ा ।
आरटीआई कार्यकर्ता आम आदमी की तकलीफों को समझते हुए स्वयं को एक हथियार में परिवर्तित कर रहे हैं । सेना में संघर्ष के दौरान हुई मृत्यु को सर्वोच्च् बलिदान की संज्ञा दी जाती है । हम सबके लिए संघर्ष करने वालों के बलिदान को क्या इससे कमतर आंका जा सकता है ? मगर यह हम सबका दुर्भाग्य है कि इन कार्यकर्ताआें की असामाजिक मृत्यु अभी भी हत्या की श्रेणी तक ही पहुंची हैं । हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारे ये कार्यकर्ता शहीद हैं और उन्होंने देशहित में सर्वोच्च् बलिदान दिया है ।
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