धरती क्यों सूखी, बारिश क्यों रूठी ?
श्वेता आनंद
मानसून का लगातार अनियमित होना भविष्य के लिए खतरे की घंटी है । भूजल का कम से कम दोहन और पानी की अधिक खपत करने वाली फसलों की बुआई कम करके ही हम स्वयं को बचा सकते हैं ।
देश में पड़ रही भीषण गर्मी और बारिश में होने वाली देरी से सभी परेशान है और देवताआें को मनाने का सिलसिला भी शुरू हो चुका है । बारिश लोगों के लिए उत्सव और खुशी का माहौल लेकर आती है । यह देश के लिए किसी वरदान से कम नहींहोती ।
मानसून का खेती के संदर्भ में प्रभाव नेशनल अकेडमी ऑफ एग्रीकलचर रिसर्च मेनेजमेंट, हेदराबाद के निदेशक डॉ.प्रमोद कुमार जोशी कहते हैंकि कृषि आज भी हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में १५.७ प्रतिशत का एक बड़ा हिस्सा देती है । भारत की लगभग आधी आबादी आज भी खेती पर ही निर्भर है । अभी मानसून के दगा देने से बाढ़, सूखा अथवा अपर्याप्त् मदद की वजह से खेती आजीविका के लिए उतनी आकर्षक नहीं रह गई है ।
भारत की १४ करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि में से ८ करोड़ हेक्टेयर बारिश पर ही निर्भर, लगभग ६० प्रतिशत खेती कृत्रिम रूप से सिंचित भूमि के सहारे हैं जो खेत में उपलब्ध भूजल पर ही निर्भर करता है, न कि नहरों या बाँधों पर (लेकिन यह भूजल भी उसी समय भरेगा जब अच्छी बारिश होगी) । ऐसी धारणा बनी हुई है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तरप्रदेश का हरित और उपजाऊ क्षेत्र बाँधों के पानी के कारण है, जबकि ऐसा नहीं है, यह इलाका अधिकतर भूजल द्वारा ही सिंचित है ।
वरिष्ठ पर्यावरणकर्मी अनुपम मिश्र कहते हैं, हजारों वर्षोंा से भारत के किसान बारिश पर ही निर्भर रहते आए हैं, सो वे जानते हैं कि परिस्थिति का सामना कैसे किया जाये, कौन सी फसल ली जाए, किसी जगह ली जाए, वर्ष के किस समय ली जाए आदि । हम ज्ञान उनका परम्परागत ज्ञान है, दुर्भाग्य से आज की हालत यह हो गई है कि इन किसानों की जरूरत को सरकारों और बाजार की शक्तियों द्वारा मिल-जुलकर नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है ।
भारत में वर्षाकाल सामान्यतौर पर जून से सितम्बर तक होता है । देश में वर्षा बहुत अधिक भिन्नता लिए होती है । जैसे राजस्थान के कई भागों में बारिश का वार्षिक औसत सिर्फ १०० मि.मी. है तो दूसरी तरफ मेघालय में अधिकतम ११,००० मि.मी. बारिश भी हो जाती है । जाहिर है कि तर्कसंगत रूप से भिन्नता लिए हुए फसलें उगाना ही सही रहेगा ।
उत्तराखण्ड में बड़े बांधों के निर्माण के खिलाफ आंदोलन चलाने वाले विमलभाई कहते हैं, हम लोग प्रकृति द्वारा मानव प्रजाति को विभिन्न प्रकार के भोज्य देने की क्षमता के प्रति सम्मान नहीं दिखा रहे, जबकि प्रकृति अलग-अलग मौसम और क्षेत्र के अनुसार अनाज, सब्जियाँ और फल उत्पादन करने में सक्षम है । हम लोग ठण्ड के दिनों में आम की माँग करते हैं और गर्मियों मे संतरों की ।
खाद्य पदार्थोंा की विविधता में कमी तथा किसानों द्वारा उगाई जाने वाली फसलों के बाजारीकरण से विजय जड़धारी भी बहुत परेशान हैं । उनके बीज बचाआें आंदोलन ने उत्तराखंड में बेहतरीन काम किया है और इस सत्याग्रही आंदोलन के कारण कई खाद्य फसलें, सब्जियों, बीजों, पेड़ों और मसालों को भी संरक्षित करने में सफलता हासिल हुई हे। जिन दिनों भारत में कृषि परम्परागत और मुख्य व्यवसाय माना जाता था उस समय प्रमुख भोज्य पदार्थ रागी ज्वार और बाजरा ही थे, जो बेहद पौष्टिक और सूखा प्रतिरोधी भी थे । लेकिन धीरे-धीरे इस भोजन को गँवार का भोजन (जिसे गाँव वाले खाते हैं ) कहकर दुष्परिणाम किया जाने लगा और उसकी जगह ले ली, चावल और गेहूँ ने जो खाने में स्वादिष्ट है, छूने में कोमल लगते हैं और अमीरों की आँखों को भाते हैं । इसका प्रचार होने के कारण लोग इसे अधिक खाने लगे जिससे इन खाद्य जिंसों का बड़ा बाजार तैयार हो गया । मजबूरी में किसान अधिक पानी पर आधारित तथा रासायनिक उर्वरकों से भरपूर गेहूं-चावल की फसलें उगाने लगे ।
प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए बनाये गए कार्यक्रम भारत निर्माण को प्रचारित करते हुए अक्सर इस बात पर जोर दिया है कि कृषि उत्पादन वृद्धि के लिए गाँवोंमें मानव निर्मित सिंचाई प्रणाली को बढ़ावा दिया
जाएगा । जल भण्डारण और बड़ी-बड़ी सिंचाई परियोजनाएं बीते वर्षोंा के दौरान लगातार असफल सिद्ध हुई हैं । उनसे होने वाली सिंचाई घट रही है, जिससे खेती के कामों का दायरा घट रहा है । एक तरफ बड़े बाँधों और परियोजनाआें के कारण आम जनता के कर (टेक्स) का पैरा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता
है, वहीं इनके कारण सिंचित जमीन के बड़े हिस्से में भी प्रतिवर्ष कमी आ रही है । उपरोक्त तथ्य प्रसिद्ध पर्यावरणविद् हिमांशु ठक्कर द्वारा केन्द्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा सूचना के अधिकार तहत माँगी गई जानकारी के दस्तावेजों में सामने आया है ।
हिमांशु ठक्कर का कहना है कि अधिकारिक आँकड़ों के अनुसार भारत में पिछले १५ वर्ष में बड़ी और मझोले आकार की सिंचाई परियोजनाआें पर एक लाख बयालीस हजार करोड़ रूपया खर्च किया जा चुका है, लेकिन सिंचित भूमि के क्षेत्रफल में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो सकी है, जबकि भारत निर्माण के प्रमुख लक्ष्यों में से एक है सिंचित भूमि को अधिक से अधिक बढ़ाना । यहाँ तक कि इसके पहले चलने वाला कार्यक्रम, जिसे एक्सेलेरेटेड ईरिगेशन बेनेफिट्स प्रोग्राम कहा जाता था, उसमें भी सिंचित भूमि के रकबे में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई थी । बल्कि इसके उलट बड़ी सिंचाई परियोजनाआें के कारण सिंचित भूमि के क्षेत्र में२४ लाख हेक्टेयर की कमी आ गई थी ।
अनुपम मिश्र कहते हैं कि कम से कम पानी एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें भारत कतई गरीब नहीं है, राजस्थान के कई इलाकों में लोग आज भी परम्परागत तरीके से बारिश का पानी एकत्रित करते हैं, और कम से कम पानी में भी कई प्रकार की फसलें उगा लेते हैं ।
पानी के भारी दुरूपयोग और कुप्रबन्धन के बारे में खाद्य और कृषि नीति विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा कहते हैंकि राजस्थान के कुछ शहरों में बड़े-बड़े गोल्फ कोर्स, होटल बडे भवन गन्ने के खेत और संगमरमर की खदानों में पानी की भारी बरबादी की जा रही है । इन सभी की वजह से भूजल तेजी से नीचे जा रहा है । उदाहरण के लिए एक १८ होल वाले गोल्फ के मैदान को हराभरा रखने के लिए जितना साफ पानी उपयोग में लिया जाता है, उतने मे ं२०,००० घरों की पानी की जरूरत पूरी की जा सकती है ।
भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) मानसूनकी भविष्यवाणी सही तरीके से नहीं बता सक ने की वजह से लोगों के गुस्से का केन्द्र बना हुआ है । विज्ञान लेखक पल्लव बागला कहते हैं कि भारत में १९९४ में भीषण बाढ़ आई थी, और १९८७, २००२, २००४ और २००९ में सूखा पड़ा था, जबकि मौसम विभाग ने २०१० में भी सामान्य मानसून की भविष्यवाणी की है । श्री बागला कहते हैं कि इतने महत्वपूर्ण विभाग को किसानों तथा नीति निर्माताआें को मौसम के बारे में एकदम सटीक जानकारी देने में सक्षम होना चाहिए, ताकि वे अच्छी अथवा बुरी से बुरी स्थिति के लिए भी खुद को तैयार कर सकें । पिछले वर्ष भी सामान्य मानसून की घोषणा के बावजूद देश में बारिश औसतन २२ प्रतिशत कम हुई, जिसका सीधा असर चावल की कमी के रूप में हुआ तथा खाद्य पदार्थोंा की मुद्रास्फीति बढ़ती चली गई । ऐसी स्थिति में गरीब किसान सबसे अधिक प्रभावित होता है ।
अच्छी फसल और बारिश की सटीक भविष्यवाणी के बीच सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए राष्ट्रीय जलवायु केन्द्र के निदेशक डी.एस.पई कहते हैंकि यदि अगले दिन बारिश होने की सटीक सम्भावना व्यक्त की जायेगी तो किसान खेतों में सिंचाई नहीं करेगा वरना उसके खेतों में अधिक पानी जमा हो सकता है, जो फसल के लिए नुकसानदायक होगा । मौसम विभाग आम जनता से मौसम सम्बन्धी महत्वपूर्ण आँकड़े छिपाकर रखता है । यदि मौसम विभाग विभिन्न जिलों और तहसीलों के मौसम तथा बारिश सम्बन्धी आँकड़ों का सतत अध्ययन करता रहता तो सूरत में २००६, उड़ीसा में २००८ तथा दामोदर घाटी में २००९ की बाढ़ से होने वाली जन-धन की हानि को रोका जा सकता था ।
सन् २००९ में नासा की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के प्रमुख अन्न उत्पादन क्षेत्र, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भूजल की स्थिति बेहद खराब हो चुकी है । पानी के भारी दुरूपयोग और तथाकथित विकास के नाम पर भवन निर्माण गतिविधियों के चलते जमीन का अधिकर पानी सोखा जा चुका है, जिसे जल्दी से रिचार्ज कर पाना अब असम्भव है । क्योंकि भूजल रिचार्ज करने के लिये प्रकृति की अपनी एक समय सीमा होती है । हमें उस प्राकृतिक प्रकिया का सम्मान करना चाहिए और भूजल को उपयोग सीमित करने के साथ-साथ भूजल पुनर्भरण पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
मानसून को दोष देने की बजाय हमें अपने अन्दर झाँककर देखना चाहिए, कि हम प्रकृति के कितने बड़े दोषी हैं । स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए हमें प्रकृति के साथ चलना होगा, जब हम उसे इतना बिगाड़ चुके हैं तो उसे सुधारने के लिए एक निश्चित वक्त तो देना ही होगा । बात-बात पर मानसून को दोष देने पर बात नहीं बनेगी ।
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देश में पड़ रही भीषण गर्मी और बारिश में होने वाली देरी से सभी परेशान है और देवताआें को मनाने का सिलसिला भी शुरू हो चुका है । बारिश लोगों के लिए उत्सव और खुशी का माहौल लेकर आती है । यह देश के लिए किसी वरदान से कम नहींहोती ।
मानसून का खेती के संदर्भ में प्रभाव नेशनल अकेडमी ऑफ एग्रीकलचर रिसर्च मेनेजमेंट, हेदराबाद के निदेशक डॉ.प्रमोद कुमार जोशी कहते हैंकि कृषि आज भी हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में १५.७ प्रतिशत का एक बड़ा हिस्सा देती है । भारत की लगभग आधी आबादी आज भी खेती पर ही निर्भर है । अभी मानसून के दगा देने से बाढ़, सूखा अथवा अपर्याप्त् मदद की वजह से खेती आजीविका के लिए उतनी आकर्षक नहीं रह गई है ।
भारत की १४ करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि में से ८ करोड़ हेक्टेयर बारिश पर ही निर्भर, लगभग ६० प्रतिशत खेती कृत्रिम रूप से सिंचित भूमि के सहारे हैं जो खेत में उपलब्ध भूजल पर ही निर्भर करता है, न कि नहरों या बाँधों पर (लेकिन यह भूजल भी उसी समय भरेगा जब अच्छी बारिश होगी) । ऐसी धारणा बनी हुई है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तरप्रदेश का हरित और उपजाऊ क्षेत्र बाँधों के पानी के कारण है, जबकि ऐसा नहीं है, यह इलाका अधिकतर भूजल द्वारा ही सिंचित है ।
वरिष्ठ पर्यावरणकर्मी अनुपम मिश्र कहते हैं, हजारों वर्षोंा से भारत के किसान बारिश पर ही निर्भर रहते आए हैं, सो वे जानते हैं कि परिस्थिति का सामना कैसे किया जाये, कौन सी फसल ली जाए, किसी जगह ली जाए, वर्ष के किस समय ली जाए आदि । हम ज्ञान उनका परम्परागत ज्ञान है, दुर्भाग्य से आज की हालत यह हो गई है कि इन किसानों की जरूरत को सरकारों और बाजार की शक्तियों द्वारा मिल-जुलकर नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है ।
भारत में वर्षाकाल सामान्यतौर पर जून से सितम्बर तक होता है । देश में वर्षा बहुत अधिक भिन्नता लिए होती है । जैसे राजस्थान के कई भागों में बारिश का वार्षिक औसत सिर्फ १०० मि.मी. है तो दूसरी तरफ मेघालय में अधिकतम ११,००० मि.मी. बारिश भी हो जाती है । जाहिर है कि तर्कसंगत रूप से भिन्नता लिए हुए फसलें उगाना ही सही रहेगा ।
उत्तराखण्ड में बड़े बांधों के निर्माण के खिलाफ आंदोलन चलाने वाले विमलभाई कहते हैं, हम लोग प्रकृति द्वारा मानव प्रजाति को विभिन्न प्रकार के भोज्य देने की क्षमता के प्रति सम्मान नहीं दिखा रहे, जबकि प्रकृति अलग-अलग मौसम और क्षेत्र के अनुसार अनाज, सब्जियाँ और फल उत्पादन करने में सक्षम है । हम लोग ठण्ड के दिनों में आम की माँग करते हैं और गर्मियों मे संतरों की ।
खाद्य पदार्थोंा की विविधता में कमी तथा किसानों द्वारा उगाई जाने वाली फसलों के बाजारीकरण से विजय जड़धारी भी बहुत परेशान हैं । उनके बीज बचाआें आंदोलन ने उत्तराखंड में बेहतरीन काम किया है और इस सत्याग्रही आंदोलन के कारण कई खाद्य फसलें, सब्जियों, बीजों, पेड़ों और मसालों को भी संरक्षित करने में सफलता हासिल हुई हे। जिन दिनों भारत में कृषि परम्परागत और मुख्य व्यवसाय माना जाता था उस समय प्रमुख भोज्य पदार्थ रागी ज्वार और बाजरा ही थे, जो बेहद पौष्टिक और सूखा प्रतिरोधी भी थे । लेकिन धीरे-धीरे इस भोजन को गँवार का भोजन (जिसे गाँव वाले खाते हैं ) कहकर दुष्परिणाम किया जाने लगा और उसकी जगह ले ली, चावल और गेहूँ ने जो खाने में स्वादिष्ट है, छूने में कोमल लगते हैं और अमीरों की आँखों को भाते हैं । इसका प्रचार होने के कारण लोग इसे अधिक खाने लगे जिससे इन खाद्य जिंसों का बड़ा बाजार तैयार हो गया । मजबूरी में किसान अधिक पानी पर आधारित तथा रासायनिक उर्वरकों से भरपूर गेहूं-चावल की फसलें उगाने लगे ।
प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए बनाये गए कार्यक्रम भारत निर्माण को प्रचारित करते हुए अक्सर इस बात पर जोर दिया है कि कृषि उत्पादन वृद्धि के लिए गाँवोंमें मानव निर्मित सिंचाई प्रणाली को बढ़ावा दिया
जाएगा । जल भण्डारण और बड़ी-बड़ी सिंचाई परियोजनाएं बीते वर्षोंा के दौरान लगातार असफल सिद्ध हुई हैं । उनसे होने वाली सिंचाई घट रही है, जिससे खेती के कामों का दायरा घट रहा है । एक तरफ बड़े बाँधों और परियोजनाआें के कारण आम जनता के कर (टेक्स) का पैरा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता
है, वहीं इनके कारण सिंचित जमीन के बड़े हिस्से में भी प्रतिवर्ष कमी आ रही है । उपरोक्त तथ्य प्रसिद्ध पर्यावरणविद् हिमांशु ठक्कर द्वारा केन्द्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा सूचना के अधिकार तहत माँगी गई जानकारी के दस्तावेजों में सामने आया है ।
हिमांशु ठक्कर का कहना है कि अधिकारिक आँकड़ों के अनुसार भारत में पिछले १५ वर्ष में बड़ी और मझोले आकार की सिंचाई परियोजनाआें पर एक लाख बयालीस हजार करोड़ रूपया खर्च किया जा चुका है, लेकिन सिंचित भूमि के क्षेत्रफल में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो सकी है, जबकि भारत निर्माण के प्रमुख लक्ष्यों में से एक है सिंचित भूमि को अधिक से अधिक बढ़ाना । यहाँ तक कि इसके पहले चलने वाला कार्यक्रम, जिसे एक्सेलेरेटेड ईरिगेशन बेनेफिट्स प्रोग्राम कहा जाता था, उसमें भी सिंचित भूमि के रकबे में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई थी । बल्कि इसके उलट बड़ी सिंचाई परियोजनाआें के कारण सिंचित भूमि के क्षेत्र में२४ लाख हेक्टेयर की कमी आ गई थी ।
अनुपम मिश्र कहते हैं कि कम से कम पानी एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें भारत कतई गरीब नहीं है, राजस्थान के कई इलाकों में लोग आज भी परम्परागत तरीके से बारिश का पानी एकत्रित करते हैं, और कम से कम पानी में भी कई प्रकार की फसलें उगा लेते हैं ।
पानी के भारी दुरूपयोग और कुप्रबन्धन के बारे में खाद्य और कृषि नीति विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा कहते हैंकि राजस्थान के कुछ शहरों में बड़े-बड़े गोल्फ कोर्स, होटल बडे भवन गन्ने के खेत और संगमरमर की खदानों में पानी की भारी बरबादी की जा रही है । इन सभी की वजह से भूजल तेजी से नीचे जा रहा है । उदाहरण के लिए एक १८ होल वाले गोल्फ के मैदान को हराभरा रखने के लिए जितना साफ पानी उपयोग में लिया जाता है, उतने मे ं२०,००० घरों की पानी की जरूरत पूरी की जा सकती है ।
भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) मानसूनकी भविष्यवाणी सही तरीके से नहीं बता सक ने की वजह से लोगों के गुस्से का केन्द्र बना हुआ है । विज्ञान लेखक पल्लव बागला कहते हैं कि भारत में १९९४ में भीषण बाढ़ आई थी, और १९८७, २००२, २००४ और २००९ में सूखा पड़ा था, जबकि मौसम विभाग ने २०१० में भी सामान्य मानसून की भविष्यवाणी की है । श्री बागला कहते हैं कि इतने महत्वपूर्ण विभाग को किसानों तथा नीति निर्माताआें को मौसम के बारे में एकदम सटीक जानकारी देने में सक्षम होना चाहिए, ताकि वे अच्छी अथवा बुरी से बुरी स्थिति के लिए भी खुद को तैयार कर सकें । पिछले वर्ष भी सामान्य मानसून की घोषणा के बावजूद देश में बारिश औसतन २२ प्रतिशत कम हुई, जिसका सीधा असर चावल की कमी के रूप में हुआ तथा खाद्य पदार्थोंा की मुद्रास्फीति बढ़ती चली गई । ऐसी स्थिति में गरीब किसान सबसे अधिक प्रभावित होता है ।
अच्छी फसल और बारिश की सटीक भविष्यवाणी के बीच सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए राष्ट्रीय जलवायु केन्द्र के निदेशक डी.एस.पई कहते हैंकि यदि अगले दिन बारिश होने की सटीक सम्भावना व्यक्त की जायेगी तो किसान खेतों में सिंचाई नहीं करेगा वरना उसके खेतों में अधिक पानी जमा हो सकता है, जो फसल के लिए नुकसानदायक होगा । मौसम विभाग आम जनता से मौसम सम्बन्धी महत्वपूर्ण आँकड़े छिपाकर रखता है । यदि मौसम विभाग विभिन्न जिलों और तहसीलों के मौसम तथा बारिश सम्बन्धी आँकड़ों का सतत अध्ययन करता रहता तो सूरत में २००६, उड़ीसा में २००८ तथा दामोदर घाटी में २००९ की बाढ़ से होने वाली जन-धन की हानि को रोका जा सकता था ।
सन् २००९ में नासा की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के प्रमुख अन्न उत्पादन क्षेत्र, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भूजल की स्थिति बेहद खराब हो चुकी है । पानी के भारी दुरूपयोग और तथाकथित विकास के नाम पर भवन निर्माण गतिविधियों के चलते जमीन का अधिकर पानी सोखा जा चुका है, जिसे जल्दी से रिचार्ज कर पाना अब असम्भव है । क्योंकि भूजल रिचार्ज करने के लिये प्रकृति की अपनी एक समय सीमा होती है । हमें उस प्राकृतिक प्रकिया का सम्मान करना चाहिए और भूजल को उपयोग सीमित करने के साथ-साथ भूजल पुनर्भरण पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
मानसून को दोष देने की बजाय हमें अपने अन्दर झाँककर देखना चाहिए, कि हम प्रकृति के कितने बड़े दोषी हैं । स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए हमें प्रकृति के साथ चलना होगा, जब हम उसे इतना बिगाड़ चुके हैं तो उसे सुधारने के लिए एक निश्चित वक्त तो देना ही होगा । बात-बात पर मानसून को दोष देने पर बात नहीं बनेगी ।
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