सोमवार, 30 अगस्त 2010

५ जनजीवन

पेड़-पौधों को बिसराता समाज

रवीन्द्र गिन्नौर

शहरों में रोशनीयुक्त प्लास्टिक के बड़े-बड़े पेड़ देखकर अजीब सी मितलाहट होती है । अगर शहरी बाग-बगीचों में प्राकृतिक वृक्षों एवं पौधों के लिए ही स्थान नहीं है तो इनके होने का क्या फायदा ? आवश्यकता इस बात की है कि शहरों को एक बार पुन: वृक्षों से आच्छादित करने के प्रयास पूरी ईमानदारी से प्रारंभ किए जाएं तभी हम जलवायु परिवर्तन की रफ्तार को धीमा कर सकते हैं ।
अधिकांश शहरवासियों का अब पेड़ों से कोई वास्ता नहीं रह गया है । पेड़-पौधों से जुड़े धार्मिक, सांस्कृतिक, रीति-रिवाजोंके लिए अब हमारे पास समय नहीं
है । दादी मां के नुस्खों को शहरियों ने तिलांजलि दे ही है । पेड़-पौधे पर शहरी जीवन की निर्भरता नहीं रही । धीरे-धीरे यह लगने लगा है कि पेड़-पौधे बेकार हैं । दरअसल पेड़-पौधों की उपयोगिता भरे ज्ञान को हम भूल गए
हैं । यही कारण है कि शहरी बंगलों में विदेशी फूलों के पौधे लगाए जाते हैं और सुंदर दिखने वाली पत्तियों को बड़े जतन से सहेजा जाता है ।
पश्चिमी संस्कृति की चलती बयार से हमारा पेड़-पौधों से रिश्ता टूट सा गया । घर-आंगन में तुलसी चौरा की अनिवार्यता अब कहीं नहीं दिखती । पूजा-अर्चना के लिए फूल एवं फूलमाला की अब कोई जरूरत नहीं रही । जैसे-जैसे परिवार टूटते गए, वैसे-वैसे घर छोटा होता चला गया । रेडी टू ईट के बाजार ने और कहर बरपाया । शहरों में जहां रहने की समस्या है, वहां पेड़-पौधे कैसे लगें ? वहीं दूसरी ओर आबाद होते शहर की चौड़ी होती सड़कें भी पेड़ों को लील रही है ?
दुनिया के बड़े शहर जलस्त्रोतों के किनारे बसे थे । शहरों में सड़कों के किनारे विशाल पेड़ लगाए जाते रहे हैं । नगर के बीच रमणीक उद्यान, अमराई भी दिखती थीं । मगर जमीन की बढ़ती कीमतों ने सब उजाड़ दिया । शहर में ऐसी कॉलोनी बन रही है, जहां न तालाब हैं और न ही पेड़-पौधों का कोई स्थान है । कहीं-कहीं पर्यावरण प्रेम दिखाने के लिए विदेशी पेड़ों को खूब लगाया गया है । ऐसे पेड़ स्थानीय जैव विविधता से बाहर है । अत: इनमें न कोई पक्षी घोंसला बनाता है न कोई कीट पतंगा उस पर आश्रित है ।
घर-आंगन की छोटी सी बगिया तुलसी, चमेली, मोगरा, रातरानी जैसे सुगंधित झाड़ियों से आबाद रहती थी । तुलसी, अदरक, बेल, नीम जैसे पेड़-पौधों का दैनिक जीवन में उपयोग होता रहा था । पेड़-पौधे दवा के भी काम आते थे । नीम की सर्वाधिक महत्ता रही है। इसका अनाज भंडारण के साथ शरीरिक व्याधि मेंभी उपयोग होता था ।
पीपल का पेड़ गांवों की चौपाल का जरूरी अंग था । पीपल का पेड़ सर्वाधिक ऑक्सीजन प्रदान करने वाला है । अब चौपालें भी कांक्रीट की बन चुकी हैं । नीम भी घर से ले लेकर खेती-किसानी के काम आता रहा
है । ग्रामीण जन-जीवन भी पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित होकर पेड़-पौधें से अपना नाता तोड़ रहा है । खेती किसानी रासायनिक खादों पर निर्भर हो चुकी है । पेड़-पौधों के पत्तियों की खाद व जैविक कीटनाशक गौण हो चुके हैं।
गांवों की बदलती आबोहवा में भी फास्ट फूड की घुसपैठ हो चुकी है । इसके कारण कई मौसमी फल पहुंच से बाहर हो चले हैं । मकोईया चार (चिरौंजी), तेन्दू, देशी बेर जैसे कई फलों के स्वाद से वर्तमान पीढ़ी वंचित हो रहीह े । कई तरह के स्वादिष्ट कंद जो अनेक रोगों की रामबाण दवा भी हैं, अब ग्रामीण बाजारों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं । पेड़-पौधें से जुड़ा गांव-गंवई का परम्परागत ज्ञान विलुप्त् हो रहा है । इस ज्ञान से अनजान ग्रामीणों का पेड़-पौधों के साथ सहजीवन परम्परा खत्म हो रही है ।
शहरी संस्कृति और टूटते परिवारों के कारण हमारे धार्मिक रीति-रिवाज, उत्सव अब नहीं हो रहे हैं । अधिकांश सांस्कृतिक पर्व, संस्कार जो पेड़-पौधों के बिना सम्पन्न नहीं होते, अब विस्मृत होते जा रहे हैं । वैशाख माह में वट वृक्ष पूजन, श्रावण मास में बेल पत्र का महत्व, कार्तिक माह की नवमी मे आंवला वृक्ष के नीचे भोजन करने का विशेष महत्व है। पेड़ों से जुड़े अनेक रीति-रिवाज दकियानूसी करार देकर उन्हें अपेक्षित कर दिया गया । आधुनिक युग में ट्री थेरेपी का मूलाधार यही परम्परागत ज्ञान है । वृक्ष वास्तु शास्त्र का आज बोलबाला है, जिसका उपयोग साधन सम्पन्न लोग ही कर रहे हैं ।
बचपन से ही हमारे संस्कार पेड़-पौधों से एक रिश्ता कायम करते थे । संस्कारित शिक्षा उस कान्वेंट शिक्षा के आगे बौनी पड़ गई, जो पेड़-पौधों से परिचित तो कराती है, मगर वह संस्कार नहीं दे पाती जो उनसे रिश्ता बनाता है । इसीलिए हमारे जीवन परिवेश में व दैनिक जीवनचर्या में पेड़-पौधों का उपयोग नहीं रह गया है ।
पेड़-पौधे हमें सब कुछ देते हैं । शुद्ध प्राण वायु के वाहक तो यही हैं । हमारी जैव विविधता सम्पदा इन्हीं के साथ जुड़ी हैं । घर-जंगल की बगिया में इठलाती तितली, गुंजन करते भौंरे, शहद बटोरती मधुमक्खी, कीट पतंगे धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं । पेड़ों के साथ हमारे टूटते रिश्ते से कई रोग फैलने लगे हैं । ऐसे रोगों के निदान के लिए हमारे पास समय है, मगर पेड़-पौधों को सहेजने का वक्त नहीं है । ऐसा क्यों ?
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