रविवार, 29 अगस्त 2010

११ कविता

हाय प्रदूषण
देवकीनंदन कुम्हेरिया

पों-पों, भों-भों का करें, ट्रक ट्रेक्टर मिल शोर ।
कैसिट भर्राटे भरें, साँझ गिनें ना भोर ।।
साँझ गिनें ना भोर, लाउडस्पीकर बारे ।
रहे खोपड़ी खाय, काल बन रहे हमारे ।।
कविनंदन बेमौसम ही, कर दीने बहरे ।
कौन इन्हें समझाय ? बुद्धि के बंदर ठहरे ।।

उड़कर धरती से धुआं, अम्बर पहुँचे जाय ।
बन तिजाव वो रहा है, बीमारी बरसाय ।।
बीमारी बरसाय, कि जो महिने में आता ।
उसमें से आधा तो, ओषधि में उड़ जाता ।।
जो जनजीवन चहो, प्रदूषण दूर भगाओ ।
पर्यावरण सुधारने को, मिल वृक्ष लगाओ ।।

नदियों के जल ने किया, सदा मनुज-कल्याण ।
रूप बिगाड़ा उसी का, रे पापी इन्सान ।।
रे पापी इन्सान ! डालकर गंदे नाले ।
जनजीवन हो गया, स्वार्थ के हाय हवाले ।।
नंदन जिसका नाम लिये, यम-छाँह न आती ।
लख कुकर्म मानव के, माँ यमुना डकराती ।।

जो दिन भर चुर्री चरें, या पीते हैं सिगरेट ।
वो नर जीवन कर रहे, अपना मटिया मेट ।।
अपना मटिया मेट, दूध छलनी में काढें ।
दोष और कूँ देत, भाग्य में खँूटा गाढें ।।
कविनंदन सोचो-समझोगे - सुख पाओगे ।
स्वस्थ रहे तो कुछ समाज को कर जाओगे ।।
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