पूंजीवाद में डूबता भारत
डॉ.बनवारीलाल शर्मा
आत्मनिर्भरता को पिछड़ापन मानने की भूल भारतीय राजनीतिज्ञ लगातार कर रहे हैं । परिणामस्वरूप देश के आर्थिक व प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एक बार पुन: विदेशी पूंजीपतियों के लिए प्रारंभ हो गया । चार सौ वर्ष पहले ईस्ट इंडिया कंपनी का गठन भारत व अन्य प्राकृतिक संसाधनों से भरे देशों पर कब्जे के लिए हुआ था । वर्तमान में ऐसी चार हजार बहुराष्ट्रीय कंपनियां सक्रिय हैं ।
देश इस समय एक नाजुक दौर से गुजर रहा है । कई तरह के बड़े संकट देश के सामने हैं । बड़े उद्योग और अन्य परियोजनाएं खड़ी करने के लिए खेती की जमीन पर बड़े पैमाने पर कब्जा हो रहा है और गांव उजाड़े जा रहे हैं । वर्ष २०५० तक देश की आधी आबादी को शहरों में बसाने की सरकार की योजना है । ऐसे में सवाल उठता है कि भारत तो गांवों का देश है, जब गांव ही नहीं बचेंगे तो भारत कैसे बचेगा ?
वर्तमान में देश की पूरी व्यवस्था जनविरोधी बन गई है । अर्थव्यवस्था और राजनीति पर बड़े-बड़े देशी-विदेशी कारपोरेट घराने वाली हो गए हैं । वे ही देश की राष्ट्रीय नीतियां बनवा रहे हैं । पहले अंग्रेजों का राज था, अब कारपोरेटों का राज खड़ा हो रहा है ।
देश में गरीबी भुखमरी और बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है । उस पर मंहगाई की मार तो आमजन की कमर ही तोड़ रही है । एक तरफ अरबपतियों-खरबपतियों की संख्या बढ़ रही है तो चौथा भारतीय भूखा है, आधी आबादी १२ रू. प्रतिदिन या उससे कम पर जिन्दगी ढो रही है, तीन चौथाई से ज्यादा लोग २०रू. या उससे कम पर गुजर-बसर कर रहे
हैं । सरकार को इन समस्याआें की कोई चिन्ता नहीं, वह तो वृद्धि दर ९ फीसदी लाने की रट लगा रही है । सबसे खतरनाक बात यह है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों-जमीन, जल, जंगल व खनिजों पर सरकार की मदद से बड़ी-बड़ी कम्पनियों का कब्जा हो रहा है । बड़ी संख्या में लोग उजड़ रहे हैं और विस्थापित हो रहे हैं ।
इन विकट समस्याआें से उबरने का कोई तरीका जनता नहीं निकाल पा रही है । सरकारी तंत्र लोगों का दु:ख दर्द नहीं सुनता बल्कि झूठे वायदे और प्रचार करता रहता है । अत: लोग जगह-जगह पर हिंसा का रास्ता पकड़ रहे हैं । इससे निपटने के लिए सरकार पुलिस राज खड़ा कर रही है । देश में गृहयुद्ध की परिस्थिति पैदा हो गई है ।
राष्ट्रीय स्तर पर चिन्ताजनक हालात बन गए हैं । पिछले कुछ वर्षोंा में अंतराष्ट्रीय पटल पर देश का सम्मान गिरा है । पूंजीवादी व साम्यवादी गुटों में बंटी दुनिया से भारत ने अपने को अलग रखा था । वह गुटनिरपेक्ष देशों का नेता रहा है जिनसे उसको आदर सम्मान मिला था । अब सरकार ने गुटनिरपेक्षता त्यागकर अमेरिकी पूंजीवादी गुट में देश को झोंक दिया है । हाल ही में कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन हुआ । उसमें सर्वमान्य मत था क्योटो प्रोटोकॉल कायम
रहे । पर अमेरिकी दबाव में भारत ने अपना यह मत त्याग दिया और अमेरिका से मिलकर एक नया समझौता स्वीकार किया जो तीसरी दुनिया के देशों ने भारत को खूब भला-बुरा कहा है । हम जानते हैं कि इस समय सरकार के बड़े-बड़े पदों पर जो लोग बैठे है वे विश्वबैंक व अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष के नौकर रहे हैंया बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के वकील और शेयर होल्डर रह चुके हैं। इसीलिए उनकी जवाबदेही जनता के प्रति नहीं बल्कि कहीं और है ।
ऐसे माहौल में जगह-जगह जो जनआंदोलन चल रहे हैं उनके लिए स्थान भी सिकुड़ रहा है । स्थानीय आंदोलन देशव्यापी आंदोलन नहींबन पा रहे हैं । साथ ही छात्र संगठन, मजदूर संगठन और किसान संगठन बेअसर होते जा रहे हैैं ।
इस संकट की बेला में सभी जनआंदोलनों, जन संगठनों और देश-समाज की चिंता करने वाले नागरिकों, समाजकर्मियों के सामने बड़ी ऐतिहासिक चुनौती है कि वे एकजुट होकर इस जनविरोधी व्यवस्था को बदलने के लिए देशव्यापी आंदोलन खड़ा करें। जिस कारपोरेटी विकास मॉडल को सरकार देश पर लाद रही है उसे नकारा जाए और उनकी जगह जनहितकारी मॉडल खड़ा किया जाए । संघर्ष और निर्माण का रास्ता अपनाकर देश में बराबरी और सच्ची लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम करने हेतु संग्राम छेड़ा जाए ।
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