रविवार, 29 अगस्त 2010

८ गांधी पर विशेष

गांधी का समाज परितर्वन का सपना
डॉ.कृष्णस्वरूप आनन्दी

महात्मा गांधी आजाद भारत के जिस स्वरूप की कल्पना कर रहे थे उसको यथार्थ में बदलने का उन्हें मौका नहीं मिला । वास्तव में वे मनुष्य के हृदय परिवर्तन के माध्यम से ही सामाजिक आर्थिक परितर्वन चाहते थे । जोर जबरदस्ती का विकल्प उनके लिए विकास का विदेशी पैमाना था ।
आजादी के बाद गांधी समाज परिवर्तन की दृष्टि से महत्वपूर्ण दो बुनियादी कार्यक्रमों जिसके पहला जमीन के स्वामित्व और वितरण को लेकर था तथा दूसरा ट्रस्टीशिप, को अंजाम देना चाहते थे । ये दोनों कार्यक्रम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
गांधी यह मानते थे कि जमीन, हवा, पानी, धूप जैसी जीवनदायिनी चीजें हमें प्रकृति द्वारा भेंट के रूप में मिली हैं । अत: इन पर किसी व्यक्ति अथवा औद्योगिक घराने का स्वामित्व हर्गिज नहीं होना चाहिए । ये साझी सम्पत्ति हैं और जन-जन को सुलभ रहनी चाहिए ।
हालांकि वे एकाधिकार और निजी स्वामित्व के धुर विरोधी थे, फिर भी वे यह मानते थे कि किसान के पास उतनी ही कृषियोग्य भूमि रहनी चाहिए जिस पर वह खुद अपने कुटुम्बजनों के साथ खेतीबाड़ी कर सके । जमीन को खुद जोत-बो सके, फसलें उगा सके, जैव विविधता एवं जमीन की उर्वरा शक्ति को हमेशा अक्षुण्ण रख सके । जो सच्च्े अर्थोंा में किसान हैं, वे चाहें तो बराबरी के स्तर पर मिलजुल करके आपसी समझदारी, सहभागिता और सहयोग वृत्ति से खेती में सहकारिता या सामूहिक का प्रयोग कर सकते हैं ।
अंग्रेजी राज के बाद गांधी खेती किसानी के क्षेत्र में एक नई क्रांति का सूत्रपात करना चाहते थे, जिसके तहत वे देशभर में भूमिहीन खेतिहर जनगण को जागरूक, संगठित, सक्रिय और आंदोलित करना चाहते थे । बेहद छोटी या सीमांत जोत वाले किसानों को भी इस मुहिम में शामिल किया जाना था । बड़े-बड़े जमींदार ट्रस्ट, ताल्लुकेदार राजे रजवाड़े और नवाब उनके निशाने पर थे । उनकी योजना थी कि इनके खिलाफ भूमिहीन खेतिहर जनता की अगुवाई मेंअचूक सत्याग्रह हो । यदि भूपतियों का हृदय परिवर्तन हो जाए तो अति उत्तम । अन्यथा लोग शांतिपूर्ण ढंग से सीधी कार्यवाही करने को स्वतंत्र होंगे । भूमिहीन व खेतिहर जनता जमींदार की व्यवस्था से पूर्ण असहयोग करेगी और यह भूमि सत्याग्रह सात्विक, शुद्ध और पवित्र उपायों से तब तक अनवरत चलता रहेगा, जब तक जमींदारी की व्यवस्था का अंत नहीं हो जाता ।
व्यक्तिगत स्वामित्व की संस्था का लोप-जिस प्रकार भूमि के मामले में निजी मिल्कियत का निषेध था और आखिरकार राज्य या समुदाय (समाज) को उसका असली स्वामी माना गया था (हां, यह जरूर था कि खुद से खेतीबाड़ी करने वाले किसान को गुजर बसर लायक जमीन की सुनिश्चित उपलब्धता की बात सोची गई थी ) ठीक उसी प्रकार व्यापक समाजोपयोगी वस्तुआें की उत्पत्ति या सेवाआें की आपूर्ति के वृहदकार, पूंजीप्रधान या केन्द्रीकृत संयंत्रों या साधनों पर भी गांधी ने सामुदायिक, सामाजिक या राज्यगत स्वामित्व का विचार रखा था । यहां भी उन्होंने मूलत: अपवाद के तौर पर यह माना था कि ये संयंत्र या साधन समाज या लोक के प्रति समर्पित पूंजीपतयों के संरक्षण में रह सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में कतई नहीं बल्कि समाज की बेशकीमती धरोहर के रूप में । इन औद्योंगिक प्रतिष्ठानों में सारा उत्पादन, निवेश या नियोजन व्यापक लोकहित की भावना से संचालित होगा ।
यहां सेवाआें का वस्तुआें का बहुतायत उत्पादन होगा । ये जन-जन तक पहुंचेंगी । इनमें से अधिकांश वस्तुएं या सेवाएं ऐसी होंगी, जिनका उपभोग विलासिता के तौर पर नहीं बल्कि बुनियादी आवश्यकता के रूप में व्यापक जन समुदाय द्वारा किया जायेगा अथवा जिन्हें विकेन्द्रीकृत, श्रम सघन व छोटी-छोटी विर्निमाण इकाईयां या कार्यशालाएं अनिवार्य साज सरजाम के रूप में इस्तेमाल करेंगी । ये इकाइयां स्थानीय आबादियों या समुदायों में अवस्थित संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए समुचित प्रविधि या तकनीक की मदद से लोगों के द्वारा उत्पादन करेंगी ।
ट्रस्टीशिप की अर्थव्यवस्था लागू करने के लिए शरूआती दौर में गांधी ने सत्याग्रह के माध्यम से पूंजीपतियों के हृदय परिवर्तन की बात कही थी । लेकिन उनका यह भी मानना कि अगर वे सामाजिक दबाव के आगे नहीं झुकते हैं यानी अपने उद्यमों के स्वत्वाधिकार को तिलांजली देकर अगर वे उनके ट्रस्टी या संरक्षक के रूप मेंअपनी सेवाएं देने को तैयार नहीं होते हैं तो न्यूनतम हिंसा का प्रयोग करके राज्य द्वारा उनके प्रतिष्ठानों का अधिग्रहण कर लिया जाएगा । हालांकि राज्य द्वारा ट्रस्टीशिप के सिद्धांत के क्रियान्वयन या उसके अर्थतंत्र के अधिष्ठान को वे अंतिम विकल्प के रूप में देखते थे । कारण वे राज्य को भी संगठित हिंसा का सगुण रूप मानते
थे ।
निजी स्वामित्व पर आधारित पूंजीवाद को बापू ने कभी स्वीकार नहीं
किया । निजी क्षेत्र तथा सार्वजनिक क्षेत्र इन दोनों से आगे बढ़कर वे समूची अर्थव्यवस्था को सामुदायिक क्षेत्र अथवा जनगण क्षेत्र की ओर ले जाना चाहते थे । ट्रस्टीशिप वास्तव में उसी दिशा में एक क्रांतिकारी कदम था ।
ट्रस्टीशिप केवल आर्थिक दर्शन नहीं है । वह राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कि आर्थिक क्षेत्र में । वह संपूर्णता का दर्शन है । लोकतंत्र के संदर्भ मेंट्रस्टीशिप सबसे ज्यादा मौजूं विचार है ।
लोकतंत्र में जनगण संप्रभु है । यह सारी सत्ता का उद्गम स्थल यानी स्त्रोत है । वह संपूर्ण सत्ता प्रतिष्ठान का स्वामी और सृष्टा है । उसके द्वारा चुने गए प्रतिनिधि उसकी तरफ से सारा राजकाज संभालते हैं । अत: जनतंत्र में प्रतिनिधियों को लोकसत्ता के ट्रस्टी के रूप में काम करना चाहिए ।
गांधी मानते थे हमारे पास जो भी विद्या, बुद्धि, कला या सर्जना है, वह सबकी है एवं सब समाज के लिए है । हमें उसका उपयोग सार्वजनिक हितों को साधने और सामाजिक गुणों को बढ़ाने के लिए करना चाहिए । हमें समाज से सिर्फ उतना ही लेना चाहिए जितना हमारे सम्यक जीवन निर्वाह और रचनाकर्म के लिए नितांत आवश्यक है । हमें अपनी मेघा, प्रतिभा, विशिष्टता, साधना या चेतना को समग्र दायित्वबोध के साथ उत्तरोत्तर आगे बढ़ाते जाने का पूरा हक है । कहीं कोई बंदिश नहीं है, लेकिन हमारी रचनाधर्मिता या सृजनात्मकता से अपसंस्कृति नहीं फैलनी चाहिए । हमारी कृति या कला व्यापार की वस्तु नहीं है और न ही वह किसी कारपोरेट घराने, न्यस्त स्वार्थ या शासक वर्ग की चेरी बल्कि वह लोकचेतना के लिए ऊर्ध्वगमन की सीढ़ी है । यह है ट्रस्टीशिप का सांस्कृतिक आयाम ।
गांधी ने भूमि ओर औद्योगिक प्रतिष्ठान के बारे में ट्रस्टीशिप, सामुदायिक या सामाजिक तथा राज्यगत स्वामित्व की जो संकल्पना की थी उसके ठीक उलट दिशा में भूमण्डलीकरण यानी कारपोरेट उपनिवेशवाद हमें ले जा रहा है । भूमि हदबंदी कानून एक-एक करके हटाये जा रहे हैं। मेगा परियोजनाआें और विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए उम्दा, उर्वरा और बहुफसली कृषि भूमि का अधिग्रहण निर्ममता से चल रहा है । एक दूसरी हरित क्रांति के नाम पर सीधे किसान द्वारा खेती के बजाय कारपोरेट कांट्रेक्ट फार्मिंग के पक्ष में माहौल तैयार किया जा रहा है । उद्योगों और सेवाआें पर बहुराष्ट्रीय हमले तेज हो रहे हैं । अनौपचारिक क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले रोजगारी कारोबार दु्रत गति से खत्म हो रहे हैं।
उद्यमियों द्वारा संचालित छोटे व मझोले उद्योगों के दिन अब लद चुके हैं। इस प्रकार भारी पैमाने पर हमारी अर्थव्यवस्था का अ-औद्योगिककरण हो रहा है । वृहदाकार तथा उत्तरोत्तर जटिल होती जाती उन्नत प्रौद्योगिकी पर टिके औद्योगिक संयंत्रों या कल कारखानों में ट्रस्टीशिप के एकदम उलट देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों का कब्जा कायम होता जा रहा है । बहुराष्ट्रीय कारपोरेट गुलामी, जमींदारी और इजारेदारी की शोषण व्यवस्था में देश जकड़ता जा रहा है । जो स्वराज्य स्वदेशी और ट्रस्टीशिप की विचारधारा और लोकव्यवस्था के एकदम उलट है । जरूरत है इस नए कारपोरेट उपनिवेशवाद को ध्वस्त करने की । क्या हम सभी इस चुनौती को स्वीकार करेंगे ?
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