रविवार, 29 अगस्त 2010

१० ज्ञान-विज्ञान

जलवायु को प्रभावित करते हैं जीव
वैज्ञानिकों ने पहली बार इस बारे में सबूत पाने का दावा किया है कि समुद्र में मौजुद सूक्ष्म जीवों ने पारिस्थितिकी संपर्क और प्रतिक्रिया के जरिए वैश्विक जलवायु को प्रभावित किया है । एक अंतराष्ट्रीय दल ने पाया है कि किसी खास कार्बनिक पदार्थ के चारोंओर सूक्ष्म जीवोंका संपर्क समुद्र के रासायनिक गुणों में बदलाव लाता है और वायुमंडल में बादलों के निर्माण को प्रभावित कर वैश्विक जलवायु पर भी असर डालता है । यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी सिडनी के शोध दल के सदस्य जस्टिन सेमेर ने साइंर्स जर्नल में इस बात का ब्योरा दिया है कि किस तरह से किसी गंधवाले रसायनसे मिलते जुलते डाइमीथलसल्फाइड (डीएमएस) की मदद से समुद्री पक्षी और सील अपने शिकार की खोज निकालते हैं । उन्होंने बताया कि यह पदार्थ सूक्ष्म स्तर पर इस उद्देश्य को पूरा कर सकता है और समुद्र में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीव इसकी मदद से उस खाद्य पदार्थ का पता लगा सकते हैं, जो जलवायु के लिए महत्वपूर्ण हैं । श्री सेमर ने बताया कि हमने पाया कि समुद्र के जल में होने वाला पारिस्थितिकी संपर्क और व्यवहारात्मक प्रतिक्रिया समुद्र की चक्रीय प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता
है । मैसाचुसेटे्स इंस्टीटयूट ऑफ टेक्नोलॉजी के प्राध्यापक रोमन स्टॉकर के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने पाया कि सूक्ष्म जीवों के डाइमीथाइल सल्फोनीप्रोपिओनेट (डीएमएसपी) की ओर बढ़ने से यह संकेत मिलता है कि सूक्ष्म जीव समुद्र में सल्फर और कार्बन के चक्र में एक भूमिका निभाते हैं, जिसका धरती के जलवायु पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है । डीएमएस वायुमंडल में बादलों के निर्माण में शामिल है । यह वायुमंडल में उष्मा के संतुलन को प्रभावित करता है ।

पहले मुर्गी आई, बाद में आया अंडा 
पहले अंडा आया या मुर्गी सदियों से चली आ रही इस पहेली का हल खोज लिया गया है । वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि पहले मुर्गी आई, बाद में अंडा, लेकिन मुर्गी कहाँ से आई इसका जवाब अभी वैज्ञानिकों के पास नहीं है । शेफील्ड और वारविक विद्यालय के वैज्ञानिकों की एक टीम ने अपने अध्ययन में पाया कि ओवोक्लेडिन (ओसी१७) नाम का प्रोटीन मुर्गी के अंडे के खोल के निर्माण का अहम हिस्सा होता है । यह मुर्गी के अंडाशय में बनता है । इससे पता चलता है कि मुर्गी पहले आई । हालाँकि अध्ययन में इस बात का खुलासा नहीं है कि प्रोटीन बनाने वाली मुर्गी कहाँ से आई । वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में अंडे की खोल की परमाणविक संरचना की जाँच के लिये अत्याधुनिक कम्प्यूटर का इस्तेमाल किया । उन्होंने पाया कि ओसी-१७ एक उत्प्रेरक के रूप में काम करता है । केल्शियम कार्बोनेट के मुर्गी के शरीर मे रूपांतरण की प्रक्रिया की शुरूआत केल्साइट क्रिस्टल से होती है । यहीं से अंडे का कठोर खोल बनने की शुरूआत होती है । यह खोल जर्दी और तरल पदार्थ को सुरक्षित रखता है, जो आगे जाकर चूजा बना जाता है ।
शेफील्ड विश्वविद्यालय के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ.कॉलिन फ्रीमेन ने कहा कि यह लंबे समय से अनुमानित था कि पहले अंडा आया, लेकिन अब हमारे पास प्रमाण है पहले मुर्गी
आई । प्रोटीन की पहचान पहले ही कर ली गई थी । अब अंडा बनने की प्रक्रिया का पता लगा लिया गया है । यह दिलचस्प है कि कैसे विभिन्न प्रकार के पक्षियोंमें एक ही प्रक्रियाअलग-अलग प्रोटीन का निर्माण करते हैं ।
इलाहाबाद का अक्षय वट

इलाहाबाद स्थित अकबर के किले में एक ऐसा वट है, जो कभी यमुना नदी के किनारे हुआ करता था और जिस पर चढ़कर लोग मोक्ष की कामना से नदी में छलाँग लगा देते थे । इस अंधविश्वास ने अनगिनत लोगों की जान ली है । शायद यही कारण है कि अतीत में इसे नष्ट किये जाने के अनेक प्रयास हुए । हालाँकि यह आज भी हरा भरा
है । यह ऐतिहासिक वृक्ष किले के जिस हिस्से में आज भी स्थित है वहाँ आम-जन नहीं जा सकते । यूँ तो अक्षयवट का जिक्र पुराणों में भी हुआ है, पर वह वृक्ष अकबर के किले में स्थित यही वृक्ष है कि नहीं यह कहना आसान नहीं है ।
 सन् १०३० में अलबरूनी ने इसे प्रयाग का पेड़ बताते हुए लिखा कि इस अजीबोगरीब पेड़ की कुछ शाखाएँ ऊपर की तरफ और कुछ नीचे की तरफ जा रही हैं । इनमें पत्तियाँ नहीं हैं । इस पर चढ़कर लोग नदी में छलाँग लगाकर जान दे देते हैं । ११ वीं शताब्दी में समकालिन इतिहासकार महमूद गरदीजी ने लिखा है कि एक बड़ा-सा वट वृक्ष गंगा-यमुना तट पर स्थित है, जिस पर चढ़कर लोग आत्म हत्या करते हैं । १३ वीं शताब्दी में जामी-उत-तवारीख के लेखक फजलैउल्लाह रशीदुद्दीन अब्दुल खैर भी पेड़ पर चढ़कर आत्म-हत्याएँ किये जाने का जिक्र करते हैं । अकबर के समकालिन इतिहासकार बदायूनी ने भी लिखा कि मोक्ष की आस में तमाम लोग इस पर चढ़कर नदी में कूदकर अपनी जान देते हैं । जिस समय अकबर यहाँ पर किला बनवा रहा था तब उसकी परिधि मे कई मंदिर आ गए थे । अकबर ने उन मंदिरों की मूर्तियों को एक जगह इकट्ठा करवा दिया । बाद में जब इस स्थान को लोगों के लिए खोला गया तो उसे पातालपुरी नाम दिया गया । जिस जगह पर अक्षयवट था वहाँ पर रानीमहल बन गया । हिन्दुआें की आस्था का खयाल रखते हुए प्राचीन वृक्ष का तना पातालपुरी में स्थापित किया गया । अक्षयवट को जला कर पूरी तरह से नष्ट करने के प्रयास जहाँगीर के समय में भी हुए, लेकिन हर बार राख से अक्षयवट की शाखाएँ फूट पड़ीं, जिसने वृक्ष का रूप धारण कर लिया । वर्ष १६११ में विलियम फ्रिंच ने लिखा कि महल के भीतर एक पेड़ है, जिसे भारतीय जीवन वृक्ष कहते हैं । मान्यता है कि यह वृक्ष कभी नष्ट नहीं होता । १६९३ में खुलासत उत्वारीख ग्रंथ में भी उल्लेख है कि जहाँगीर के आदेश पर अक्षयवट को काट दिया गया था, किन्तु वह फिर उग आया ।  इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफे सर योगेश्वर तिवारी अक्षयवट को नष्ट करने संबंधी ऐतिहासिक तथ्योंमें सत्यता पाते हैं व उसे सही भी ठहराते हैं । यह वृक्ष अपनी गहरी जड़ों के कारण बार-बार पल्लवित होकर हमें भी जीवन के प्रति ऐसा ही जीवट रवैया अपनाने की प्रेरणा देता है न कि अनजानी उम्मीदों में आत्महत्या करने की । 
आधुनिकता का अभिशाप है, ई कचरा
आज हमारे आसपास दुनिया का चेहरा तेजी से बदल रहा है । हमारे घर पहले से ज्यादा आधनिक हो गए हैं । घरों में पानी की व्यवस्था से लेकर कपड़ों की धुलाई सभी के लिए नए इंतजाम हो गए हैं और इस नवीनता में निश्चित रूप से बिजली का चमत्कार है, लेकिन यह चमत्कार वरदान के साथ अभिशाप भी बन रहा है । ई-कचरे के रूप में यह अभिशाप आज पृथ्वी के पर्यावरण और उस पर रहने वाले विशाल मानव समुदाय के स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा संकट पैदा कर रहा है । कम्यूटर, टी.वी., डीवीडी प्लेयर, मोबाइल फोन, एम-पी-थ्री व अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरण शामिल है । ई-कचरे में कैडमियम, शीशा, पारा, पोलीक्लोरिनेटेड बाई फिनाइल, ब्रोमिनेटर फ्लेम रिटाडेंट जैसे जहरीले पदार्थ भी शामिल होते हैं, जो कि पर्यावरण के लिए बहुत ही खतरनाक श्रेणी में गिने जाते 
हैं । इस समय विश्व में पैदा होने वाले कुल कचरे मेंई-कचरे का हिस्सा करीब ५ प्रतिशत है, जो प्लास्टिक कचरे के बराबर है । ई-कचरे में लगभग १००० ऐसे पदार्थ होते हैं जो जहरीले होते हैं और जिनका निपटारा यदि सही तरीके से न किया गया तो पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को गंभीर खतरा हो सकता है । सूचना क्रांति के वर्तमान युग ने ई-कचरे की समस्या की और भी गंभीर बना दिया है ।
दुनिया में हर रोज निकलने वाले कचरे में ई-कचरे का अनुपात तेजी से बढ़ता जा रहा है । वर्ष २००९ के पहले तीन महीनों में हमारे देश में १६ लाख से ज्यादा डेस्कटॉप और लैपटॉप बिके । इसी तरह वर्ष २०८-२००९ में लगभग ६८ लाख डेस्कटॉप और लैपटॉप बिके थे । डेस्कटॉप और लैपटॉप की सबसे ज्यादा बिक्री पश्चिमी भारत मेंहोती है, जो तकरीबन ३७ प्रतिशत है । इसके अलावा यह आंकड़ा दक्षिण भारत में २३ प्रतिशत, पूर्वी भारत में २२ प्रतिशत और उत्तर भारत में १८ प्रतिशत की बिक्री के क्रम में है । वर्ष २००९-१० में हमारे देश में कुल मिलाकर ७३ लाख से अधिक डेस्कटॉप और लैपटॉप की बिक्री हुई ।
सबसे ज्यादा ई-कचरा पैदा करने वाले शहर मुंबई, दिल्ली, बंगलुर, चैनई, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद, पुणे, सूरत और नागपुर है । ई-कचरे से संबंधित भारत सरकार के दिशानिर्देश में कहा गया है कि वर्ष २००५ में देश में १,४६,१८० टन ई-कचरा पैदा हुआ । ऐसा अनुमान है कि २०१२ तक यह मात्रा आठ लाख टन तक पहुंच जाएगी । अभी तक भारत में ई-कचरे को बड़े पैमाने पर फिर से इस्तेमाल करने यानी रिसाइकल करने की कोई सुविधा नहीं है । ज्यादातर ई-कचरा असंगठित क्षेत्र में ही रिसाइकिल किया जा रहा है, जहां सुरक्षित तौर-तरीकों की अक्सर अनदेखी कर दी जाती है । लैंडफिल में ई-कचरे को निबटाने का तरीका भी कारगर नहीं है, क्योंकि इनसे जहरीले पदार्थ रिसकर मिट्टी ओर भूजल में मिलने का खतरा बना रहता है ।
भारत सरकार ने खतरनाक कचरे के प्रबंधन, निबटान और सीमा के बाहर ढुलाई के नियम वर्ष २००९ में बना दिया है । इसके लिए पर्यावरण मंत्रालय ने एक टास्क फोर्स का भी गठन किया है । सभी तहर के संसाधनों के रिसाकिलिंग अथवा पुनर्चक्रण पर ध्यान देना चाहिए ।
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