मंगलवार, 15 अगस्त 2017

स्मृति-शेष 
प्रो. यशपाल : विज्ञान चेतना के अग्रदूत
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

विज्ञान की कठिन शब्दावलि को सरल शब्दों में जन-जन तक पहुंचाने वाले महान विज्ञान संचारक प्रो. यशपाल का पिछले दिनों (२५ जुलाई) को निधन हो गया । 
प्रोफेसर यशपाल का निधन एक ऐसे युगपुरूष का अंत है, जिसने करीब छह दशकों तक शिक्षा, विज्ञान, जनसंचार, अंतरिक्ष विज्ञान व वैज्ञानिक चेतना के विकास के लिए उल्लेखनीय काम किया । वे भारत को एक आधुनिक और वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न राष्ट्र के रूप मेंदेखना चाहते थे । 
देश में अंतरिक्ष अनुसंधान की नींव रखने वालों में वह एक प्रमुख वैज्ञानिक थे । अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में वैज्ञानिक अनुसंधान कार्य शुरू किया, जहां वह १९८३ तक कार्यरत रहे । बाद में उन्होंने योजना आयोग और विज्ञान व प्रौघोगिकी मंत्रालय में महत्वपूर्ण पदों पर काम किया । 
वैज्ञानिक संस्थाआें के नेतृत्व और प्रशासन के साथ उनका एक बड़ा योगदान वैज्ञानिक संप्रेषण के क्षेत्र में था । वह सबसे ज्यादा चर्चा में आए दूरदर्शन पर लंबे समय तक चले वैज्ञानिक धारावाहिक टर्निग प्वॉइंट  से । उस कार्यक्रम में वे गूढ़ वैज्ञानिक रहस्यों को आम बोलचाल की भाषा में समझाते थे । आज देश में ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जिन्हें टर्निग प्वॉइंट में प्रोफेसरयशपाल के जरिए इन्द्रधनुष, सौर-गंगा व सौर ऊर्जा के रहस्यों को नई दृष्टि से समझने का अवसर मिला था । 
उनका एक बड़ा योगदान उच्च् शिक्षा में रहा, जहां उन्होंने अपने उदारतावादी विचारों की अमिट छाप छोड़ी, वे संस्थाआें में वैज्ञानिक मानसिकता, शैक्षणिक स्वायत्तता और जवाबदेही के पक्षधर थे । वर्ष १९८६ से १९९१ तक वे विश्वविघालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष के रूप में समूचे देश की उच्च् शिक्षा के नियामक रहे । वर्ष २००९ में मानव संसाधन मंत्रालय ने उच्च् शिक्षा के पुनरोत्थान के लिए गठित समिति का  उन्हेंअध्यक्ष बनाया । इस समिति की रिपोर्ट में विश्वविद्यालयों के बारे में कहा गया है विश्वविद्यालय वह स्थान है, जहां नए विचारों के बीज अंकुरित होते हैं और जड़ें पकड़ते हैं। यह वह अनोखी जगह है, जहां रचनात्मक दिमाग मिलते हैं, एक-दूसरे से संवाद करते हैं और नई वास्तविकताआें के लिए भविष्य का रास्ता बनाते हैं । आज हमारे में विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत युवाआें और प्राध्यापकों को उनके विचार ज्योति पुंज की तरह नया रास्ता दिखाते हैं । 
प्रोफेसर यशपाल को एक साहसी शिक्षाविद् के रूप में भी जाना जाता है । सन् २००२ में छत्तीसगढ़ सरकार ने एक कानून पारित करके ११२ निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दे दी थी । ये विश्वविद्यालय निजी महाविद्यालयों के स्वामियों द्वारा मुनाफा कमाने के लिए प्रारंभ किए गए थे, जिनमें ज्यादातर के पास रायपुर में दो-तीन कमरों की जगह थी, जहां केवल कार्यालय खोला गया था । प्रोफेसर यशपाल ने सर्वोच्च् न्यायालय में याचिका दायर की और उस कानून को निरस्त करने की मांग की, जिसके तहत निजी विश्वविद्यालय बनाने का फर्जीवाड़ा चल रहा था । 
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरसी लाहोटी की तीन सदस्यीय पीठ ने याचिका को स्वीकार करते हुए ऐसे ११२ निजी विश्वविद्यालयों को बंद करने का आदेश दिया था । प्रोफेसर यशपाल अपनी भाषा-बोलियों के हिमायती थे क्योंकि वे मानते थे कि जबतक विज्ञान अपनी भाषाआें में नहीं पढ़ा जाएगा तब तक वह बहुत दूर तक नहीं पहुंचेगा । इसीलिए वे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में भी लोकप्रिय हुए हैं जो आम आदमी की भाषा में विज्ञान की व्याख्या कर सकता है । प्रो. यशपाल ने भारतीय शिक्षा के बारे में लर्निग विदाउट बर्डन (बोझ के बिना शिक्षा) रिपोर्ट बनाई थी जिसमें बच्चें पर पढ़ाई का बोझ कम करने के अनेक सुझाव दिए थे । वे चाहते थे कि विज्ञान की शिक्षा सभी के लिए हो । उनका कहना था कि हमने विशाल ब्रह्माड को विज्ञान के जरिये ही जाना है विज्ञान हमें समझने में मदद करता है कि इस ब्रह्माड में हमारी हैसियत क्या है । 
जातिप्रथा में विश्वास नहीं करने के कारण प्रोफेसर यशपाल अपने नाम में कुल नाम नहींलगाते थे । १९७० के आसपास विज्ञान पढ़ने-पढ़ाने की पूरे पद्धतियों को बदलने के लिए अनिल सदगोपाल के साथ वे किशोर भारती के होशंगाबाद विज्ञान कार्यक्रम से भी जुड़े थे । प्रोफेसर यशपाल उन वैज्ञानिकों में से थे जो बच्चें की जिज्ञासा के बूते अनुसंधान में विश्वास करते हों । उनका कहना था कि बच्च्े पाठ्यक्रम बनाने वालों से कहीं ज्यादा नई जानकारी रखते हैं । मानव नया देखने, प्रयोग करने और समझने के लिए जन्मा है । लेकिन, प्राय: हमारी शिक्षा पद्धति हमारी इस मेधा को कुठित कर देती है । मैं यह मानता हॅू कि एक दिन हमें पढ़ाने और समझने का ऐसा तरीका अपनाना होगा जो मुख्य रूप से बच्चें द्वारा खोजे और पूछे गए प्रश्नों पर आधारित होगा । 
प्रो. यशपाल को उनके जीवनकाल में अनेक सम्मान/पुरस्कार मिले भारत सरकार द्वारा उन्हें १९७६ में पद्मभूषण और २०१३ में पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया था । वर्ष २००९ में विज्ञान को बढ़ावा देने और उसे लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाने के लिए उन्हें यूनेस्को द्वारा कलिंग सम्मान से सम्मानित किया था । उनके जीवन के अस्सी वर्ष पूर्ण होने पर विज्ञान प्रसार ने उनके जीवन एवं कार्यो पर एक पुस्तक का प्रकाशन किया एवं एक फिल्म का निर्माण भी किया था । 
समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने और शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व सुधारो के लिए दिए गए उनके योगदान को देश कभी नहीं भुला नहीं पायेगा । 

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