सोमवार, 18 दिसंबर 2017

पर्यावरण परिक्रमा
बिगड़ती जीवन शैली से बढ़ रही बीमारियां
दिल्ली में हर तीसरे बच्च्े के फेफड़े प्रदूषण से प्रभावित है जबकि दिल्ली-एनसीआर सहित देश के अधिकांश हिस्सों में हर साल होने वाली कुल मौतों में ६१ फीसदी जीवनशैली और गैर संक्रमित बीमारियों की वजह से होती है । २०२० तक हर साल देशभर में कैंसर के १७.३ लाख नए मामले सामने आने का भी अनुमान है । इस सबकी बड़ी वजह है हवा में बढ़ता प्रदूषण, तंबाकू और खानपान में हो रहा बदलाव । 
सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) की नई रिपोर्ट में पर्यावरण और स्वास्थ्य के बीच गहरा संबंध होने की बात साबित हुई है । इस रिपोर्ट में जीवनशैली से जुड़े रोगों को मौत की एक बड़ी वजह बताया गया है । सीएसई ने बॉडी बर्डन नाम से अपनी यह रिपोर्ट पिछले दिनों नई दिल्ली में इंडिया हैबीटेट सेंटर में विशेषज्ञों की समूह चर्चा के दौरान जारी की । रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में हर १२ वां भारतीय मधुमेह का रोगी है और ऐसे मरीजों के मामले में भारत दुनिया में दूसरे नम्बर पर है । 
इस रिपोर्ट के मुताबिक २०१६ तक भारत में अस्थमा के ३.५ करोड़ गंभीर मरीज सामने आ चुके हैं । प्रदूषण की वजह से देश में ३० फीसदी मौत भी समय से पहले हो रही है । हर साल देश में २७ लाख लोग दिल की बीमारियों से मर रहे   है । इनमें से ५२ फीसदी की उम्र ७० साल से कम होती है । 
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार असंक्रामक बीमारियों की चार वजह होती है । इनमें एल्कोहल, तंबाकू, खराब खानपान और शारीरिक गतिविधियों की कमी प्रमुख है । सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण के अनुसार भारत में उक्त चार कारणों के अलावा भी कई कारक है । इनमें पेस्टीसाइड भी एक है जिससे कैंसर तक हो सकता है । नई रिपोर्ट में इसकी वजह से मधुमेह होने का अंदेशा भी जताया गया है । इसी तरह प्रदूषित हवा से क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी बीमारियों का खतरा होता है, इसका असर दिमागी स्वास्थ्य पर भी पड़ता है । 
रिपोर्ट की प्रमुख लेखिका विभा वार्ष्णेय के अनुसार यदि हम स्थायी विकास चाहते है तो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले कारणों को कम करना होगा ।  
इंसानों की बस्ती के पास पेंग्विन कालोनी
दक्षिण अफ्रीकी में केपटाउन से ९० कि.मी. दूर सिर्मोन्स टाउन से सटी एक बस्ती में अनोखी पेंग्विन कॉलोनी है । इसे बोल्डर्स पेंग्विन कालोनी भी कहते है । समुद्र के किनारे पेंग्विन एक साथ जुटते जा रहे हैं । जैसे उनके बीच कोई सभा चल रही हो । दूर से देखने पर लगता है कि वे चिल्ला रहे है, लेकिन जैसे-जैसे हम नजदीक पहुंचते है तो लगने लगता है इनके बीच कोई गंभीर बात चल रही है । कुछ पेंग्विन एक-दूसरे से खेल रहे हैं । वे गिरते हैं, फिर उठते हैं, पत्थरों से पीठ रगड़ते हैं, मानो खुद को साफ कर रहे हो । फिर अचानक एक साथ मिलकर चिल्लाने लगते   हैं । ध्वनि रैंकने जैसी आती है, इनकी इस कर्कश आवाज के कारण ही इन्हें जैकेस पेंग्विन भी कहते हैं । 
पेंग्विन की यह अनोखी कॉलोनी इंसानी बस्ती सिमॉन्स टाउन से एकदम सटी हुई है । अस्तित्व के खतरे से गुजर रही प्रजाति अफ्रीकन पेंग्विन की जिस तरह यहां देखरेख और संरक्षण हो रहा है उसे मिसाल कहा जा सकता है । 
सन् १९८२ में एक जोड़ी पेंग्विन से यह परिवार शुरू हुआ    था । आज यहां पेंग्विन की संख्या २१०० से अधिक हो चुकी है । इनकी देखभाल में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी गई । यहां कई जगहों पर कैमरा पॉइन्ट बने हैं, जिनसे पेंग्विन और पर्यटकों की गतिविधियां देखी जाती है । इस क्षेत्र को नेचर रिजर्व में शामिल किया गया है । किसी को भी पेंग्विन कॉलोनी में कुछ खिलाने की इजाजत नहीं है और न ही कोई उन्हें छू सकता है । 
दिनभर पेंग्विन की गतिविधियां की निगरानी की जाती  है, ताकि जरा सा भी कुछ गलत दिखाई दे तो उन्हेंसंभाला जा सके ।  अटलांटिक महासागर के बेटिस बे क्षेत्र मेंस्थित इस पेंग्विन कॉलोनी में तट के आसपास फेन्सिंग की गई हैं, ताकि पर्यटक उन्हें छू न सके । यह सब तैयारी पेंग्विन के सरंक्षण के लिए है । बेटिस बे क्षेत्र में आने वाले वाहन भी पेंग्विन कॉलोनी से दूर ऊंचाई पर करीब १०० मीटर की दूरी पर पार्क किए जाते हैंताकि वाहनों की आवाज और प्रदूषण उन तक न   पहुंचे । 
एक पर्यटक समूह को ज्यादा समय तक वहां रूकने की इजाजत भी नहीं होती है । हालांकि, इतना समय पर्याप्त् होता है कि आप उन्हें भी भर के देख सकें । समुद्र तट के पास रेतीले तट पर पथरीली चट्टानें हैं जहां पेंग्विन झुंड में खड़े होकर ठंडी हवाएं लेते है । अभी यहां गर्मी का मौसम शुरू हुआ है और दोपहर का तापमान २० डिग्री सेल्सियस के आसपास रहता है । शाम होते ही तापमान कम होकर १३-१४ डिग्री सेल्सियस तक आ जाता है । शाम ढलने के साथ अधिक से अधिक पेंग्विन किनारे की चट्टानों पर आ जाते हैं लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता । सर्दियां यानी जून से अगस्त तक ८ डिग्री सेल्सियस न्यूनतम तापमान होता है, तब पेंग्विन  ज्यादा समय पानी में ही बिताते हैं । 
ट्रेन का नया शौचालय सेप्टिक टैंक जैसा
दक्षिण भारत से चैन्नई स्थित भारतीय प्रौघोगिकी संस्थान-मद्रास (आईआईटीएम) ने एक अध्ययन में पाया है कि तेरह सौ करोड़ की लागत से पिछले चार साल में ट्रेनों में बनवाए गए शौचालय सेप्टिक टैंक से बेहतर नहीं है । 
भारतीय रेल की ओर से प्रमुख मेल एक्सप्रेस व मेल ट्रेनों में शौचालय के तौर पर ९३५३७ जैव पाचक (बायो-डायजेस्टर्स) लगाया  है । यह एक प्रकार का लघु-स्तरीय मलजल शोधन संयंत्र है, जिसमें कंपोस्ट चैंबर में जीवाणु मानव मल का पाचन करता है और इस प्रक्रिया में जल व मिथेन बच जात हैं, जिसमें संक्रमण रहित पानी ट्रेक पर बहा दिया जाता है । 
हालांकि सफाई विशेषज्ञों व विविध अध्ययनों, जिसमें रेलवे की ओर से संचालित अध्ययन भी शामिल हैं, ने बताया है कि नए जैव शौचालय अप्रभावी या कुप्रबंधित है और पानी की निकासी अपरिष्कृत मल निकासी की तुलना में बेहतर ढंग से नहीं हो पाती है । 
आईआईटी के प्रोफेसर लिगी फिलीप, जिनकी अगुआई में यह अध्ययन किया गया है ने इंडियास्पेंड  से बातचीत में कहा कि हमारी जांच में यह पाया गया कि बायो-डायजेस्टर में संग्रहित कार्बनिक पदार्थ (मानव उत्सर्जित मल) का कोई उपचार नहीं होता है । उन्होंने बताया कि सेप्टिक टैंक की तरह इन बायो-डायजेस्टर्स में मलजल इकट्ठा होता  है । बिल मेलिंडा गेट्स फाउडेंशन की ओर से प्रायोजित आईआईटी मद्रास के इस अध्ययन की रिपोर्ट हाल ही में केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय को सौंपा गया है । 
समीक्षा के बावजूद रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) और भारतीय रेल की ओर से संयुक्त रूप से विकसित ये जैव शौचालय दिसम्बर २०१८ तक एक लाख २० हजार अतिरिक्त कोचों में लगवाए जाएंगे । इस पर अनुमानित लागत १२०० करोड़ रूपये आ सकती है । सूचना का अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी के जवाब में रेलवे की ओर से पिछले दिनों यह जानकारी दी गई । 
डेढ़ सौ करोड़ की हरियाली चट कर जाती हैं भेड़
भोपाल और नीमच में भेड़ों पर कार्रवाही क्या हुई, राजस्थान सरकार हरकत में आ गई । वहां की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को पत्र लिखकर भेड़ों को प्रदेश के जंगलों में चराने की इजाजत देने की वकालत की है । 
उधर वन अफसर इस मांग से चिंतित हैं क्योंकि ये भेड़ें हर साल प्रदेश में डेढ़ सौ करोड़ की हरियाली चट कर जाती हैं । पर्यावरण विशेषज्ञों ने सरकारों की नीयत पर सवाल खड़े किए हैं । वे कहते हैं कि गर्म कपडों के कारोबार से जुड़े उद्योगपतियों की भेड़े है, इसलिए सरकार को वकालत करनी पड़ रही है । 
चारा संकट के चलते राजस्थान की १० से १२ लाख भेड़ हर साल मध्यप्रदेश के रास्ते उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र जाती है । करीब आठ माह के इस सफर का ज्यादा समय मध्यप्रदेश में गुजरता है । भेड़ें बारिश और सर्दी में जंगलों में स्वत: उगने वाली पौध को नष्ट कर देती हैं । सरकार के पौधारोपण अभियान भी इन्हीं की वजह से सफल नहीं हो पाते । वन विभाग के अध्ययन में भी ये बात सामने आ चुकी है । पूर्व वन अधिकारी जेपी शर्मा कहते हैं कि भेड़ों से हरियाली को ज्यादा खतरा हैं, क्योंकि वे जड़ से पौधे खींच लेती हैं जिससे उसके दोबारा पनपने की संभावना खत्म हो जाती है । भेड़े हर साल डेढ़ सौ करोड़  की हरियाली खत्म कर देती है    जबकि वसूली होती है २० लाख   रूपये । 

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