शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

कविता
धरती मां का धानी चीर
डॉ. गार्गीशरण मिश्र  मराल 
हरे भरे जंगल ही तो है धरती मां का धानी चीर ।
पवन चले तो लहराता यह धरती मां का धानी चीर ।
धरती मां ने पाला हमको
हमने उसका चीर हरा,
बेरहमी से जंगल काटे
वन-जीवन में दर्द भरा,
सोचा नहीं बढ़ेगी इससे जग के हर प्राणी की पीर ।
धरती बंजर हो जायेगी नहींगिरेगा नभ से नीर ।
गर्म हवाआें की लपटों से, 
झुलसेगा सारा संसार,
बढ़ जायेगा और अधिक जो
धरती माँ को चढ़ा बुखार,
प्यासी धरती, प्यासे प्राणी खो देंगे सब अपना धीर ।
तड़प उठेंगे जन, पशु पक्षी खाकर सब अकाल का तीर ।
हिम शिखरों की बर्फ गलेगी,
जल बनकर पहुँचेगी सागर,
सगार तट के घर डूबेंगे 
उफनेगी सागर की गागर,
मौत करेगी ताण्डव सब की लुट जायेगी धन-जागीर ।
वृक्ष लगाकर, वन सरसाकर, चलो सँवारो जग-तकदीर ।

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