शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

गांधी जयंती पर विशेष
गांधीजी का पर्यावरण मंत्र
अरूण तिवारी
कचरा, पर्यावरण का दुश्मन है और स्वच्छता, पर्यावरण की   दोस्त । कचरे से बीमारी और बदहाली आती है और स्वच्छता से सेहत और समृद्धि । 
ये बात महात्मा गांधी भी बखूबी जानते थे और हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी । इसीलिए गांधीजी ने स्वच्छता को स्वतंत्रता से भी ज्यादा जरूरी बताया । मैला साफ करने को खुद अपना काम बनाया । गांवों में सफाई पर विशेष लिखा और किया । कुंभ मेले में शौच से लेकर सुरती की पीक भरी पिचकारी से हुई गंदगी से चिंतित हुए । स्वच्छता को प्राथमिकता पर रखते हुए स्वयं झाडू लगाकर अपने प्रधानमंत्रित्व काल के पहले ही वर्ष २०१४ में गांधी जयंती का स्वच्छ भारत मिशन की शुरूआत की । वर्ष २०१९ में गांधी जंयती के १५० साल पूरे होने तक ५००० गांवों में दो लाख शोचालय तथा एक हजार शहरों में सफाई का लक्ष्य भी रखा । स्वच्छता सप्तह के रूप में बाल दिवस से स्कूलों में विशेष स्वच्छता अभियान भी चलाया, किन्तु यदि मुझसे पूछे कि पर्यावरणीय अनुकूलता की दृष्टि से गांधी और मोदी के स्वच्छता विचार में फर्क क्या है ? तो मेरा जवाब यूं होगा  - मोदी का स्वच्छता विचार, कचरा बटोरना तो जानता है, किन्तु उसका प्रकृति अनुकूल उचित निष्पादन करना नहीं जानता । गांधी, दोनो जानते थे । गांधी जानते थे कि यदि कचरे का निष्पादन उचित तरीके से न हो, तो ऐसा निष्पादन पर्यावरण का दोस्त होने की बजाय, दुश्मन साबित   होगा । 
मोदीजी ने खुले शौच से होने वाली गंदगी से निजात का उपाय सेप्टिक टैंक अथवा सीवेज पाड़पों में कैद कर मल को बहा देने में   सोचा । संप्रग सरकार की निर्मल गा्रम योजना में भी बस गांव-गांव शौचालय ही बनाये गये थे । किन्तु कम से कम गांवों के मामले में गांधी, सिद्धांतत: इसके खिलाफ थे । 
शहरो के मामले में गांधी की राय अवश्य थी कि शहरों की सफाई का शास्त्र हमें पश्चिम से सीखना चाहिए किन्तु वह गांवों में खुले शौच का विकल्प शौचालय की बजाय, शौच को एक फुट गहरे ग े में मिट्टी से ढक देना मानते थे । मेरे सपनों के भारत पुस्तक में वह सफाई और खाद पर चर्चा करते हुए लिखते हैं - इस भंयकर गंदगी से बचने के लिए कोई बड़ा साधन नहीं चाहिए, मात्र मामूली फावडे का उपयोग करने की जरूरत हैं । दरअसल, गांधीजी शौच और कचरे को सीधे-सीधे सोन खाद में बदलने के पक्षधर थे । वह जानते थे कि मल को संपत्ति में बदला जा सकता है । 
श्री मोदी को भी यह जानना चाहिए । गांधी कहते थे कि इससे अनाज की कमी पूरी की जा सकती है । इस सत्य को गांव के लोग आपको आज भी इस उदाहरण के तौर पर बता सकते है कि बसाहट की बगल के खेत की पैदावार अन्य खेतों की तुलना में ज्यादा क्यों होती है । आधुनिक भारत का सपना लेकर चलने वाले नेहरू से लेकर हरित क्रांति के योजनाकारों ने इसे नहीं समझा । वे विकल्प में रासायनिक उर्वरक और रासायनिक कीटनाशक ले आये । जिसका खामियाजा प्राकृतिक, जैव विविधता की हत्या, मिट्टी की दीर्घकालिक उपजाऊ क्षमता में कमी और सेहत के सत्यनाश के रूप में हम आज तक झेल रहे हैं । मोदीजी, ऐसा न होनें दे । 
इस बात को वैज्ञानिक तौर पर यूं समझना चाहिए । गांधीजी लिखते हैं - मल चाहे सूखा हो या तरल, उसे ज्यादा से ज्यादा एक फुट गहरे ग ा खोदकर जमीन में गाड़ दिया जाय । जमीन की  ऊपरी सतह सूक्ष्म जीवों से परिपूर्ण होती है और हवा एवम् रोशनी की सहायता से जो कि आसानी से वहां पहुंच जाती है, वहां जीव मल-मूत्र को एक हफ्ते के अन्दर एक अच्छी, मुलायम और सुगन्धित मिट्टी में बदल देते हैं । 
सोपान जोशी की पुस्तक जल मल थल इस बारे में और खुलासा करती हैं । वह बताती है कि एक मानव शरीर एक वर्ष में ४.५४६ किलो नाइट्रोजन ०.५५ किलो फॉसफोरस और १.२८ किलो पोटाशियम उत्सर्जन करता है । १२५ करोड़ की भारतीय आबादी के गुणांक में यह मात्रा करीब ८० लाख टन होती है । मानव मल-मूत्र को शौचालय में कैद करने से क्या हम हर वर्ष प्राकृतिक खाद की इतनी बड़ी मात्रा खो नहीं देगे ?
त्रिकुण्डीय प्रणाली वाले सेप्टिक टैंक तथा मल-मूत्र को दो अलग-अलग खांचों में भरकर हम इकोसन के रूप में इस मात्रा कुछ बचा जरूर सकते हैं, लेकिन यह हम कैसेभूल सकते हैं कि खुले में पड़े शौच के कंपोस्ट मेंबदलने की अवधि दिनों में है और सीवेज टैंक व पाइप लाइनों में पहुंचे शौच की कंपोस्ट में बदलने की अवधि महीनों में, क्योंकि इनमें कैद मल का संबंध मिट्टी, हवा व प्रकाश से टूट जाता है । इन्हीं से संपर्क में बने रहने के कारण खेतों में पड़ा मानव मल आज भी हमारी बीमारी का उतना बड़ा कारण नहीं है, जितना बड़ा कि शोधन संयंत्रों के बाद हमारे नदियों में पहुंचा मानव मल । 
गांवों में मानव मल निष्पादन का गांधी तरीका, कचरा निष्पादन के सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत के पूरी तरह अनुकूल है । सिद्धांत है कि कचरे को उसके स्त्रोत पर निष्पादित किया जाये । कचरा चाहे मल हो या मलवा, कचरे को ढोकर ले जाना वैज्ञानिक पाप    है । अनुभव बताता है कि शौचालय कभी कहीं अकेले नहीं जाता । शौचालय के पीछे-पीछे जाती है मोटर-टंकी और बिजली पानी की बढ़ी हुई खपत । एक दिन जलापूर्ति की पाइप लाइनें उस इलाके की जरूरत बन जाती है । राजस्व के लालच में सीवर की पाइप लाइनें सरकार पहुंचा देती है । इससे कचरा और सेहत के खतरे बिना न्योते ही चले आते हैं । दुनिया में हर जगह यही हुआ है । हमारे यहां यह ज्यादा तेजी से आयेगा क्योंकि हमारे पास न मल शोधन पर लगाने का प्रयास धन है और न इसे खर्च करने की  ईमानदारी । हकीकत यही है । अभी शहरों के मल का बोझ हमारे नगर निगम व पालिकाआें से संभाले नहीं संभल रहा है । जो गांव पूरी तरह शौचालयों से जुड़ गये हैं, उनका तालाब से नाता टूट गया है । गंदा पानी तालाबों में जमा होकर उन्हें बर्बाद कर रहा है । जरा सोचिए । अगर हर गांव हर घर में शौचालय हो गया, तो हमारी निर्मलता और सुनहली खाद कितनी बचेगी ?
समझने की बात है कि एकल होते परिवारों के कारण मवेशियों की घटती संख्या, परिणामस्वरूप घटने गोबर की मात्रा के कारण जैविक खेती पहले ही कठिन हो गई है । कचरे से कपोस्ट का चलन अभी घर-घर अपनाया नहीं जा सका है । अत: गांधी जयंती पर स्वच्छता, सेहत, पर्यावरण, गो, गंगा और ग्राम रक्षा से लेकर आर्थिक की रक्षा के चाहने वालों को पहला संदेश यही है कि गांवों में घर-घर शौचालय की बजाय, घर-घर कंपोस्ट के लक्ष्य पर काम करें । इसके लिए गांधीजी ने कचरे को तीन वर्ग में छंटाई का मंत्र बहुत पहले बताया और अपनाया था, पहले वर्ग में वह कूड़ा, जिससे खाद बनाई जा सकती हो । दूसरे वर्ग में वह कूड़ा जिसका पुर्नोपयोग संभव हो, जैसे हड्डी, लोहा, प्लास्टिक, कागज, कपड़े आदि । तीसरे वर्ग में उस कूडे को छांटकर अलग करने को कहा, जिसे जमीन में गाड़कर नष्ट कर देना चाहिए । कचरे के कारण, जलाशयों और नदियों की लज्जाजनक दुर्दशा और पैदा होने वाली बीमारियों को लेकर भी गांधीजी ने कम चिंता नहीं जताई थी । 
गौरक्षा और सेवा के महत्व बताते हुए भी गांधीजी ने गोवंश के जरिए, खेती और ग्रामवासियों के स्वावलंबन का ही दर्शन सामने   रखा । वह इसे कितना महत्वपूर्ण मानते थे, आप इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैंकि उन्होंने गोवंश रक्षा सूत्रों को बार-बार समाज के समक्ष दोहराया ही नहीं, बल्कि जमनालालजी जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को गो-पालन कार्य को आगे बढ़ाने का दायित्व सौंपा । वह जानते थे कि जो खेती की रक्षा के लिए सच हैं, वहीं गोवंश की रक्षा के लिए भी सच है । व्यापक संदर्भ में गांधीजी बार-बार कहते थे कि हमारे जानवर, हिन्दुस्तान और दुनिया के गौरव बन सकते हैं । पर्यावरणीय गौरव इसमें निहित है ही । 
गांधी साहित्य, पर्यावरण के दूसरे पहलुआें पर सीधे-सीधे भले ही बहुत बात न करता हो, लेकिन संयम, सादगी, स्वावलंबन और सच पर आधारित उनका सही मायने में सभ्य और सांस्कारिक जीवन दर्शन, पर्यावरण की वर्तमान सभी समस्याआें के समाधान प्रस्तुत कर देता हैं । एकादश व्रत में भी एक तरह से मानव और पर्यावरण के संरक्षण और समृद्धि का ही व्रत हैं । प्रकृति हरेक की जरूरत पूरी कर सकती है, लेकिन लालच एक व्यक्ति का भी  नहीं । जब गांधी यह कहते हैं तो इसी से साथ आधुनिकता और तथाकथित विकास के दो पगलाये घोड़ों के हम सवारों को लगाम खींचने का निर्देश स्वत: दे देते हैं । 
गंदगी, अच्छाई या बुराई इस दुनिया में जो कुछ भी भी घटता है, वह हकीकत में घटने से पहले किसी ने किसी के दिमाग में घट चुका होता है । यह बात पश्चिम ने भी समझी । गौर कीजिए कि उसने हमें पहली या दूसरी दुनिया न कहकर, तीसरी दुनिया कहा । इस शब्द से उसने हमें मुख्यधारा से पिछड़े, गंवार, दकियानूसी, अलग-थलग और अज्ञानी होने का एहसास कराने का शब्दजाल रचा । हमारे प्रकृति अनुकूल, समय-सिद्ध व स्वयं-सिद्ध ज्ञान पर से हमारे ही विश्वास को तोड़ा, फिर अपनी हर चीज, विधान व संस्कार को आधुनिक बताकर हमें उसका उपभोक्ता बना दिया । संयम, सादगी और सदुपयोग की जगह, सभ्यता के नाम पर अतिभोग तथा उपयोग करे और फेक दो का असभ्य सिद्धांत थमा दिया । 
सब संस्कार बदल गये । परमार्थ, फालतू काम है, स्वार्थ से ही सिद्धि है । ग्लोबल वार्मिग, दुनिया के लिए होगी, तुम्हारे लिए तो ए.सी.     है । अपना कमरा, अपनी गाड़ी के भीतर ठंडक की तरफ देखों, दुनिया जाये भाड़ में । घर का कचरा बाहर और अतिभोग का सुविधा सामान अंदर । इसके लिए अब सिर्फ पेट नहीं, तिजोरी भरो । इसीलिए खेती बाड़ी निकृट बता दी गई और दलाली, चाकरी से भी उत्तम । कहा कि गांव हटाओ, शहर भगाओ । कर्ज लो, घी पीयो । नदियां मारने के लिए कर्ज   लो । नदियों को जिलाने के लिए कर्ज लो । कुदरती जंगल काटो, खेत बनाओ या इमारते लगाओ । जानते हुए भी कि यह धरती का पेट खाली कर पानी की कंगाली का रास्ता है, हमने नदी-तालाब से सिंचाई की बजाय, नहर और धरती का सीना चाक करने वाले ट्यूबवेल, बोरवैल, समर्सिबल, जेटपंप को अपना लिया । सेप्टिक टैकों से भी आगे बढ़कर सीवेज पाइपों वाले आधुनिक हो   गये । हमें युकेलिप्टस याद रहा, पंचवटी भूल गये । 
इन सब उलटवांसियो के बीच रास्ते बनाते हुए आज एक बार आया फिर दुबला-पतला बूढ़ा, सेवाग्राम संचालको से कहना चाहता है - खजूरी, गरीबों का वृक्ष हैं । उसके उपयोग तुम्हें क्या बताऊं । अगर सब खजूरी कट जाये, तो सेवाग्राम का जीवन बदल जायेगा । खजूरी हमारे जीवन में ओतप्रोत है ।  खजूरी के उपयोग का हिसाब करो । जिस महात्मा गांधी को खजूरी जैसे सहज उपलब्ध दरख्त और छोटी से छोटी पेंसिल को सहेजने और उसका हिसाब रखने जैसी बड़ी-बड़ी आदते थी, पर्यावरण और स्वच्छता के उनके सिद्धांतों को लिखकर या पढ़कर नहीं, बल्कि आदत बनाकर ही जिंदा रखा जा सकता है । आइये, इनको हम अपने जीवन का अनुभव   बनायें ।

कोई टिप्पणी नहीं: