मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

हमारा भूमण्डल
भोपाल गैस त्रासदी की चौतीसवीं बरसी
अब्दुल जब्बार/एनडी जयप्रकाश

दुनियाभर में सर्वाधिक भीषण मानी जाने वाली औद्योगिक त्रासदी को चार दिन बाद चौंतीस साल हो जाएंगे । 
इस त्रासदी में मारे गए हजारों निरपराधों, अब तक उसके प्रभावों को भुगत रहे लाखों प्रभावित और तत्कालीन भोपाल की करीब आधी आबादी को अपनी चपेट में लेने वाली इस वीभत्स दुर्घटना ने कम-से-कम एक समाज, सरकार और सेठों की हैसियत से हमें कुछ सिखाया, समझाया हो, ऐसा नहीं लगता । बानगी के लिए हाल के  राज्य विधानसभा के चुनावों को देखें जिसमें 'आम आदमी पार्टी` और 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी` (सीपीआई) को छोड़कर किसी राजनीतिक दल को इस त्रासदी की कोई याद तक नहीं आई । क्या ऐसा आत्महंता समाज किसी भी तरह खुद को बचा पाएगा ?  
सन् १९८४ में २-३ दिसम्बर १९८४ की रात को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड की कीटनाशक कारखाने क ेटैंक से रिसी ४० टन मिथाइल आयसोसायनेट (एम.आई.सी.) गैस (जो एक गम्भीर रूप से घातक जहरीली गैस है) के कारण एक भयावह हादसा हुआ था । ये गैस हवा से भारी थी और शहर के करीब ४० कि. मी. इलाके में फैली थी । नतीजे में ५६ वार्डोंा में से ३६ वार्डों में इसका गंभीर असर हुआ, कई सालों में २०,००० से ज्यादा लोग तिल-तिलकर मारे गए और लगभग ५.५ लाख लोगों पर अलग-अलग तरह का प्रभाव पड़ा । उस समय भोपाल की आबादी लगभग ९ लाख थी । हादसे के करीब साढ़े तीन दशक बाद भी ना तो राज्य सरकार ने और ना ही केन्द्र सरकार ने इसके नतीजों और प्रभावों का कोई समग्र आकलन करने की कोशिश की है, ना ही उसके लिए कोई उपचारात्मक कदम उठाए हैं। 
फरवरी १९८९ को केन्द्र सरकार और कम्पनी के बीच हुआ समझौता पूरी तरह से धोखा था और उसके  तहत हरेक गैस प्रभावित को मिली रकम समझौते की तुलना में पाँचवें हिस्से से भी कम थी। नतीजतन, गैस प्रभावितों को स्वास्थ्य सुविधाओं, राहत और पुनर्वास, मुआवजा, पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति और न्याय सभी के लिए लगातार लड़ाई लड़नी पड़ी है । वर्ष २०१८ में भी गैस प्रभावितों के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहुत कम प्रगति होना गम्भीर चिन्ता का विषय रहा है ।
गैस प्रभावितों की स्वास्थ्य जरूरतों के प्रति राज्य और केन्द्र  सरकार की लापरवाही पहले की तरह ही चिन्ताजनक बनी हुई है । स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर कई इमारतें और लगभग १००० बिस्तरों वाले अस्पताल तो खोल दिए गए  हैं, परन्तु जाँच, निदान, शोध और जानकारी जैसे मामलों में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत खराब है। भोपाल के गैस पीड़ितों की स्वास्थ्य स्थिति की निगरानी में आईसी-एमआर और म.प्र. सरकार की हद दर्जे की उदासीनता चौंका देने वाली बनी हुई है। 
चौंतीस साल बाद भी गैस से संबंधित शिकायतों के इलाज का कोई निश्चित तरीका नहीं खोजा गया है। महज लक्षण-आधारित इलाज, निगरानी और जानकारी की कमी के कारण जरूरत से ज्यादा दवाएं दिए जाने और गलत या नकली दवाओं के कारण प्रभावितों में किडनी-फेल होने की घटनाएं बहुत बढ़ गई हैं। इलाज के लिए आने वाले अधिकतर गैस प्रभावितों को अस्थाई क्षति के दर्जे में रखा जाता है ताकि उन्हें स्थाई क्षति के लिए मुआवजा न देना पड़े । शर्मनाक है कि हादसे के साढ़े तीन दशक बाद भी पीड़ितों के सही मेडिकल रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं हैं। 
आईसीएमआर के मुताबिक वर्ष २००० में बनने के बाद से बीएमएचआरसी (भोपाल मेमोरियल हॉस्पीटल एण्ड रिसर्च सेंटर) में लगभग एक लाख ७० हजार गैस पीड़ित नियमित इलाज करवा रहे हैं। एक चौंकाने वाली और शर्मनाक घटना सामने आई कि २००४ से २००८ के बीच बीएमएचआरसी में गैस पीड़ितों पर बिना जानकारी के दवाओं के  परीक्षण किए गए । मामला सामने आने के बाद गैस पीड़ित संगठनों ने माँग की है कि गैस पीड़ितों का चूहों की तरह इस्तेमाल करने की इस घटना की बारीकी से जाँच की जाए और दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए ।
फरवरी १९८९ के समझौते के २१ साल बाद केन्द्र सरकार एक उपचारात्मक याचिका दायर की  जिसमें समझौते की शर्तों पर सवाल उठाए और कहा कि समझौता मृतकों और पीड़ितों की बहुत कम आँकी  गई संख्या पर आधारित था । केन्द्र सरकार ने मुआवजांे में अतिरिक्त ७७२८ करोड़ रुपए की बढ़ोतरी की मांग की है जबकि १९८९ की समझौता राशि मात्र ७०५ करोड़ रुपए की थी । याचिका स्वीकृत हो  गई है पर सुनवाई शुरू नहीं हुई है। 'भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन` और 'भोपाल गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति` सैद्धांतिक स्तर, कुल पीड़ितों की संख्या (मृत और बीमार मिलाकर ५,७३,५८६ प्रभावित) और मुआवजा बढ़ाने के तरीकों (यानी यह किस समझौता राशि उस समय के डॉलर-रुपया विनिमय की दर पर आधारित होना चाहिए) से सहमत हैं। परन्तु मृतकों की संख्या (मात्र ५२९५), गंभीर रूप से बीमारों की संख्या (मात्र ४९४४) और राहत और पुनर्वास तथा पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति के लिए बहुत कम माँग पर गैस पीड़ित संगठनों की केन्द्र सरकार से घोर असहमति है। मृतकों की संख्या (२०,००० से ऊपर) और गम्भीर रूप से बीमार प्रभावितों की संख्या (१,५०,००० से अधिक) के बारे में पहले ही बताया जा चुका है । 
यूनियन कार्बाइड कारखाने के अहाते में और आसपास जहरीला कचरा जमा होता रहा था, जिससे यहाँ की जमीन और पानी बहुत  दूषित हो गया है। आज तक राज्य या केन्द्र सरकार ने इसके कारण होने वाली क्षति के आकलन के लिए कोई समग्र अध्ययन नहीं करवाया है। इसके उलट इस समस्या को कम आँकते हुए यह दिखाया जा रहा है कि मामला केवल कारखाने में जमा ३४५ टन ठोस कचरे के निपटारे का ही है। इन्दौर के पास इस कचरे को गाड़ देने या जला देने का मौजूदा प्रस्ताव एकदम गलत है और इससे  तो समस्या को भोपाल से हटाकर इंदौर ले जाने का ही काम होगा। इसके विपरीत २००९-१० में नेशनल इंवायरनमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागपुर और नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट, हैदराबाद द्वारा किए गए एक अध्ययन से यह पता चला था कि जहरीले कचरे से प्रभावित कुल मिट्टी  ११,००,००० मीट्रिक टन है ।
'दूषित करने वाला ही हर्जाना भरेगा` इस सिद्धांत के  आधार पर डाव कम्पनी की जिम्मेदारी है कि वह यूनियन कार्बाइड के आसपास प्रभावित पर्यावरण की आधुनिक टेक्नोलॉजी की मदद से क्षतिपूर्ति का खर्च उठाए । इसी तरह कारखाने के आसपास रहने वाले प्रभावित लोगों को साफ पीने का पानी मुहैया कराने का खर्च भी डाव को उठाना पड़ेगा । हालाँकि लोगों तक साफ पीने का पानी पहुँचाने की जिम्मेदारी पूरी तरह से राज्य सरकार की है। राज्य सरकार अब भी अपने इस दायित्व को निभाने में नकारा साबित हुई है । 
अभी भी भूजल प्रदूषण क्षेत्रों में है और राज्य सरकार और नगर निगम भोपाल इसमें उचित वैज्ञानिक निगरानी नहीं कर रहे हैं। दूसरी ओर दूषित पानी के कारण बीमार हो रहे प्रभावितों को मुफ्त चिकित्सा सुविधा तक नहीं मिल पा रही है। अनुमानित ११००० मीट्रिक टन दूषित जमीन या मिट्टी को ठीक करना ही सबसे कठिन कार्य है। 'सेंटर फॉर साइंस एंड एंवायरनमेंट,` (सीएसई) दिल्ली की अगुवाई में अप्रैल २०१३ में 'भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन` व 'भोपाल गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति` समेत सभी हित-धारकों और विशेषज्ञों को एक मंच पर लाकर एक कार्य योजना बनाने की कोशिश की गई थी । इस एक्शन-प्लान का एक मसौदा तो बनाया गया है, परन्तु इसमें म.प्र. सरकार सहित अन्य हित- धारकों और विशेषज्ञों को जोड़ने की आवश्यकता है। म.प्र. सरकार ने सी.ई.सी. द्वारा आयोजित कार्यशाला में शामिल होने से मना कर दिया था ।
लम्बे अरसे से बीमार लोगों, बुजुर्गो, निशक्तों, विधवाओं और समाज के अन्य अतिसंवेदनशील तबकों द्वारा सामना की जा रही तमाम सामाजिक-आर्थिक समस्-याओं का समुचित निदान करने में राज्य सरकार नाकाम रही है। वर्कशेड जहाँ प्रशिक्षण व रोजगार कार्यक्रम चलाये जाने थे, मात्र ४ या ५ स्थानों को छोड़कर सभी बंद है तथा आर्थिक मद में केन्द्र सरकार से २०१० में प्राप्त १०४ करोड़ रूपये की राशि का उपयोग अब तक नहीं हुआ है । कुछ वर्कशेड चल रहे हैं, जिन्हें संस्थाएं ही संचालित कर रही हैं । मुआवजे के नाम पर इन्हंे जो थोड़ा पैसा मिला   था वो इनकी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए भी काफी नहीं है। 
काम करने की क्षमता में आई कमी के साथ इनके लिए उपयोगी काम मिलना और सम्मानजनक जीवन-यापन करना भी एक चुनौती बन गई हैं। राज्य सरकार को इन अतिसंवे-दनशील गैस प्रभावितों की ओर पहले की तुलना में और अधिक ध्यान व और सहायता मुहैया कराने की सख्त जरूरत है। इसी प्रकार गैस विधवाओं तथा गैस से अपाहिज हुए प्रभावितों को आजीविका पेंशन दिए जाने पर आंशिक कार्य ही राज्य और केन्द्र सरकार द्वारा किया गया है ।      

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