मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

विशेष लेख
नवग्रह वाटिका 
डॉ. दीपक कोहली 
पृथ्वी से आकाश की ओर देखने पर आसमान में स्थिर दिखने वाले पिण्डों को नक्षत्र और स्थिति बदलते रहने वाले पिण्डों को ग्रह कहते हैं । ग्रह का अर्थ है पकड़ना । सम्भवत: अन्तरिक्ष से आने वाले प्रवाहों को धरती पर पहुँचने से पहले ये पिण्ड उन्हें आकर्षित कर ग्राहय कर लेते हैं या पकड़ लेते हें और पृथ्वी के  जीवधारियों के जीवन को प्रभावित करते हैं । इसलिए ग्रहों को बहुत महत्व दिया गया है । 
भारतीय ज्योतिष मान्यता में ग्रहों की संख्या ०९ मानी गयी है, जिसे नवग्रह भी कहा जाता है। संस्कृत के  निम्न श्लोक में नवग्रह वर्णित हैं :-
`सूर्यचन्द्रों मंगलश्च बुधश्चापि बृहस्पति:।
शुक्र: शनेश्चरो राहु: केतुश्चेति नव ग्रहा:।।`
अर्थात सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति,शुक्र, शनि, राहु और केतु ये नवग्रह  हैं । ऐसी मान्यता है कि इन ग्रहों की विभिन्न नक्षत्रों में स्थिति का विभिन्न मनुष्यों पर विभिन्न प्रकार का प्रभाव पड़ता है, ये प्रभाव अनुकूल और प्रतिकूल दोनों होते हैं । 
यज्ञ द्वारा ग्रह शान्ति के उपाय में हर ग्रह के लिए अलग-अलग विशिष्ट वनस्पति की समिधा (हवन प्रकोष्ठ) प्रयोग की जाती है, जैसा कि निम्नलिखित श्लोक  में वर्णित है :-
`अर्क: पलाश: खदिरश्चापामार्गोथ पिप्पल:।
औडम्बर: शमी दूर्व्वा कुशश्च समिघ: क्रमात। ।`
ग्रहशान्ति के यज्ञीय कार्यों में सही पहचान के अभाव में अधिकतर लोगों को सही वनस्पति नहीं मिल पाती, इसलिए नवग्रह वनस्पतियों को धार्मिक स्थलों के पास रोपित करना चाहिए ताकि यज्ञ कार्य के लिए लोगों को शुद्ध सामग्री मिल सके । यही नहीं, यह विश्वास किया जाता है कि पूजा-अर्चना के लिए इन वृक्षों/वनस्पतियों के सम्पर्क में आने पर भी ग्रहों के कुप्रभावों की शान्ति होती है । अतएव नवग्रह वनस्पतियों के रोपण की महत्ता और बढ़ जाती है ।
नवग्रह मंडल में ग्रहानुसार वनस्पतियों की स्थापना करने पर वाटिका की स्थिति निम्नवत् होगी:-
रोपण स्थल पर इन पौधों की दूरी इनके छत्र के अनुसार तथा उपलब्ध स्थान के अनुसार रखी जा सकती है । नवग्रहों वनस्पतियों की पहचान स्वरूप  विशिष्ट गुण निम्न प्रकार है :- 
(१) आक (मदार) - यह ४ से ८  फीट ऊँचाई वाला झाड़ीनुमा पौधा है। यह प्राय: निर्जन बंजर भूमि पर पाया जाता है। इसके किसी भाग को तोड़ने पर सफेद रंग का पदार्थ निकलता है। इसका फूल लालिमा लिए सफेद होता है। फल मोटी फली के रूप में होता है। बीज रोंयेदार होते हैं । 
(२) ढाक (पलाश)- यह मध्यम ऊँचाई का वृक्ष है। इसकी विशिष्ट पहचान इसके तीन पत्रकों वाले पत्ते  हैं । जिसका उपयोग पत्तल व दोना बनाने में किया जाता है। जिसकी ऊपरी सतह चिकनी होती है। पुष्प केसरीया लाल रंग के होते हैं, जो फरवरी/मार्च में वृक्ष पर लगते हैं। इसके आकर्षक पुष्पों के कारण इसे 'जंगल की आग' भी कहते हैं ।
(३) खादिर (खैर) - यह सामान्य ऊँचाई का रूक्ष-प्रकृति का वृक्ष है। सामान्यत: नदियों के किनारे की रेतीली शुष्क भूमि पर प्राकृतिक रूप से उगता है । पत्तियाँ बबूल सदृश छोटे-छोटे पत्रकों से बनी होती हैं । फल शीशम सदृश फली के रूप में होते हैं। 
(४) अपामार्ग (लटजीरा / चिचिड़ा) - यह लगभग ३ फीट ऊँचाई का छोटा झाड़ीनुमा पौधा है। इसके पुष्प व फल एक २०-२२ इंच लंबी शाख पर चारों तरफ स्थापित होते हैं। फल काँटेदार होते हैं तथा सम्पर्क में आने पर वस्त्रों पर चिपक जाते हैं । ऊर्ध्व शाख पर लगे पुष्प शीर्ष पर लालपन लिए तथा नीचे की तरफ हरापन लिए सफेद होते हैं।
(५) पिप्पल (पीपल)- यह अतिशय ऊँचाई का विशालकाय वृक्ष है। पत्ते हृदयाकार चिकने होते हैं। आघात करने पर घाव से दूधिया स्त्राव निकलता है। इसके फल गुप्त रहते हैं। बीज राई के दाने के आधे आकार में होते हैं । 
(६) औडम्बर (गूलर)- यह अच्छी ऊँचाई का वृक्ष है। पत्ते चारा के रूप में प्रयुक्त होते हैं । फल गोल एवं वृक्ष पर गुच्छों के रूप में लगते हैं। कच्च्े फल हरे तथा पकने पर गुलाबी लाल रंग के हो जाते हैं। जिन्हें पशु-पक्षी बहुत चाव से खाते हैं।
(७) शमी (छयोकर)- यह एक मध्यम ऊँचाई का बबूल सदृश्य वृक्ष है। परन्तु इसके काँटे बबूल से छोटे होते हैं। सामान्यत: यह वृक्ष शुष्क बीहड़ भूमि पर पाया जाता है। फलियाँ गुच्छों के रूप  में लगती हैं ।
(८) दूर्वा (दूब)- यह सबसे सामान्य रूप से पायी जाने वाली घास है, जो प्राय: अच्छी भूमि पर उगती है तथा 'लॉन ग्रास' के नाम से प्रसिद्ध है। हवन-यज्ञादि में इस घास का प्रयोग होता है ।
(९) कुशा (कुश)- यह शुष्क बंजर भूमि में उगने वाली घास है। यह एक अति पवित्र घास है, जिससे पूजा की 'आसनी' बनती है तथा यज्ञीय कार्यों में इसकी 'पवित्री' पहनते हैं ।  उल्लेखनीय है कि वेद ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु को वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है ।
नवग्रह वाटिका में पौधे लगाते समय विभिन्न कोणों का भी ध्यान रखा जाता है । उत्तर दिशा में पीपल, ईशान कोण में लटजीरा, पूर्व में गूलर, आग्नेय कोण में ढाक तथा दक्षिण में खैर लगाया जाता है।               

1 टिप्पणी:

DR. DEEPAK KOHLI ने कहा…

अत्यंत ज्ञानवर्धक लेख।