रविवार, 16 अप्रैल 2017

ग्रामीण जगत
हम और हमारा पर्यावरण
अरूण तिवारी
    प्रकृति का एक नियम है कि हम उसे जो देंगे, वह हमें किसी न किसी रूप में उसे लौटा देगी । सभी जानते हैंकि हमारे उपयोग की वस्तुएं जितनी कुदरती होंगी, हमारा पर्यावरण उतनी ही कुदरती बना रहेगा या बावजूद इसके दिखावट, सजावट और स्वाद के चक्कर में हम अपने खपत सामग्रियों में कृत्रिम रसायनों की उपस्थिति बढ़ाते जा रहे हैं।
    गौैर कीजिए कि कुदरती हवा को हम सिर्फ धुआं उठाकर अथवा शरीर से बदबूदार हवा छोड़कर खराब नहीं करते । ऐसी हजारों चीजें और प्रक्रियाएं हैं, जिनके जरिये हम कुदरती हवा में मिलावट करते हैं ।  होठों पर लिपस्टिक, गालों में क्रीम-पाउडर, बालों में मिनरल ऑयल युक्त तेल-शैंपू-रंग, शरीर पर रासायनिक इत्र अपनी रोजमर्रा की जिंदगी मंे कृत्रिम रसायन की ऐसी चीजों की सूची बनाइये । फिर सोचिए कि धुएं के अलावा हम कितनी चीजों के जरिये भी हवा में मिलावट करते हैं । 
     भोजन पर निगाह डालिए । नाश्ते-लंच के हमारे मीनू में तसल्ली से बने घर के भोजन से ज्यादा रेडी, टु ईट शामिल हो गया है। घर में बनाए तो भी गारंटी नहीं । सब्जी है, तो रंगी हुई, दवा छिड़कर कीड़ों से बचाई हुई । दाल है तो पॉलिश की हुई, आम है तो कार्बेट से पकाया हुआ, तेल है तो रसायन डालकर रिफाइंड किया हुआ । दूध-घी तो छोड़िए, जानवरों का चारा तक प्राकृतिक नहीं रहा । अंग्रेजी दवा पद्धति ने बाजार के साथ मिलकर देशी-कुदरती भारतीय दवा पद्धतियों से हमें दूर कर दिया है । नैचुरल और हर्बल टेग के साथ आ रहे बाजारू सामान ही नहीं, खुद अपने खेतों के बोई फसल को अब आप पूरी तरह प्राकृतिक नहीं कह सकते । हरित क्रांति ने भारत के गोदाम भरे, लेकिन उपज के प्राकृतिक होने की गारंटी छीन ली । हमने मिट्टी तो मिट्टी, जल वायु तक में मिलावट की है ।
    नदियों, तालाबों और धरती की शिराओं में जल के कुदरती होने की गारंटी तो हम कब की छिन   चुके । इस छीन ली गई गारंटी का नतीजा यह है कि अब हम इस बात की गारंटी कतई नहीं दे सकते कि ताकत और पौष्टिकता के नाम पर खाया-खिलाया गया पदार्थ हमें सेहतमंद ही बनायेगा । फलों-मेवों में छिपकर बैठे कृत्रिम रसायन हमारे शरीर में घुसकर हमारे शरीर का खेल बिगाड़ देंगे, यह आशंका अब हरदम है। खुली हवा में सांस लेना अब स्वस्थ बनाने से ज्यादा, बीमार बनाने का नुस्खा हो गया है ।
    सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम चाहकर भी अपने खान-पान, सांस-हवा को कुदरती नहीं बना पा  रहे । ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है क्योंकि हम न इलाज पर ठीक से ध्यान दे रहे हैं और न रोकथाम   पर । मीडिया मंे कहा गया कि सबसे बड़ा खतरा तो फसलों के अवशेष जलाने से है। फसल कटने के बाद अवशेष को जलाने पर रोक भी लगा दी गई । किसान कहते हैं कि हाथ से कटाई महंगी, मुश्किल और अधिक समय खाने वाली होती जा रही है। डिजाईन करने वालों ने कटाई मशीनें ऐसी डिजाईन की हैं, जिनसे भूसा-पुआल कम मिलता है और धान-गेहूं की ज्यादा डंठल खेत मंे ज्यादा छूट जाती है । उसे सड़ाने के लिए पर्याप्त पानी भी चाहिए और समय भी । यदि धान की फसल देर से तैयार हो और उसी खेत में अगली फसल बोने का समय निकला जा रहा हो, तो बचे हुए को खेत में सड़ाना संभव नहीं होता। इसलिए फसलों के बचे हुए को जलाने की मजबूरी है।
    दूसरी मजबूरी समझिए । खेतों में नये-नये तरह के खरपतवार ज्यादा पैदा हो रहे हैं । किसान या तो उन्हंे जलाये या फिर रसायन छिड़क कर नष्ट कर दे । दोनांे ही तरीके कुदरती नहीं हैं । तीसरी मजबूरी यह है कि अलाव जलाये बगैर गांव में  ठंड काटना मुश्किल है। चूल्हे के   लिए सबसे सहज, सुलभ और स्वावलंबी ईंधन अभी भी लकड़ी-उपला ही हैं। इसे अचानक रोका नहीं जा सकता ।
    यह सही है कि ये सब हवा में मिलावट के काम हैं । कुदरती होना ही गांवों का गुण है और शक्ति भी । गांव की इस शक्ति का क्षरण होना शुरु हो चुका है। इसे नकार नहीं सकते । किन्तु यहां यह भी सही है कि गांववासी हवा में जितनी मिलावट करते हैं, उससे कहीं ज्यादा उसकी कुदरती तत्व अपनी हरी-हरी फसलों और बगीचों के जरिये हवा को लौटा देते है । अत: जरूरी है कि गांव क्या कर सकता है, उसे बतायें, लेकिन इस उपदेश की आड़ में एयरकंडीशनर, फ्रिज, गर्म धुआं छोड़ते वाहनों, उद्योगों, नदियों-झीलों में मिलावट के जरिये हवा में मिलावट करने वाली बजबजाती नालियों,  ठोस कचरायुक्त नालों और बांधों के जलाश्यों जैसे बड़े मिलावट खोरों को भूल न जायें । इन ज्यादा खतरनाक मिलावटखोरों पर रोक का दिखावा ज्यादा है, संजीदा कोशिश कम । यही वजह है कि हवा को हम कुदरती बनाने की दिशा में आगे नहीं बढ़ पा रहे । 
    जब से रासायनिक उर्वरकों का उपयोग होने लगा, देसी घी में सुगंध नहीं रही, दाल-सब्जियों का अपना स्वाद नहीं रहा, अनाज में मिठास नहीं रही, गांव के नये पट्ठों में भी उतना दम नहीं रहा, अत: अब साठा सो पाठा की कहावत भी सटीक नहीं रही । ऐसी चर्चा हमारी बतकही में आम हैं । 
    किसान यह भी अनुभव कर रहा है कि पिछली बार की तुलना में अगली बार अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरक न डाला जाये, तो उपज कम होती जाती है । जैविक खाद की तुलना में रासायनिक उर्वरक का उपयोग करने रहने पर सिंचाई में पानी ज्यादा लगता है। पहले चना, मटर, सरसों बिना सिंचाई के हो जाती थी । इनकी फसल के दौरान आसमान से उतरी एक- आध फूहार ही इनके लिए काफी होती थी । किंतु अब ये फसलें भी कम से कम एक सिंचाई चाहती हैं । रासायनिक उर्वरकों के कारण मिट्टी के बंधे ढेलों के टूट जाते हैं । लिहाजा ऊपरी मिट्टी में पानी सोखकर रखने की क्षमता कम हो जाती है । परिणाम स्वरूप, ऊपरी परत में नमी बहुत जल्दी गायब हो जाती है। किसानों को इन सीधे नुकसानों का आभास है । उन्हांेने जैविक खेती की चर्चा भी सुनी है, किंतु वह जैविक खेती अपनाने के लिए तेजी से आगे नहीं आ रहा । क्यों? मैंने जानने की कोशिश की ।
    किसानों से बातचीत के दौरान स्पष्ट हुआ कि वे केचुंआ खाद, कचरा कम्पोस्ट आदि से परिचित नहीं है। गोबर गैस प्लांट उनकी पकड़ में नहीं है । हरी खाद पैदा करने के लिए हर साल जो अतिरिक्त खेत चाहिए, उनके पास उतनी जमीन नहीं है। जिला कृषि कार्यालय के अधिकारी-कर्मचारी गांव में आते-जाते नहीं । सच यही है कि जैविक खेती के सफल प्रयोगों की भनक देश के ज्यादातर किसानों को अभी भी नहीं है । जैविक प्रमाणपत्र और प्रमाणित करने की प्रक्रिया से तो वे बिल्कुल ही वे वाकिफ नहीं हैं । 
    भारत के ज्यादातर किसान जैविक खेती की व्यावहारिकता को लेेकर इसी स्थिति में हैं । जरूरी है कि उन्हंे जैविक खेती के सफल प्रयोग, तकनीक और अनुभवों से उनका सीधे साक्षात्कार कराया जाये । यदि हम चाहते हों कि हमारी खेती कुदरती हो जाये, तो हमारी कृषि वैज्ञानिक, अधिकारी और सरकारें उर्वरक तथा बाजारू बीज कंपनियों की एजेंट बनने का भूमिका त्यागें । किस प्राकृतिक खाद-पदार्थ में कौन सा रसायन है ? किस प्राकृतिक पदार्थ को सीधे अथवा सिंचाई के माध्यम से खेत की मिट्टी में मिलाने से मिट्टी की जरूरत के हिसाब से किस रसायन की पूर्ति की जा सकती है ?  
    हमारे बाजार, हमारी जीवनशैली, हमारी तात्कालिक जरूरतें, हमारी सरकारें, हम खुद..... निस्संदेह, चुनौतियां बहुत हैं। खेती, माटी, जल, हवा को फिर से १०० फीसदी कुदरती बनाना इतना आसान नहीं है। किंतु किसी एक पहलू से व्यापक शुरुआत तो की जा सकती है। किसानों को भी चाहिए कि वे सरकार की ओर ताकने की बजाय,अपना बीज,अपनी खाद, अपनी दवाई, अपना चारागाह, अपना तालाब, बचाने के काम खुद शुरु करे। पंचायतों को इसके सामूहिक प्रयास शुरु करने चाहिए।

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