सोमवार, 19 अगस्त 2019

सामयिक
देश बन रहा है डंपिग ग्राउंड
संध्या राय चौधरी 

इंटरनेशनल टेलीकम्युनि-केशंस यूनियन (आईटीयू) के आंकड़ों  के अनुसार भारत चीन और कुछ अन्य देशों में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी को पीछे छोड़ चुकी है । इससे इलेक्ट्रानिक क्रांति में खतरे ही खतरे उत्पन्न हो जाएंगे जो इस धरती की हर चीज को नुकसान पहुंचाएंगे ।
फिलहाल भारत में एक अरब से ज्यादा मोबाइल ग्राहक है । मोबाइल सेवाएं शुरू होने के २० साल बाद भारत ने यह आंकड़ा इसी साल जनवरी में पार किया है । फिलहाल चीन और भारत में एक-एक अरब से ज्यादा लोग मोबाइल फोन से जुडे हैं । देश में मोबाइल फोन इंडस्ट्री को अपने पहले १० लाख ग्राहक जुटाने में करीब ५ साल लग गए थे, पर अब भारत-चीन जैसे आबादी बहुल देशों की बदौलत पूरी दुनिया में मोबाइल के  आंकड़े ८ अरब को भी पीछे छोड़ चुकी    है । 

ये आंकड़े बताते हैं कि अब गरीब देशों के नागरिक भी जिदंगी में बेहद जरूरी बन गई संचार सेवाओं का लाभ उठाने की स्थिति में हैं, वहीं यह इलेक्ट्रानिक क्रांति दुनिया को एक ऐसे खतरे की तरफ ले जा रही है जिस पर अभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह खतरा है इलेक्ट्रानिक कचरे यानी ई-कचरे का ।
आईटीयू के मुताबिक , भारत, रूस, ब्राजील समेत करीब १० देश ऐसे हैं जहां मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज्यादा है । रूस में २५ करोड़ से ज्यादा मोबाइल हैं जो वहां की आबादी का १.८ गुना है। ब्राजील में २४ करोड़ मोबाइल हैं, जो आबादी से १.२ गुना हैं। इसी तरह मोबाइल फोनधारकों के मामले में अमेरिका और रूस को पीछे छोड़ चुके भारत में भी स्थिति यह बन गई है कि यहां करीब आधी आबादी के पास मोबाइल फोन है । भारत की विशाल आबादी और फिर बाजार में सस्ते से सस्ते मोबाइल हैंडसेट उपलब्ध होने की सूचनाओं के आधार पर इस दावे में कोई संदेह भी नहीं लगता । पर यह तरक्की हमें इतिहास के एक ऐसे विचित्र मोड़ पर ले आई है, जहां हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि आगे कितना खतरा है ? 
हालांकि इस बारे में थोड़े-बहुत आकलन-अनुमान अवश्य हैं जिनसे समस्या का आभास होता है । जैसे वर्ष २०१५ में इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजूकेशन एंड रिसर्च (आईटीईआर) द्वारा मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग ऑफ-ई वेस्ट विषय पर आयोजित सेमिनार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के  विज्ञानियों ने एक आकलन करके बताया था कि भारत हर साल ८ लाख टन इलेक्ट्रानिक कचरा पैदा कर रहा है। इस कचरे में देश के ६५ शहरों का योगदान है पर सबसे ज्यादा ई-वेस्ट देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में पैदा हो रहा है। 
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन दुनिया का सबसे बड़ा ई-वेस्ट डंपिंग ग्राउंड है। उल्लेखनीय यह है कि जो टीवी, फ्रिज, एयर कंडीशनर, मोबाइल फोन, कम्प्यूटर आदि चीन में बनाकर पूरी दुनिया में सप्लाई किए जाते हैं, कुछ वर्षों बाद चलन से बाहर हो जाने और कबाड़ में तब्दील हो जाने के बाद वे सारे उपकरण चीन या भारत लौट आते हैं। निसंदेह अभी पूरी दुनिया का ध्यान विकास की ओर है । टेक्नालॉजी की तरक्की ने हमें जो साधन और सुविधाएं मुहैया कराई हैं, उनसे हमारा जीवन पहले के मुकाबले आसान भी हुआ है । 
हम फैक्स मशीन, फोटो कॉपियर, डिजिटल कैमरों, लैपटॉप, प्रिंटर, इलेक्ट्रानिक खिलौने व गैजेट, एयर कंडीशनर, माइक्रोवेव, कुकर, थर्मामीटर आदि चीजों से घिर चुके है । दुविधा यह है कि आधुनिक विज्ञान पर सवार हमारा समाज जब इन उपकरणों के पुराना पड़ने पर उनसे पीछा छुडाएगा, तो ई-कचरे की विकराल समस्या से कैसे निपट पाएगा । 
यह चिंता भारत-चीन जैसे तीसरी दुनिया के देशों के लिए ज्यादा बड़ी है क्योंकि यह कचरा ब्रिटेन-अमेरिका जैसे विकसित देशों की सेहत पर कोई असर नहीं डाल रहा है। इसकी एक वजह यह है कि तकरीबन सभी विकसित देशों ने ई-कचरे से निपटने के  प्रबंध पहले ही कर लिए हैं, और दूसरे, वे ऐसा कबाड़ हमारे जैसे गरीब मुल्कों की तरफ ठेल रहे हैं । हमारे लिए चुनौती दोहरी है । पहले तो हमें देश के भीतर पैदा होने वाली समस्या से जूझना है और फिर विदेशी ई-कचरे से निपटना है। हमारी चिंताओं को असल में इससे मिलने वाली पूंजी ने ढांप रखा है। विकसित देशों से मिलने वाले चंद डॉलरों के बदले हम यह मुसीबत खुद ही अपने यहां बुला रहे हैं। 
ई-कचरा पर्यावरण और मानव सेहत की बलि भी ले सकता है। मोबाइल फोन की ही बात करें, तो कबाड़ में फेंके गए इन फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक जमीन में स्वाभाविक रूप से घुलकर नष्ट नहीं होते। सिर्फ एक मोबाईल फोन की बैटरी ६ लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है। इसके  अलावा एक पर्सनल कम्प्यूटर में ३.८ पौंड घातक सीसा तथा फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं और विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं । कम्प्यूटरों के स्क्रीन के  रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड रे पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में सीसा (लेड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह होता है। 
समस्या इस वजह से भी ज्यादा विनाशकारी है क्योंकि हम सिर्फ अपने ही देश के ई-कबाड़ से काम की चीजे निकालने की आत्मघाती कोशिश नहीं करते, बल्कि विदेशों से भी ऐसा खतरनाक कचरा अपने स्वार्थ के लिए आयात करते हैं। पर्यावरण स्वयंसेवी संस्था ग्रीनपीस ने अपनी रिपोर्ट  टॉक्सिक टेक : रीसाइक्ल्ग इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट्स इन चाइना एंड इंडिया  में साफ किया है कि जिस ई-कचरे की रिसाहक्लिंग पर युरोप में २० डॉलर का खर्च आता है, वही काम भारत-चीन जैसे देशेां में महज चार डॉलर में हो जाता है। वैसे तो हमारे देश में ई-कचरे पर रोक लगाने वाले कानून हैं। 
खतरनाक कचरा प्रबंधन और निगरानी नियम १९८९ की धारा ११(१) के तहत ऐसे कबाड़ की खुले में रिसायथ्कलग और आयात पर रोक है, लेकिन कायदों को अमल में नहीं लाने की लापरवाही ही वह वजह है, जिसके कारण अकेले दिल्ली की सीलमपुर, जाफराबाद, मायापुरी, बुराड़ी आदि बस्तियों में संपूर्ण देश से आने वाले ई-कचरे का ४० फीसदी हिस्सा रिसायकिल किया जाता है। 
हमारी तरक्की ही हमारे खिलाफ न हो जाए और हमारा देश दुनिया के ई-कचरे के डंपिंग ग्राउंड में तब्दील होकर नहीं रह जाए ; इस बाबत सरकार और जनता, दोनों स्तरों पर जागृति की जरूरत है ।                              

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